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aryasamaj0 · 2 months
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केन्द्रीय आर्य युवक परिषद्
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vaidicphysics · 2 months
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वेदों पर किये गये आक्षेपों का उत्तर
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भूमिका सभी वेदानुरागी महानुभावो! जैसा कि आपको विदित है कि मैंने विगत श्रावणी पर्व वि० सं० २०८० तदनुसार ३० जुलाई २०२३ को सभी वेदविरोधियों का आह्वान किया था कि वे वेदादि शास्त्रों पर जो भी आक्षेप करना चाहें, खुलकर ३१ दिसम्बर २०२३ तक कर सकते हैं। हमने इस घोषणा का पर्याप्त प्रचार किया और करवाया भी था। इस पर हमें कुल १३४ पृष्ठ के आक्षेप प्राप्त हुए हैं। इन आक्षेपों को हमने अपने एक पत्र के साथ देश के शंकराचार्यों के अतिरिक्त पौराणिक जगत् में महामण्डलेश्वर श्री स्वामी गोविन्द गिरि, श्री स्वामी रामभद्राचार्य, श्री स्वामी चिदानन्द सरस्वती आदि कई विद्वानों को भेजा था। आर्यसमाज में सार्वदेशिक आर्य प्रतिनिधि सभा, परोपकारिणी सभा, वानप्रस्थ साधक आश्रम (रोजड़), दर्शन योग महाविद्यालय (रोजड़), गुरुकुल काँगड़ी हरिद्वार तथा सभी प्रसिद्ध आर्य विद्वानों को भेजकर निवेदन किया था कि ऋषि दयानन्द के २०० वें जन्मोत्सव फाल्गुन कृष्ण पक्ष दशमी वि० सं० २०८० तदनुसार ५ मार्च २०२४ तक जिन आक्षेपों का उत्तर दिया जा सकता है, लिखकर हमें भेजने का कष्ट करें। उस उत्तर को हम अपने स्तर से प्रकाशित और प्रचारित करेंगे।
यद्यपि मुझे ही सब प्रश्नों के उत्तर देने चाहिए, परन्तु मैंने विचार किया कि इन आक्षेपों का उत्तर देने का श्रेय मुझे ही क्यों मिले और वेदविरोधियों को यह भी न लगे कि आर्यसमाज में एक ही विद्वान् है। इसके साथ मैंने यह भी विचार किया कि मेरे उत्तर देने के पश्चात् कोई विद्वान् यह न कहे कि हमें उत्तर देने का अवसर नहीं मिला, यदि हमें अवसर मिलता, तो हम और भी अच्छा उत्तर देते। दुर्भाग्य की बात यह है कि निर्धारित समय के पूर्ण होने के पश्चात् तक कहीं से कोई भी उत्तर प्राप्त नहीं हुआ है। बड़े-बड़े शंकराचार्य, महामण्डलेश्वर, महापण्डित, गुरु परम्परा से पढ़े महावैयाकरण, दार्शनिक, राष्ट्रीय और अन्तर्राष्ट्रीय वैदिक प्रवक्ता, योगी एवं वेद विज्ञान अन्वेषक कोई भी एक प्रश्न का भी उत्तर नहीं दे पाये। तब यह तो निश्चित हो ही गया कि ये आक्षेप वा प्रश्न सामान्य नहीं हैं। आक्षेपकर्त्ताओं ने पौराणिक तथा आर्यसमाजी दोनों के ही भाष्यों को आधार बनाकर गम्भीर व घृणित आक्षेप किये हैं। उन्होंने गायत्री परिवार को भी अपना निशाना बनाया है, परन्तु सभी मौन बैठे हैं, लेकिन मैं मौन नहीं रह सकता। इस कारण इन आक्षेपों का धीरे-धीरे क्रमश: उत्तर देना प्रारम्भ कर रहा हूँ। मैं जो उत्तर दूँगा उसको कोई भी वैदिक विद्वान्, जो आज मौन बैठे हैं, गलत कहने के अधिकारी नहीं रह पायेंगे, न मेरे उत्तर और वेदमन्त्रों के भाष्यों पर नुक्ताचीनी करने के अधिकारी रहेंगे। आज धर्म और अधर्म का युद्ध हो रहा है, उसका मूक दर्शक सच्चा वेदभक्त नहीं कहला सकता। मैंने चुनौती स्वीकारी तो है, उनकी भाँति मौन तो नहीं बैठा। वेद पर किये गये आक्षेपों पर मौन रहना भी उन आक्षेपों का मौन समर्थन करना ही है। यद्यपि मैं बहुत व्यस्त हूँ, पुनरपि धीरे-धीरे एक-एक प्रश्न का उत्तर देता रहूँगा। मैं सभी उत्तरदायी महानुभावों से दिनकर जी के शब्दों में यह अवश्य कहना चाहूँगा—
जो तटस्थ हैं समय लिखेगा उनका भी अपराध। मनुष्य इस संसार का सबसे विचारशील प्राणी है। इसी प्रकार इस ब्रह्माण्ड में जहाँ भी कोई विचारशील प्राणी रहते हैं, वे भी सभी मनुष्य ही कहे जायेंगे। यूँ तो ज्ञान प्रत्येक जीवधारी का एक प्रमुख लक्षण है। ज्ञान से ही किसी की चेतना का प्रकाशन होता है, सूक्ष्म जीवाणुओं से लेकर हम मनुष्यों तक सभी प्राणी जीवनयापन के क्रियाकलापों में भी अपने ज्ञान और विचार का प्रयोग करते ही हैं। जीवन-मरण, भूख-प्यास, गमनागमन, सन्तति-जनन, भय, निद्रा और जागरण आदि सबके पीछे भी ज्ञान और विचार का सहयोग रहता ही है, तब महर्षि यास्क ने ‘मत्वा कर्माणि सीव्यतीति मनुष्य:’ कहकर मनुष्य को परिभाषित क्यों किया? इसके लिए ऋषि दयानन्द द्वारा प्रस्तुत आर्यसमाज के पाँचवें नियम ‘सब काम धर्मानुसार अर्थात् सत्य और असत्य को विचार करके करने चाहिए’ पर विचार करना आवश्यक है। विचार करना और सत्य-असत्य पर विचार करना इन दोनों में बहुत भेद है, जो हमें पशु-पक्षियों और कीट-पतंगों से पृथक् करता है। विचार वे भी करते हैं, परन्तु उनका विचार केवल जीवनयापन की क्रियाओं तक सीमित रहता है।
इधर सत्य और असत्य पर विचार जीवनयापन करने की सीमा से बाहर भी ले जाकर परोपकार में प्रवृत्त करके मोक्ष तक की यात्रा करा सकता है। यह एक आश्चर्यजनक तथ्य है कि जीवनयापन के विचार तक सीमित रहने वाले प्राणी जन्म से ही आवश्यक स्वाभाविक ज्ञान प्राप्त किये हुए होते हैं, परन्तु मनुष्य जैसा सर्वाधिक बुद्धिमान् प्राणी पशु-पक्षियोंं की अपेक्षा न्यूनतर ज्ञान लेकर जन्म लेता है। वह अपने परिवेश और समाज से सीखता है। इस कारण केवल मनुष्य के लिए ही समाज तथा शिक्षण-संस्थानों की आवश्यकता होती है। इनके अभाव में मनुष्य पशु-पक्षियों को देखकर उन जैसा ही बन जाता है। हाँ, उनकी भाँति उड़ने जैसी क्रियाएँ नहींं कर सकता। समाज और शिक्षा के अभाव में वह मानवीय भाषा और ज्ञान दोनों ही दृष्टि से पूर्णत: वंचित रह जाता है। यदि उसे पशु-पक्षियों को भी न देखने दिया जाये, तब उसके  आहार-विहार में भी कठिनाई आ सकती है। इसके विपरीत करोड़ों वर्षों से हमारे साथ रह रहे गाय-भैंस, घोड़ा आदि प्राणी हमारा एक भी व्यवहार नहीं सीख पाते। हाँ, वे अपने स्वामी की भाषा और संकेतों को कुछ समझकर तदनुकूल खान-पान आदि व्यवहार अवश्य कर लेते हैं। इस कारण कुछ पशु यत्किंचित् प्रशिक्षित भी किये जा सकते हैं, परन्तु मनुष्य की भाँति उन्हें शिक्षित, सुसंस्कृत, सभ्य एवं विद्वान् नहीं बनाया जा सकता। यही हममें और उनमें अन्तर है। अब प्रश्न यह उठता है कि जो मनुष्य जन्म लेते समय पशु-पक्षियों की अपेक्षा मूर्ख होता है, जीवनयापन में भी सक्षम नहीं होता, वह सबसे अधिक विद्वान्, सभ्य व सुशिक्षित कैसे हो जाता है?
जब मनुष्य की प्रथम पीढ़ी इस पृथिवी पर जन्मी होगी, तब उसने अपने चारों ओर पशु-पक्षियों और कीट-पतंगों को ही देखा होगा, तब यदि वह पीढ़ी उनसे कुछ सीखती, तो उन्हीं के जैसा व्यवहार करती और उनकी सन्तान भी उनसे वैसे ही व्यवहार सीखती। आज तक भी हम पशुओं जैसे ही रहते, परन्तु ऐसा नहीं हुआ। हमने विज्ञान की ऊँचाइयों को भी छूआ। वैदिक काल में हमारे पूर्वज नाना लोक-लोकान्तरोंं की यात्रा भी करते थे। कला, संगीत, साहित्य आदि के क्षेत्र में भी मनुष्य का चरमोत्कर्ष हुुआ, परन्तु पशु-पक्षी अपनी उछल-कूद से आगे बढ़कर कुछ भी नहीं सीख पाए। मनुष्य को ऐसा अवसर कैसे प्राप्त हो गया? उसने किसकी संगति से यह सब सीखा? इसके विषय में कोई भी नास्तिक कुछ भी विचार नहीं करता। वह इसके लिए विकासवाद की कल्पनाओं का आश्रय लेता देखा जाता है। यदि विकास से ही सब कुछ सम्भव हो जाता, तब तो पशु-पक्षी भी अब तक वैज्ञानिक बन गये होते, क्योंकि उनका जन्म तो हमसे भी पूर्व में हुआ था। इस कारण उनको विकसित होने के लिए हमारी अपेक्षा अधिक समय ही मिला है। इसके साथ ही यदि विकास से ही सब कुछ स्वत: सिद्ध हो जाता, तो मनुष्य के लिए भी किसी प्रकार के विद्यालय और समाज की आवश्यकता नहीं होती, परन्तु ऐसा नहीं है। नास्तिकों को इस बात पर गम्भीरता से विचार करना चाहिए कि मनुष्य में भाषा और ज्ञान का विकास कहाँ से हुआ?
इस विषय में विस्तार से जानने के लिए मेरा ग्रन्थ ‘वैदिक रश्मि-विज्ञानम्’ अवश्य पठनीय है, जिससे यह सिद्ध होता है कि प्रथम पीढ़ी के चार सर्वाधिक समर्थ ऋषि अग्नि, वायु, आदित्य एवं अंगिरा ने ब्रह्माण्ड से उन ध्वनियों को अपने आत्मा और अन्त:करण से सुना, जो ब्रह्माण्ड में परा और पश्यन्ती रूप में विद्यमान थीं। उन ध्वनियों को ही वेदमन्त्र कहा गया। उन वेदमन्त्रों का अर्थ बताने वाला ईश्वर के अतिरिक्त और कोई भी नहीं था। दूसरे मनुष्य तो इन ध्वनियों को ब्रह्माण्ड से ग्रहण करने में भी समर्थ नहींं थे, भले ही उनका प्रातिभ ज्ञान एवं ऋतम्भरा ऋषि स्तर की थी। सृष्टि के आदि में सभी मनुष्य ऋषि कोटि के ब्राह्मण वर्ण के ही थे, अन्य कोई वर्ण भूमण्डल में नहीं था। उन चार ऋषियों को समाधि अवस्था में ईश्वर ने ही उन मन्त्रों के अर्थ का ज्ञान दिया। उन चारों ने मिलकर महर्षि ब्रह्मा को चारों वेदों का ज्ञान दिया और महर्षि ब्रह्मा से फिर ज्ञान की परम्परा सभी मनुष्यों तक पहुँचती चली गई। इस प्रकार ब्रह्माण्ड की इन ध्वनियों से ही मनुष्य ने भाषा और ज्ञान दोनों ही सीखे। इस कारण मनुष्य नामक प्राणी सभी प्राणियों में सर्वश्रेष्ठ बन गया।
ध्यातव्य है कि प्रथम पीढ़ी में जन्मे सभी मनुष्य मोक्ष से पुनरावृत्त होकर आते हैं। इसी कारण ये सभी ऋषि कोटि के ही होते हैं। ज्ञान की परम्परा किस प्रकार आगे बढ़ती गयी और मनुष्य की ऋतम्भरा कैसे धीरे-धीरे क्षीण होती गयी और मनुष्यों को वेदार्थ समझाने के लिए कैसे-कैसे ग्रन्थों की रचना आवश्यक होती चली गई और कैसा-कैसा साहित्य रचा गया, इसकी जानकारी के लिए मेरा ‘वेदार्थ-विज्ञानम्’ ग्रन्थ पठनीय है। वेद को वेद से समझने की प्रज्ञा मनुष्य में जब समाप्त वा न्यून हो जाती है, तभी उसके लिए किसी अन्य ग्रन्थ की आवश्यकता होती है। धीरे-धीरे वेदार्थ में सहायक आर्ष ग्रन्थ भी मनुष्य के लिए दुरूह हो गये और आज तो स्थिति यह है कि वेद एवं आर्ष ग्रन्थों के प्रवक्ता भी इनके यथार्थ से अति दूर चले गये हैं। इस कारण वेद तो क्या, आर्ष ग्रन्थ भी कथित बुद्धिमान् मानव के लिए अबूझ पहेली बन गये हैं। इस स्थिति से उबारने के लिए ऋषि दयानन्द सरस्वती और उनके महान् गुरु प्रज्ञाचक्षु स्वामी विरजानन्द सरस्वती ने बहुत प्रयत्न किया, परन्तु समयाभाव आदि परिस्थितियों के कारण ऋषि दयानन्द के वेदभाष्य एवं अन्य ग्रन्थ वेद के रहस्यों को खोलने के लिए संकेतमात्र ही रह गये। वे वेद के यथार्थ को जानने के लिए सुमार्ग पर चलने वाले पथिक के रेत में बने हुुए पदचिह्न के समान थे। गन्तव्य की ओर गये हुए पदचिह्न किसी भी भ्रान्त पथिक के लिए महत्त्वपूर्ण सहायक होते हैं।
दुर्भाग्य से ऋषि दयानन्द के अनुयायियों ने ऋषि के बनाये हुए कुछ पदचिह्नों को ही गन्तव्य समझ लिया और वेदार्थ को समझने के लिए उन्होंने कोई ठोस प्रयत्न नहीं किया। उनका यह कर्म महापुरुषों की प्रतिमाओं को ही परमात्मा मानने की भूल करने जैसा ही था। इसका परिणाम यह हुआ कि ऋषि दयानन्द के अनुयाय�� विद्वान् भी वेदादि शास्त्रों के भाष्य करने में आचार्य सायण आदि के सरल प्रतीत होने वाले परन्तु वास्तव में भ्रान्त पथ के पथिक बन गये। इसी कारण पौराणिक (कथित सनातनी) भाष्यकारों की भाँति आर्य विद्वानों के भाष्यों में भी अश्लीलता, पशुबलि, मांसाहार, नरबलि, छुआछूत आदि पाप विद्यमान हैं। यद्यपि उन्होंने शास्त्रों को इन पापों से मुक्त करने का पूर्ण प्रयास किया, परन्तु वे इसमें पूर्णत: सफल नहीं हो सके। इसी कारण इनके भाष्यों में सायण आदि आचार्यों के भाष्यों की अपेक्षा ये दोष कम मात्रा में विद्यमान हैं, परन्तु वेद और ऋषियों के ग्रन्थों में एक भी दोष का विद्यमान होना वेद के अपौरुषेयत्व और ऋषियों के ऋषित्व पर प्रश्नचिह्न खड़ा करने के लिए पर्याप्त होता है। इसलिए ऋषि दयानन्द के भाष्य के अतिरिक्त सभी भाष्य दोषपूर्ण और मिथ्या हैं। हाँ, ऋषि दयानन्द के भाष्य भी सांकेतिक पदचिह्न मात्र होने के कारण सात्त्विक व तर्कसंगत व्याख्या की अपेक्षा रखते हैं।
इसके लिए सब मनुष्यों को यह अति उचित है कि वे वेद के रहस्य को समझने के लिए ‘वैदिक रश्मि-विज्ञानम्’ ग्रन्थ का गहन अध्ययन करें। जो विद्वान् वेद और ऋषियों की प्रज्ञा की गहराइयों में और अधिक उतरना चाहते हैं, उन्हें ‘वेदविज्ञान-आलोक’ और ‘वेदार्थ-विज्ञानम्’ ग्रन्थ पढ़ने चाहिए। जो आधुनिक शिक्षा प्राप्त कर रहे शिक्षक वा विद्यार्थी वेद का सामान्य परिचय चाहते हैं, उन्हें ऋषि दयानन्द कृत ‘सत्यार्थ-प्रकाश’ एवं ‘ऋग्वेदादिभाष्यभूमिका’ और प्रिय विशाल आर्य कृत ‘परिचय वैदिक भौतिकी’ ग्रन्थ पढ़ने चाहिए। अब हम क्रमश: वेदादि शास्त्रों पर किये गये आक्षेपों का समाधान प्रस्तुत करेंगे—
क्रमशः... ✍ आचार्य अग्निव्रत नैष्ठिक
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helputrust · 2 months
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05.03.2024, लखनऊ | महर्षि दयानंद सरस्वती जी की 201वीं जन्म जयंती के अवसर पर हेल्प यू एजुकेशनल एंड चैरिटेबल ट्रस्ट द्वारा ट्रस्ट के इंदिरा नगर स्थित कार्यालय में श्रद्धापूर्ण पुष्पांजलि कार्यक्रम का आयोजन किया गया | कार्यक्रम के अंतर्गत हेल्प यू एजुकेशनल एंड चैरिटेबल ट्रस्ट के प्रबंध न्यासी श्री हर्ष वर्धन अग्रवाल, न्यासी डॉ रूप��� अग्रवाल, ट्रस्ट के स्वयंसेवकों ने महर्षि दयानंद सरस्वती जी के चित्र पर पुष्पांजलि अर्पित कर उन्हें सादर नमन किया |
इस अवसर पर श्री हर्ष वर्धन अग्रवाल ने कहा कि, “महर्षि दयानंद सरस्वती ने अपने समय में विशेष एवं महत्वपूर्ण संदेशों को व्यक्त किया । उन्होंने समाज में धार्मिक उत्थान के लिए जीवन की सार्थकता पर बल दिया । उनकी बातें समाज में सदगुणों के प्रति जागरूकता फैलाने के लिए थीं । उन्होंने धर्म, संस्कृति और राष्ट्रीयता के प्रति अपना समर्पण दिखाया । उनके विचारों में समाज को जागरूक, उदार और समर्थ बनाने की भावना थी । वे एक स्वतंत्र व्यक्तित्व थे जिन्होंने न्याय, समानता और समरसता के माध्यम से समाज के विकास के लिए काम किया । उनके जीवन और विचारों का सम्मान करना आज भी हमारा कर्तव्य है ताकि हम समृद्ध और समर्थ समाज की दिशा में अग्रसर हो सकें |”
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sujit-kumar · 1 year
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कबीर बड़ा या कृष्ण Part 90
वेदों से जानते हैं परम अक्षर ब्रह्म कौन है? Part B
यहाँ पर वेदों के मंत्रों की कुछ फोटोकाॅपी लगाई हैं जिनका अनुवाद आर्य समाज के आचार्यों, शास्त्रियों ने किया है। कुछ ठीक, कुछ गलत है। परंतु सत्य फिर भी स्पष्ट है।
वेद मंत्रों में कहा है कि सृष्टि का उत्पत्तिकर्ता ‘‘परम अक्षर ब्रह्म’’ यानि ‘‘सत्यपुरूष’’ आकाश में बने सनातन परम धाम यानि सत्यलोक में निवास करता है। एक सिंहासन पर विराजमान है। उसके सिर के ऊपर मुकट तथा छत्र लगे हैं। परमेश्वर देखने में राजा के समान है। परमेश्वर वहाँ से चलकर नीचे के लोक में पृथ्वी आदि पर चलकर (गति करके) आता है। अच्छी आत्माओं को मिलता है। उनको यथार्थ अध्यात्म ज्ञान बताता है। अपने मुख से वाणी बोल-बोलकर भक्ति करने की प्रेरणा करता है। साधना के सत्य नामों का आविष्कार करता है। प्रत्येक युग में एक बार ऐसी लीला करते हुए शिशु रूप धारण करके कमल के फूल पर निवास करता है। वहाँ से बाल परमेश्वर को निःसंतान दम्पति उठा ले जाते हैं। बाल भगवान की परवरिश कंवारी गायों द्वारा होती है। बड़ा होकर तत्त्वज्ञान का प्रचार करता है। अपने मुख से वाणी उच्चारण करता है। दोहों, चैपाईयों, शब्दों के माध्यम से अपनी जानकारी की वाणी उच्चारण करता है जिसको (कविर्गिर्भीः) कबीर वाणी कहा जाता है तथा इसी कारण से प्रसिद्ध कवि की भी पदवी प्राप्त करता है यानि उसको कवि कहा जाता है। जिस पर वेदों में कहे लक्षण खरे उतरते हैं। वही सृष्टि का उत्पत्ति कर्ता तथा सबका धारण-पोषण कर्ता है। अन्य नहीं हो सकता। ये लक्षण केवल कबीर जुलाहे (काशी वाले) पर खरे उतरते हैं। इसलिए परम अक्षर ब्रह्म कबीर जी हैं। इन वेद मंत्रों के बाद चारों युगों में परमेश्वर कबीर जी का लीला करने आने का संक्षिप्त वर्णन है। उसे पढ़कर जान जाओगे कि वेदों में कबीर परमेश्वर जी का वर्णन है। कबीर परमेश्वर जी ने भी कहा है:-
बेद मेरा भेद है, मैं ना बेदन के मांही। जौन बेद से मैं मिलूं, बेद जानते नांही।।
अर्थात् कबीर जी ने स्पष्ट किया है कि चारों वेद मेरी महिमा बताते हैं। परंतु इन वेदों में मेरी प्राप्ति की भक्ति विधि नहीं क्योंकि काल ब्रह्म ने वह यथार्थ भक्ति के मंत्र निकाल दिए थे। मेरी प्राप्ति का ज्ञान जिस सूक्ष्म वेद में है, उसका ज्ञान वेदों में अंकित नहीं है।
कृपया पढ़ें वेद मंत्र तथा दास (रामपाल दास) के द्वारा किया गया विश्लेषण, इनके बाद परमेश्वर कबीर जी का चारों युगों में सतलोक सिंहासन से गति करके आने का प्रकरण।
वेद मंत्र (प्रमाण सहित)
प्रमाण ऋग्वेद मण्डल नं. 9 सुक्त 86 मन्त्र 26-27
Rig Veda Mandal 9 Sukt 86 Mantra 26
ववेचन:- ऋग्वेद मण्डल 9 सूक्त 86 मन्त्र 26, जो आर्यसमाज के आचार्यों व महर्षि दयानन्द के चेलों द्वारा अनुवादित है जिसमें स्पष्ट है कि यज्ञ करने वाले अर्थात् धार्मिक अनुष्ठान करने वाले यजमानों अर्थात् भक्तों के लिए परमात्मा, सब रास्तों को सुगम करता हुआ अर्थात् जीवन रूपी सफर के मार्ग को दुखों रहित करके सुगम बनाता हुआ। उनके विघ्नों अर्थात् संकटों का मर्दन करता है अर्थात् समाप्त करता है। भक्तों को पवित्र अर्थात् पाप रहित, विकार रहित करता है। जैसा की अगले मन्त्र 27 में कहा है कि ’’जो परमात्मा द्यूलोक अर्थात् सत्यलोक के तीसरे पृष्ठ पर विराजमान है, वहाँ पर परमात्मा के शरीर का प्रकाश बहुत अधिक है।‘‘ उदाहरण के लिए परमात्मा के एक रोम (शरीर के बाल) का प्रकाश करोड़ सूर्य तथा इतने ही चन्द्रमाओं के मिले-जुले प्रकाश से भी अधिक है। यदि वह परमात्मा उसी प्रकाश युक्त शरीर से पृथ्वी पर प्रकट हो जाए तो हमारी चर्म दृष्टि उन्हें देख नहीं सकती। जैसे उल्लु पक्षी दिन में सूर्य के प्रकाश के कारण कुछ भी नहीं देख पाता है। यही दशा मनुष्यों की हो जाए। इसलिए वह परमात्मा अपने रूप अर्थात् शरीर के प्रकाश को सरल करता हुआ उस स्थान से जहाँ परमात्मा ऊपर रहता है, वहाँ से गति करके बिजली के समान क्रीड़ा अर्थात् लीला करता हुआ चलकर आता है, श्रेष्ठ पुरूषों को मिलता है। यह भी स्पष्ट है कि आप कविः अर्थात् कविर्देव हैं। हम उन्हें कबीर साहेब कहते हैं।
Rig Veda Mandal 9 Sukt 86 Mantra 27
विवेचन:- ऋग्वेद मण्डल 9 सूक्त 86 के मन्त्र 27। इसमें स्पष्ट है कि ’’परमात्मा द्यूलोक अर्थात् अमर लोक के तीसरे पृष्ठ अर्थात् भाग पर विराजमान है। सत्यलोक अर्थात् शाश्वत् स्थान के तीन भाग हैं। एक भाग में वन-पहाड़-झरने, बाग-बगीचे आदि हैं। यह बाह्य भाग है अर्थात् बाहरी भाग है। (जैसे भारत की राजधानी दिल्ली भी तीन भागों में बँटी है। बाहरी दिल्ली जिसमें गाँव खेत-खलिहान और नहरें हैं, दूसरा बाजार बना है। तीसरा संसद भवन तथा कार्यालय हैं।)
इसके पश्चात् द्यूलोक में बस्तियाँ हैं। सपरिवार मोक्ष प्राप्त हंसात्माऐं रहती हैं। (पृथ्वी पर जैसे भक्त को भक्तात्मा कहते हैं, इसी प्रकार सत्यलोक में हंसात्मा कहलाते हैं।) (3) तीसरे भाग में सर्वोपरि परमात्मा का सिंहासन है। उसके आस-पास केवल नर आत्माऐं रहती हैं, वहाँ स्त्री-पुरूष का जोड़ा नहीं है। वे यदि अपना परिवार चाहते हैं तो शब्द (वचन) से केवल पुत्र उत्पन्न कर लेते हैं। इस प्रकार शाश्वत् स्थान अर्थात् सत्यलोक तीन भागों में परमात्मा ने बाँट रखा है। वहाँ यानि सत्यलोक में प्रत्येक स्थान पर रहने वालों में वृद्धावस्था नहीं है, वहाँ मृत्यु नहीं है। इसीलिए गीता अध्याय 7 श्लोक 29 में कहा है कि जो जरा अर्थात् वृद्ध अवस्था तथा मरण अर्थात् मृत्यु से छूटने का प्रयत्न करते हैं, वे तत् ब्रह्म अर्थात् परम अक्षर ब्रह्म को जानते हैं। सत्यलोक में सत्यपुरूष रहता है, वहाँ पर जरा-मरण नहीं है, बच्चे युवा होकर सदा युवा रहते हैं।
प्रमाण ऋग्वेद मण्डल नं. 9 सुक्त 82 मन्त्र 1-2
Rig Veda Mandal 9 Sukt 82 Mantra 1
Rig Veda Mandal 9 Sukt 82 Mantra 2
विवेचन:- ऊपर ऋग्वेद मण्डल 9 सूक्त 82 मन्त्र 1-2 की फोटोकापी हैं, यह अनुवाद महर्षि दयानन्द जी के दिशा-निर्देश से उन्हीं के चेलों ने किया है और सार्वदेशिक आर्य प्रतिनिधि सभा दिल्ली से प्रकाशित है।
इनमें स्पष्ट है कि:- मन्त्र 1 में कहा है ’’सर्व की उत्पत्ति करने वाला परमात्मा तेजोमय शरीर युक्त है, पापों को नाश करने वाला और सुखों की वर्षा करने वाला अर्थात् सुखों की झड़ी लगाने वाला है, वह ऊपर सत्यलोक में सिंहासन पर बैठा है जो देखने में राजा के समान है। यही प्रमाण सूक्ष्मवेद में है कि:-
अर्श कुर्श पर सफेद गुमट है, जहाँ परमेश्वर का डेरा।
श्वेत छत्र सिर मुकुट विराजे, देखत न उस चेहरे नूं।।
यही प्रमाण बाईबल ग्रन्थ तथा र्कुआन् शरीफ में है कि परमात्मा ने छः दिन में सृष्टि रची और सातवें दिन ऊपर आकाश में तख्त अर्थात् सिंहासन पर जा विराजा। (बाईबल के उत्पत्ति ग्रन्थ 2:26-30 तथा र्कुआन् शरीफ की सुर्त ’’फुर्कानि 25 आयत 52 से 59 में है।)
वह परमात्मा अपने अमर धाम से चलकर पृथ्वी पर शब्द वाणी से ज्ञान सुनाता है। वह वर्णीय अर्थात् आदरणीय श्रेष्ठ व्यक्तियों को प्राप्त होता है, उनको मिलता है। {जैसे 1 सन्त धर्मदास जी बांधवगढ(मध्य प्रदेश वाले को मिले) 2 सन्त मलूक दास जी को मिले, 3 सन्त दादू दास जी को आमेर (राजस्थान) में मिले 4 सन्त नानक देव जी को मिले 5 सन्त गरीब दास जी गाँव छुड़ानी जिला झज्जर हरियाणा वाले को मिले 6 सन्त घीसा दास जी गाँव खेखड़ा जिला बागपत (उत्तर प्रदेश) वाले को मिले।}
वह परमात्मा अच्छी आत्माओं को मिलते हैं। जो परमात्मा के दृढ़ भक्त होते हैं, उन पर परमात्मा का विशेष आकर्षण होता है। उदाहरण भी बताया है कि जैसे विद्युत अर्थात् आकाशीय बिजली स्नेह वाले स्थानों को आधार बनाकर गिरती है। जैसे कांसी धातु पर बिजली गिरती है, पहले कांसी धातु के कटोरे, गिलास-थाली, बेले आदि-आदि होते थे। वर्षा के समय तुरन्त उठाकर घर के अन्दर रखा करते थे। वृद्ध कहते थे कि कांसी के बर्तन पर बिजली अमूमन गिरती है, इसी प्रकार परमात्मा अपने प्रिय भक्तों पर आकर्षित होकर मिलते हैं।
मन्त्र नं. 2 में तो यह भी स्पष्ट किया है कि परमात्मा उन अच्छी आत्माओं को उपदेश करने की इच्छा से स्वयं महापुरूषों को मिलते हैं। उपदेश का भावार्थ है कि परमात्मा तत्वज्ञान बताकर उनको दीक्षा भी देते हैं। उनके सतगुरू भी स्वयं परमात्मा होते हैं। यह भी स्पष्ट किया है कि परमात्मा अत्यन्त गतिशील पदार्थ अर्थात् बिजली के समान तीव्रगामी होकर हमारे धार्मिक अनुष्ठानों में आप पहुँचते हैं। आप जी ने पीछे पढ़ा कि सन्त धर्मदास को परमात्मा ने यही कहा था कि मैं वहाँ पर अवश्य जाता हूँ जहाँ धार्मिक अनुष्ठान होते हैं क्योंकि मेरी अनुपस्थिति में काल कुछ भी उपद्रव कर देता है। जिससे साधकों की आस्था परमात्मा से छूट जाती है। मेरे रहते वह ऐसी गड़बड़ नहीं कर सकता। इसीलिए गीता अध्याय 3 श्लोक 15 में कहा है कि वह अविनाशी परमात्मा जिसने ब्रह्म को भी उत्पन्न किया, सदा ही यज्ञों में प्रतिष्ठित है अर्थात् धार्मिक अनुष्ठानों में उसी को इष्ट रूप में मानकर आरती स्तुति करनी चाहिए।
इस ऋग्वेद मण्डल 9 सूक्त 82 मन्त्र 2 में यह भी स्पष्ट किया है कि आप (कविर्वेधस्य) कविर्देव है जो सर्व को उपदेश देने की इच्छा से आते हो, आप पवित्र परमात्मा हैं। हमारे पापों को छुड़वाकर अर्थात् नाश करके हे अमर परमात्मा! आप हम को सुःख दें और (द्युतम् वसानः निर्निजम् परियसि) हम आप की सन्तान हैं। हमारे प्रति वह वात्सल्य वाला प्रेम भाव उत्पन्न करते हुए उसी (निर्निजम्) सुन्दर रूप को (परियासि) उत्पन्न करें अर्थात् हमारे को अपने बच्चे जानकर जैसे पहले और जब चाहें तब आप अपनी प्यारी आत्माओं को प्रकट होकर मिलते हैं, उसी तरह हमें भी दर्शन दें।
प्रमाण ऋग्वेद मण्डल नं. 9 सुक्त 96 मन्त्र 16 से 20
Rig Veda Mandal 9 Sukt 96 Mantra 16
Rig Veda Mandal 9 Sukt 96 Mantra 17
ऋग्वेद मण्डल 9 सूक्त 96 के मंत्र 16 में कहा है कि हे परमात्मन्! आप अपने श्रेष्ठ गुप्त नाम का ज्ञान कराऐं। उस नाम को मंत्र 17 में बताया है कि वह कविः यानि कविर्देव है।
मंत्र 17 की केवल हिन्दी:- (शिशुम् जज्ञानम् हर्यन्तम्) परमेश्वर जान-बूझकर तत्वज्ञान बताने के उद्देश्य से शिशु रूप में प्रकट होता है, उनके ज्ञान को सुनकर (मरूतो गणेन) भक्तों का बहुत बड़ा समूह उस परमात्मा का अनुयाई बन जाता है। (मृजन्ति शुम्यन्ति वहिन्)
वह ज्ञान बुद्धिजीवी लोगों को समझ आता है, वे उस परमेश्वर की स्तुति भक्ति तत्वज्ञान के आधार से करते हैं, वह भक्ति (वहिन्) शीघ्र लाभ देने वाली होती है। वह परमात्मा अपने तत्वज्ञान को (काव्येना) कवित्व से अर्थात् कवियों की तरह दोहों, शब्दों, लोकोक्तियों, चैपाईयों द्वारा (कविर् गीर्भिः) कविर् वाणी द्वारा अर्थात् कबीर वाणी द्वारा (पवित्रम् अतिरेभन्) शुद्ध ज्ञान को उच्चे स्वर में गर्ज-गर्जकर बोलते हैं। वह (कविः) कवि की तरह आचरण करने वाला कविर्देव (सन्त्) सन्त रूप में प्रकट (सोम) अमर परमात्मा होता है। (ऋग्वेद मण्डल 9 सूक्त 96 मन्त्र 17)
विशेष:- इस मन्त्र के मूल पाठ में दो बार ’’कविः’’ शब्द है, आर्य समाज के अनुवादकर्ताओं ने एक (कविः) का अर्थ ही नहीं किया है।
Rig Veda Mandal 9 Sukt 96 Mantra 18
विवेचन:- यह ऋग्वेद मण्डल 9 सूक्त 96 मन्त्र 18 की फोटोकापी है जिसका अनुवाद महर्षि दयानन्द जी के अनुयाईयों ने किया है। सार्वदेशिक आर्य प्रतिनिधि सभा दिल्ली द्वारा अनुवादित है। इस पर विवेचन करते हैं। इसके अनुवाद में भी बहुत-सी गलतियाँ हैं जो आर्यसमाज के आचार्यों ने की है। हम संस्कृत भी समझ सकते हैं, विवेचन करता हूँ तथा यथार्थ अनुवाद व भावार्थ स्पष्ट करता हूँ। मन्त्र 17 में कहा है कि ऋषि या सन्त रूप में प्रकट होकर परमात्मा अमृतवाणी अपने मुख कमल से बोलता है और उस ज्ञान को समझकर अनेकों अनुयाईयों का समूह बन जाता है। (य) जो वाणी प��मात्मा तत्वज्ञान की सुनाता है, वे (ऋषिकृत्) ऋषि रूप में प्रकट परमात्मा कृत (सहंस्रणीयः) हजारों वाणियाँ अर्थात् कबीर वाणियाँ (ऋषिमना) ऋषि स्वभाव वाले भक्तों के लिए (स्वर्षाः) आनन्ददायक होती हैं। (कविनाम पदवीः) कवित्व से दोहों, चैपाईयों में वाणी बोलने के कारण वह परमात्मा प्रसिद्ध कवियों में से एक कवि की भी पदवी प्राप्त करता है। वह (सोम) अमर परमात्मा (सिषासन्) सर्व की पालन की इच्छा करता हुआ प्रथम स्थिति में (महिषः) बड़ी पृथ्वी अर्थात् ऊपर के लोकों में (तृतीयम् धाम) तीसरे धाम अर्थात् सत्यलोक के तीसरे पृष्ठ पर (अनुराजति) तेजोमय शरीर युक्त (स्तुप) गुम्बज में (विराजम्) विराजमान है, वहाँ बैठा है। यही प्रमाण ऋग्वेद मण्डल 9 सूक्त 54 मन्त्र 3 में है कि परमात्मा सर्व लोकों के ऊपर के लोक में विराजमान है, (तिष्ठन्ति) बैठा है।
Rig Veda Mandal 9 Sukt 96 Mantra 19
विवेचन:- ऋग्वेद मण्डल 9 सूक्त 96 मन्त्र 19 का भी आर्य समाज के विद्वानों ने अनुवाद किया है। इसमें भी बहुत सारी गलतियाँ है। पुस्तक विस्तार के कारण केवल अपने मतलब की जानकारी प्राप्त करते हैं।
इस मन्त्र में चैथे धाम का वर्णन है जो आप जी सृष्टि रचना में पढेंगे, उससे पूर्ण जानकारी होगी पढे़ं इसी पुस्तक के पृष्ठ 208 पर।
परमात्मा ने ऊपर के चार लोक अजर-अमर रचे हैं।
अनामी लोक जो सबसे ऊपर है।
अगम लोक
अलख लोक
सत्यलोक
हम पृथ्वी लोक पर हैं, यहाँ से ऊपर के लोकों की गिनती करेंगे तो 1 सत्यलोक 2 अलख लोक 3 अगम लोक तथा 4 अनामी लोक गिना जाता है। उस चैथे धाम में बैठकर परमात्मा ने सर्व ब्रह्माण्डों व लोकों की रचना की। शेष रचना सत्यलोक में बैठकर की थी। आर्य समाज के अनुवादकों ने तुरिया परमात्मा अर्थात् चैथे परमात्मा का वर्णन किया है। यह चैथा धाम है। उसमें मूल पाठ मन्त्र 19 का भावार्थ है कि तत्वदर्शी सन्त चैथे धाम तथा चैथे परमात्मा का (विवक्ति) भिन्न-भिन्न वर्णन करता है। पाठक जन कृपया पढे़ं सृष्टि रचना इसी पुस्तक के पृष्ठ 208 पर जिससे आप जी को ज्ञान होगा कि लेखक (संत रामपाल दास) ही वह तत्वदर्शी संत है जो तत्वज्ञान से परिचित है।
Rig Veda Mandal 9 Sukt 96 Mantra 20
विवेचन:- ऋग्वेद मण्डल 9 सूक्त 96 मन्त्र 20 का यथार्थ ज्ञान जानते हैंः-
इस मन्त्र का अनुवाद महर्षि दयानन्द के चेलों द्वारा किया गया है, इनका दृष्टिकोण यह रहा है कि परमात्मा निराकार है क्योंकि महर्षि दयानन्द जी ने यह बात दृढ़ की है कि परमात्मा निराकार है। इसलिए अनुवादक ने सीधे मन्त्र का अनुवाद घुमा-फिराकर किया है। जैसे मूल पाठ में लिखा हैः-
मर्य न शुभ्रः तन्वा मृजानः अत्यः न सृत्वा सनये धनानाम्।
वृर्षेव यूथा परि कोशम अर्षन् कनिक्रदत् चम्वोः आविवेश।।
अनुवाद:- जैसे (मर्यः न) मनुष्य सुन्दर वस्त्रा धारण करता है, ऐसे परमात्मा मनुष्य के समान (शुभ्रः तन्व) सुन्दर शरीर (मृजानः) धारण करके (अत्यः) अत्यन्त गति से चलता हुआ (सनये धनानाम्) भक्ति धन के धनियों अर्थात् पुण्यात्माओं को (सनये) प्राप्ति के लिए आता है। (यूथा वृषेव) जैसे एक समुदाय को उसका सेनापति प्राप्त होता है, ऐसे वह परमात्मा संत व ऋषि रूप में प्रकट होता है तो उसके बहुत सँख्या में अनुयाई बन जाते हैं और परमात्मा उनका गुरू रूप में मुखिया होता है। वह परमात्मा (परि कोशम्) प्रथम ब्रह्माण्ड में (अर्षन्) प्राप्त होकर अर्थात् आकर (कनिक्रदत्) ऊँचे स्वर में सत्यज्ञान उच्चारण करता हुआ (चम्वोः) पृथ्वी खण्ड में (अविवेश) प्रविष्ट होता है।
भावार्थ:- जैसे पूर्व में वेद मन्त्रों में कहा है कि परमात्मा ऊपर के लोक में रहता है, वहाँ से गति करके अपने रूप को अर्थात् शरीर के तेज को सरल करके पृथ्वी पर आता है। इस ऋग्वेद मण्डल 9 सूक्त 96 मन्त्र 20 में उसी की पुष्टि की है। कहा है कि जैसे मनुष्य वस्त्र धारण करता है, ऐसे अन्य शरीर धारण करके परमात्मा मानव रूप में पृथ्वी पर आता है और (धनानाम्) दृढ़ भक्तों (अच्छी पुण्यात्माओं) को प्राप्त होता है, उनको वाणी उच्चारण करके तत्वज्ञान सुनाता है।
विवेचन:- ये ऋग्वेद मण्डल 9 सूक्त 96 मन्त्र 16 से 20 की फोटोकापियाँ हैं, जिनका हिन्दी अनुवाद महर्षि दयानन्द सरस्वती आर्यसमाज प्रवर्तक के दिशा-निर्देश से उनके आर्यसमाजी चेलों ने किया है। यह अनुवाद कुछ-कुछ ठीक है, अधिक गलत है। पहले अधिक ठीक या कुछ-कुछ गलत था जो मेरे द्वारा शुद्ध करके विवेचन में लिख दिया है। अब अधिक गलत को शुद्ध करके लिखता हूँ।
ऋग्वेद मण्डल 9 सूक्त 96 मन्त्र 16 में कहा है कि:-
हे परमात्मा! आपका जो गुप्त वास्तविक (चारू) श्रेष्ठ (नाम) नाम है, उसका ज्ञान कराऐं। प्रिय पाठको! जैसे भारत के राजा को प्रधानमंत्री कहते हैं, यह उनकी पदवी का प्रतीक है। उनका वास्तविक नाम कोई अन्य ही होता है। जैसे पहले प्रधानमंत्री जी पंडित जवाहर लाल नेहरू जी थे। ’’जवाहरलाल’’ उनका वास्तविक नाम है। इस मंत्र 16 में कहा है कि हे परमात्मा! आपका जो वास्तविक नाम है वह (सोतृमिः) उपासना करने का (स्व आयुधः) स्वचालित शस्त्र के समान (पूयमानः) अज्ञान रूपी गन्द को नाश करके पापनाशक है। आप अपने उस सत्य मन्त्र का हमें ज्ञान कराऐं। (देव सोम) हे अमर परमेश्वर! आपका वह मन्त्र श्वांसों द्वारा नाक आदि (गाः) इन्द्रियों से (वासुम् अभि) श्वांस-उश्वांस से जपने से (सप्तिरिव = सप्तिः इव) विद्युत् जैसी गति से अर्थात् शीघ्रता से (अभिवाजं) भक्ति धन से परिपूर्ण करके (श्रवस्यामी) ऐश्वर्य को तथा मोक्ष को प्राप्त कराईये।
प्रिय पाठकों से निवेदन है कि इस ऋग्वेद मण्डल 9 सूक्त 96 मन्त्र 16 के अनुवाद में बहुत-सी गलतियाँ थी जो शुद्ध कर दी हैं। प्रमाण के लिए मूल पाठ मे ’’अभिवाजं’’ शब्द है इसका अनुवाद नहीं किया गया है। इसके स्थान पर ’’अभिगमय’’ शब्द का अर्थ जोड़ा है जो मूल पाठ में नहीं है।
विवेचन:- ऋग्वेद मण्डल 9 सूक्त 96 मन्त्र 17 के अनुवाद में भी बहुत गलतियाँ हैं जो आर्यसमाजियों द्वारा अनुवादित है। अब शुद्ध करके लिखता हूँः-
जैसा कि पूर्वोक्त ऋग्वेद मण्डल 9 सूक्त 86 तथा 82 के मन्त्रों में प्रमाण है कि परमात्मा अपने शाश्वत् स्थान से जो द्यूलोक के तीसरे स्थान पर विराजमान है, वहाँ से चलकर पृथ्वी पर जान-बूझकर किसी खास उद्देश्य से प्रकट होता है। परमात्मा सर्व ब्रह्माण्डों में बसे प्राणियों की परवरिश तीन स्थिति में करते हैं।
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आध्यात्मिक जानकारी के लिए आप संत रामपाल जी महाराज जी के मंगलमय प्रवचन सुनिए। Sant Rampal Ji Maharaj YOUTUBE चैनल पर प्रतिदिन 7:30-8.30 बजे। संत रामपाल जी महाराज जी इस विश्व में एकमात्र पूर्ण संत हैं। आप सभी से विनम्र निवेदन है अविलंब संत रामपाल जी महाराज जी से नि:शुल्क नाम दीक्षा लें और अपना जीवन सफल बनाएं।
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naveensarohasblog · 2 years
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#कबीर_बड़ा_या_कृष्ण_Part68
प्रश्न 22: जो साधना हम पहले कर रहे हैं, क्या वह त्यागनी पड़ेगी?
उत्तर: यदि शास्त्राविधि रहित है तो त्यागनी पड़ेगी। यदि अनाधिकारी से दीक्षा ले रखी है, उसका कोई लाभ नहीं होना। पूर्ण गुरु से साधना की दीक्षा लेनी पड़ेगी।
प्रश्न 23:- परमात्मा साकार है या निराकार?
उत्तर:- परमात्मा साकार है, नर स्वरुप है अर्थात् मनुष्य जैसे आकार का है। अव्यक्त का अर्थ निराकार नहीं होता, साकार होता है। उदाहरण के लिए जैसा सूर्य के सामने बादल छा जाते हैं, उस समय सूर्य अव्यक्त होता है। हमें भले ही दिखाई नहीं देता, परन्तु सूर्य अव्यक्त है, साकार है। जो प्रभु हमें सामान्य साधना से दिखाई नहीं देते, वे अव्यक्त कहे जाते हैं।
जैसे गीता अध्याय 7 श्लोक 24-25 में गीता ज्ञान दाता ने अपने आपको अव्यक्त कहा है क्योंकि वह श्री कृष्ण में प्रवेश करके बोल रहा था। जब व्यक्त हुआ तो विराट रुप दिखाया था। यह पहला अव्यक्त प्रभु हुआ जो क्षर पुरुष कहलाता है। जिसे काल भी कहते है। गीता अध्याय 8 श्लोक 17 से 19 तक दूसरा अव्यक्त अक्षर पुरुष है। गीता अध्याय 8 श्लोक 20 में कहा है कि इस अव्यक्त अर्थात् अक्षर पुरुष से दूसरा सनातन अव्यक्त परमेश्वर अर्थात् परम अक्षर पुरुष है। इस प्रकार ये तीनों साकार (नराकार) प्रभु हैं। अव्यक्त का अर्थ निराकार नहीं होता। क्षर पुरुष (ब्रह्म) ने प्रतिज्ञा की है कि मैं कभी भी अपने वास्तविक रुप में किसी को भी दर्शन नहीं दूँगा।
प्रमाण: गीता अध्याय 11 श्लोक 47-48 में जिसमें कहा है कि हे अर्जुन! यह मेरा विराट रुप आपने देखा, यह मेरा रुप आपके अतिरिक्त पहले किसी ने नहीं देखा, मैंने तुझ पर अनुग्रह करके दिखाया है।
Gita Adhyay 11 Shlok 47
गीता अध्याय 11 श्लोक 48 में कहा है कि यह मेरा स्वरुप न तो वेदों में वर्णित विधि से, न जप से, न तप से, न यज्ञ आदि से देखा जा सकता। इससे सिद्ध हुआ कि क्षर पुरुष (गीता ज्ञान दाता) को किसी भी ऋषि-महर्षि व साधक ने नहीं देखा। जिस कारण से इसे निराकार मान बैठे। सूक्ष्म वेद (तत्व ज्ञान) में कहा है कि:-
’’खोजत-खोजत थाकिया, अन्त में कहा बेचून।
न गुरु पूरा न साधना सत्य, हो रहे जूनमं-जून।।
Gita Adhyay 11 Shlok 48
अब गीता अध्याय 7 श्लोक 24-25 में गीता ज्ञान दाता ने स्पष्ट कर ही दिया है कि मैं अपनी योग माया से छिपा रहता हूँ। किसी के समक्ष नहीं आता, मैं अव्यक्त हूँ। छिपा है तो साकार है। अक्षर पुरुष भी अव्यक्त है, यह ऊपर प्रमाणित हो चुका है। इस प्रभु (अक्षर पुरूष) की यहाँ कोई भूमिका नहीं है। यह अपने 7 संख ब्रह्माण्डों तक सीमित है। इसलिए इसको कोई नहीं देख सका।
Gita Adhyay 7 Shlok 25
परम अक्षर पुरुष:- इस प्रभु की सर्व ब्रह्माण्डों में भूमिका है। यह सत्यलोक में रहते हैं जो काल लोक (इक्कीश ब्रह्मण्डों) से 16 शंख कोस दूर है। (एक कोस लगभग 3 किमी. का होता है) इसकी प्राप्ति की साधना वेदों (चारों वेदों) में वर्णित नहीं है। जिस कारण से इस प्रभु को कोई नहीं देख सका। जब यह प्रभु (परम अक्षर ब्रह्म) पृथ्वी पर सशरीर प्रकट होता है तो कोई इन्हें पहचान नहीं पाता।
परमात्मा कबीर जी ने कहा हैं कि:-
’’हम ही अलख अल्लाह हैं, कुतुब-गोस और पीर।
गरीब दास खालिक धनी, हमरा नाम कबीर।।’’
हम पूर्ण परमात्मा हैं, हम ही पीर अर्थात् सत्य ज्ञान देने वाले सत्गुरु हैं। सर्व सृष्टि का मालिक भी मैं ही हूँ, मेरा नाम कबीर है। परन्तु सर्व साधकों, ऋषियों-महर्षियों ने यही ज्ञान दृढ़ कर रखा होता है कि परमात्मा तो निराकार है। वह देखा नहीं जा सकता। यह पृथ्वी पर विचरने वाला जुलाहा (धाणक) कबीर एक कवि कैसे परम अक्षर ब्रह्म हो सकता है?
उसका समाधान इस प्रकार है:-
विश्व में कोई भी परमात्मा चाहने वाला बुद्धिमान व्यक्ति चारों वेदों (ऋग्वेद, यजुर्वेद, सामवेद तथा अथर्ववेद) को गलत नहीं मानता। वर्तमान में आर्य समाज के प्रवर्तक महर्षि दयानन्द को वेदों का पूर्ण विद्वान माना जाता रहा है। इनका भी यह कहना है कि ‘‘परमात्मा निराकार’’ है। आर्यसमाज और महर्षि दयानन्द वेदों के ज्ञान को सत्य मानते हैं। इन्होंने स्वयं ही वेदों का हिन्दी अनुवाद किया है। जिसमें स्पष्ट लिखा है कि परमात्मा ऊपर के लोक में रहता है। वहाँ से गति करके (चल कर सशरीर) पृथ्वी पर आता है। अच्छी आत्माओं को मिलता है, उनको यथार्थ भक्ति का ज्ञान सुनाता है। परमात्मा तत्वज्ञान अपने मुख कमल से उच्चारण करके लोकोक्तियों, साखियों, शब्दों, दोहों तथा चैपाईयों के रुप में पदों द्वारा बोलता है। जिस कारण से प्रसिद्ध कवि की उपाधि भी प्राप्त करता है। कवियों की तरह आचरण करता हुआ पृथ्वी के ऊपर विचरण करता रहता है। भक्ति के गुप्त मन्त्रों का आविष्कार करके साधकों ���ो बताता है। भक्ति करने के लिए प्रेरणा करता है। प्रमाण देखें वेदों के निम्न मंत्रों की फोटोकापियाँ इसी पुस्तक के पृष्ठ 314 पर।
ऋग्वेद मण्डल 9 सूक्त 86 मन्त्र 26-27, ऋग्वेद मण्डल 9 सूक्त 82 मन्त्र 1-2, ऋग्वेद मण्डल 9 सूक्त 96 मन्त्र 16-20, ऋग्वेद मण्डल 9 सूक्त 94 मन्त्र 1, ऋग्वेद मण्डल 9 सूक्त 95 मन्त्र 2, ऋग्वेद मण्डल 9 सूक्त 54 मन्त्र 3, ऋग्वेद मण्डल 9 सूक्त 20 मन्त्र 1 और भी अनेकों वेद मन्त्रों में उपरोक्त प्रमाण है कि परमात्मा मनुष्य जैसा नराकार है। श्रीमद्भगवत् गीता अध्याय 4 श्लोक 32 तथा 34 में भी प्रमाण है। गीता ज्ञान दाता ने बताया कि हे अर्जुन! परम अक्षर ब्रह्म अपने मुख कमल से तत्वज्ञान बोलकर बताता है, उस सच्चिदानन्द घन ब्रह्म की वाणी में यज्ञों अर्थात् धार्मिक अनुष्ठानों की जानकारी विस्तार से कही गई है। उसको जानकर सर्व पापों से मुक्त हो जाएगा। फिर गीता अध्याय 4 श्लोक 34 में कहा है कि उस ज्ञान को तू तत्वदर्शी सन्तों के पास जाकर समझ। उनको दण्डवत प्रणाम करके विनयपूर्वक प्रश्न करने से वे तत्वदर्शी सन्त तुझे तत्वज्ञान का उपदेश करेंगे।
यह प्रमाण आप को बताए और विशेष बात यह है कि गीता चारों वेदों का सारांश है। इसमें सांकेतिक ज्ञान अधिक है। यह भी स्पष्ट हुआ कि तत्वज्ञान गीता ज्ञान से भी भिन्न है। वह केवल तत्वदर्शी संत ही जानते हैं जिनको परम अक्षर ब्रह्म स्वयं धरती पर प्रकट होकर बताते हैं।
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aryaveeranganadal · 3 months
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आर्यसमाज का लोक कल्याण
#आर्यसमाज
#aryasamaj
https://aryasamaj.site/arya-samaj-ka-lok-kalyan/
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jyotis-things · 3 months
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( #Muktibodh_part206 के आगे पढिए.....)
📖📖📖
#MuktiBodh_Part207
हम पढ़ रहे है पुस्तक "मुक्तिबोध"
पेज नंबर 394-395
‘‘जिन्दा बाबा का दूसरी बार ���न्तर्ध्यान होना‘‘
(धर्मदास जी ने कहा) :- हे जिन्दा! आप यह क्या कह रहे हो कि श्री विष्णु जी तीनों लोको में केवल एक विभाग के मंत्री हैं। आप गलत कह रहे हो। श्री विष्णुजी तो अखिल ब्रह्माण्ड के स्वामी हैं। ये ही श्री ब्रह्मा जी रुप में उत्पत्ति करते हैं। विष्णु रुप होकर संसार का पालन करते हैं तथा शिव रुप होकर संहार करते हैं। ये तो कुल के मालिक हैं, यदि फिर से आपने श्री विष्णु जी को अपमानित किया तो
ठीक बात नहीं रहेगी। परमेश्वर कबीर ��ी ने कहा :-
मूर्ख के समझा��तें, ज्ञान गाँठि का जाय।
कोयला होत न उजला, भावें सौ मन साबुन लाय।।
इतना कहकर परमेश्वर जिन्दा रुपधारी अन्तर्ध्यान हो गए। दूसरी बार परमेश्वर को खोने के पश्चात् धर्मदास बहुत उदास हो गए। भगवान विष्णु में इतनी अटूट आस्था थी कि आँखों प्रमाण देखकर भी झूठ को त्यागने को तैयार नहीं थे।
कबीर, जान बूझ साची तजै, करे झूठ से नेह।
ताकि संगति हे प्रभु, स्वपन में भी ना देह।।
कुछ देर के पश्चात् धर्मदास की बुद्धि से काल का साया हटा और अपनी गलती पर विचार किया कि सब प्रमाण गीता से ही प्रत्यक्ष किए गए थे। जिन्दा बाबा ने अपनी ओर से तो कुछ नहीं कहा। मैं कितना अभागा हूँ कि मैंने अपने हठी व्यवहार से देव स्वरुप तत्त्वदर्शी सन्त को खो दिया। अब तो वे देव नहीं मिलेंगे। मेरा जीवन व्यर्थ जाएगा। यह विचार करके धर्मदास सिहर उठा अर्थात् भय से काँपने लगा। खाना भी कम खाने लगा, उदास रहने लगा तथा मन-मन में अर्जी लगाने लगा हे देव! हे जिन्दा बाबा! एक बार दर्शन दे दो। भविष्य में ऐसी गलती कभी नहीं करुँगा। मैं आपसे करबद्ध प्रार्थना करता हूँ। मुझ मूर्ख की ओच्छी-मन्दी बातों पर ध्यान न दो। मुझे फिर मिलो गुसांई। आपका ज्ञान सत्य, आप सत्य, आप जी का एक-एक वचन अमृत है। कृपया दर्शन दो नहीं तो अधिक दिन मेरा जीवन नहीं रहेगा। तीसरे दिन परमेश्वर कबीर जी एक दरिया के किनारे वृक्ष के नीचे बैठे थे। आसपास कुछ आवारा गायें भी उसी वृक्ष के नीचे बैठी जुगाली कर रही थीं। कुछ दरिया के किनारे घास चर रही थी। धर्मदास की दृष्टि दरिया के किनारे पिताम्बर पहने बैठे सन्त पर पड़ी, देखा आस-पास गायें चर रही है। ऐसा लगा जैसे साक्षात् भगवान कृष्ण अपने लोक से आकर बैठे हां। धर्मदास उत्सुकता से सन्त के पास गया तथा देखा यह तो कोई सामान्य सन्त है।
फिर भी सोचा चरण स्पर्श करके फिर आगे बढूँगा। धर्मदास जी ने जब चरणों का स्पर्श किया, मस्तक चरणों पर रखा तो ऐसा लगा कि जैसे रुई को छुआ हो। फिर चरणों को हाथां से दबा-दबाकर देखा तो उनमें कहीं भी हड्डी नहीं थी। ऊपर चेहरे की ओर देखा तो वही बाबा जिन्दा उसी पहले वाली वेशभूषा में बैठा था। धर्मदास जी ने चरणों को दृढ़ करके पकड़ लिया कि कहीं फिर से न चले जाएँ और अपनी गलती की क्षमा याचना की। कहा कि हे जिन्दा! आप तो तत्त्वदर्शी सन्त हो। मैं एक भ्रमित जिज्ञासु हूँ। जब तक मेरी शंकाओं का समाधान नहीं होगा, तब तक मेरा अज्ञान नाश कैसे होगा? आप तो महाकृपालु हैं। मुझ किंकर पर दया करो। मेरा अज्ञान हटाओ प्रभु।
प्रश्न (धर्मदास जी का) :- हे जिन्दा! यदि श्री विष्णु जी पूर्ण परमात्मा नहीं है तो कौन है पूर्ण परमात्मा, कृपया गीता से प्रमाण देना?
उत्तर :- वह परमात्मा ‘‘परम अक्षर ब्रह्म’’ है जो कुल का मालिक है।
प्रमाण :- श्रीमद्भगवत गीता अध्याय 15 श्लोक 1 से 4 तथा 16-17 में है। गीता अध्याय 15 श्लोक 1 से 4 का सारांश व भावार्थ है कि ‘‘उल्टे लटके हुए वृक्ष के समान संसार को जानो। जैसे वृक्ष की जड़ें तो ऊपर हैं, नीचे तीनों गुण रुपी शाखाएं जानो। गीता अध्याय 15 श्लोक 1 में यह भी स्पष्ट किया है कि तत्त्वदर्शी सन्त की क्या पहचान है? तत्त्वदर्शी सन्त वह है जो संसार ��ुपी वृक्ष के सर्वांग (सभी भाग) भिन्न-भिन्न बताए।
विशेष :- वेद मन्त्रों की जो आगे फोटोकॉपियाँ लगाई हैं, ये आर्यसमाज के आचार्यों तथा महर्षि दयानंद द्वारा अनुवादित हैं और सार्वदेशिक आर्य प्रतिनिधि सभा दिल्ली द्वारा प्रकाशित हैं। जिनमें वर्णन है कि परमेश्वर स्वयं पृथ्वी पर सशरीर प्रकट होकर कवियों की तरह आचरण करता हुआ सत्य आध्यात्मिक ज्ञान सुनाता है। (प्रमाण ऋग्वेद मण्डल नं. 9 सुक्त 86 मन्त्र 26-27, ऋग्वेद मण्डल 9 सुक्त 82 मन्त्र 1-2ए सुक्त 96 मन्त्र 16 से 20,
ऋग्वेद मण्डल 9 सुक्त 94 मन्त्र 1, ऋग्वेद मण्डल 9 सुक्त 95 मन्त्र 2, ऋग्वेद मण्डल 9 सूक्त 20 मन्त्र 1, ऋग्वेद मण्डल 9 सूक्त 54 मन्त्र 3 में) इन मन्त्रों में कहा है कि परमात्मा
सर्व भवनों अर्थात् लोकां के उपर के लोक में विराजमान है। जब-जब पृथ्वी पर अज्ञान की वृद्धि होने से अधर्म बढ़ जाता है तो परमात्मा स्वयं सशरीर चलकर पृथ्वी पर प्रकट होकर
यथार्थ अध्यात्म ज्ञान का प्रचार लोकोक्तियों, शब्दों, चौपाईयों, साखियों, कविताओं के माध्यम से कवियों जैसा आचरण करके घूम-फिरकर करता है। जिस कारण से एक प्रसिद्ध कवि की उपाधि भी प्राप्त करता है। कृपया देखें उपरोक्त वेद मन्त्रों की फोटोकॉपी इसी पुस्तक के पृष्ठ 258 पर।
परमात्मा ने अपने मुख कमल से ज्ञान बोलकर सुनाया था। उसे सूक्ष्म वेद कहते हैं। उसी को ‘तत्त्व ज्ञान’ भी कहते हैं। तत्त्वज्ञान का प्रचार करने के कारण परमात्मा ‘‘तत्त्वदर्शी सन्त’’ भी कहलाने लगता है। उस तत्त्वदर्शी सन्त रूप में प्रकट परमात्मा ने संसार रुपी वृक्ष के सर्वांग इस प्रकार बताये :-
कबीर, अक्षर पुरुष एक वृक्ष है, क्षर पुरुष वाकि डार।
तीनों देवा शाखा हैं, पात रुप संसार।।
भावार्थ : वृक्ष का जो हिस्सा पृथ्वी से बाहर दिखाई देता है, उसको तना कहते हैं। जैसे संसार रुपी वृक्ष का तना तो अक्षर पुरुष है। तने से मोटी डार निकलती है वह क्षर पुरुष जानो, डार से मानो तीन शाखाएँ निकलती हों, उनको तीनों देवता (रजगुण ब्रह्मा जी,
सतगुण विष्णु जी तथा तमगुण शिव) हैं तथा इन शाखाओं पर टहनियों व पत्तों को संसार जानों। इस संसार रुपी वृक्ष के उपरोक्त भाग जो पृथ्वी से बाहर दिखाई देते हैं। मूल (जड़ें),
जमीन के अन्दर हैं। जिनसे वृक्ष के सर्वांगों का पोषण होता है। गीता अध्याय 15 श्लोक 16-17 में तीन पुरुष कहे हैं। श्लोक 16 में दो पुरुष कहे हैं ‘‘क्षर पुरुष तथा अक्षर पुरुष’’
दोनों की स्थिति ऊपर बता दी है। गीता अध्याय 15 श्लोक 16 में भी कहा है कि क्षर पुरुष तथा अक्षर पुरुष दोनों नाशवान हैं। इनके अन्तर्गत जितने भी प्राणी हैं, वे भी नाशवान हैं।
परन्तु आत्मा तो किसी की भी नहीं मरती। गीता अध्याय 15 श्लोक 17 में कहा है कि उत्तम पुरुष अर्थात् पुरुषोत्तम तो क्षर पुरुष और अक्षर पुरुष से भिन्न है जिसको परमात्मा कहा गया है। इसी प्रभु की जानकारी गीता अध्याय 8 श्लोक 3 में है जिसको ‘‘परम अक्षर ब्रह्म‘‘ कहा है। गीता अध्याय 15 श्लोक 17 में इसी का वर्णन है। यही प्रभु तीनों लोकों में प्रवेश करके सबका धारण-पोषण करता है। यह वास्तव में अविनाशी परमेश्वर है। मूल से ही वृक्ष की परवरिश होती है, इसलिए सबका धारण-पोषण करने वाला परम अक्षर ब्रह्म है। जैसे पूर्व में गीता अध्याय 15 श्लोक 1-4 में बताया है कि ऊपर को जड़ (मूल) वाला, नीचे को शाखा वाला संसार रुपी वृक्ष है। जड़ से ही वृक्ष का धारण-पोषण होता है। इसलिए परम अक्षर ब्रह्म जो संसार रुपी वृक्ष की जड़ (मूल) है, यही सर्व पुरुषों (प्रभुओं) का पालनहार इनका विस्तार (रचना करने वाला = सृजनहार) है। यही कुल का मालिक है।
क्रमशः_______________
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pradeepdasblog · 3 months
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( #Muktibodh_part206 के आगे पढिए.....)
📖📖📖
#MuktiBodh_Part207
हम पढ़ रहे है पुस्तक "मुक्तिबोध"
पेज नंबर 394-395
‘‘जिन्दा बाबा का दूसरी बार अन्तर्ध्यान होना‘‘
(धर्मदास जी ने कहा) :- हे जिन्दा! आप यह क्या कह रहे हो कि श्री विष्णु जी तीनों लोको में केवल एक विभाग के मंत्री हैं। आप गलत कह रहे हो। श्री विष्णुजी तो अखिल ब्रह्माण्ड के स्वामी हैं। ये ही श्री ब्रह्मा जी रुप में उत्पत्ति करते हैं। विष्णु रुप होकर संसार का पालन करते हैं तथा शिव रुप होकर संहार करते हैं। ये तो कुल के मालिक हैं, यदि फिर से आपने श्री विष्णु जी को अपमानित किया तो
ठीक बात नहीं रहेगी। परमेश्वर कबीर जी ने कहा :-
मूर्ख के समझावतें, ज्ञान गाँठि का जाय।
कोयला होत न उजला, भावें सौ मन साबुन लाय।।
इतना कहकर परमेश्वर जिन्दा रुपधारी अन्तर्ध्यान हो गए। दूसरी बार परमेश्वर को खोने के पश्चात् धर्मदास बहुत उदास हो गए। भगवान विष्णु में इतनी अटूट आस्था थी कि आँखों प्रमाण देखकर भी झूठ को त्यागने को तैयार नहीं थे।
कबीर, जान बूझ साची तजै, करे झूठ से नेह।
ताकि संगति हे प्रभु, स्वपन में भी ना देह।।
कुछ देर के पश्चात् धर्मदास की बुद्धि से काल का साया हटा और अपनी गलती पर विचार किया कि सब प्रमाण गीता से ही प्रत्यक्ष किए गए थे। जिन्दा बाबा ने अपनी ओर से तो कुछ नहीं कहा। मैं कितना अभागा हूँ कि मैंने अपने हठी व्यवहार से देव स्वरुप तत्त्वदर्शी सन्त को खो दिया। अब तो वे देव नहीं मिलेंगे। मेरा जीवन व्यर्थ जाएगा। यह विचार करके धर्मदास सिहर उठा अर्थात् भय से काँपने लगा। खाना भी कम खाने लगा, उदास रहने लगा तथा मन-मन में अर्जी लगाने लगा हे देव! हे जिन्दा बाबा! एक बार दर्शन दे दो। भविष्य में ऐसी गलती कभी नहीं करुँगा। मैं आपसे करबद्ध प्रार्थना करता हूँ। मुझ मूर्ख की ओच्छी-मन्दी बातों पर ध्यान न दो। मुझे फिर मिलो गुसांई। आपका ज्ञान सत्य, आप सत्य, आप जी का एक-एक वचन अमृत है। कृपया दर्शन दो नहीं तो अधिक दिन मेरा जीवन नहीं रहेगा। तीसरे दिन परमेश्वर कबीर जी एक दरिया के किनारे वृक्ष के नीचे बैठे थे। आसपास कुछ आवारा गायें भी उसी वृक्ष के नीचे बैठी जुगाली कर रही थीं। कुछ दरिया के किनारे घास चर रही थी। धर्मदास की दृष्टि दरिया के किनारे पिताम्बर पहने बैठे सन्त पर पड़ी, देखा आस-पास गायें चर रही है। ऐसा लगा जैसे साक्षात् भगवान कृष्ण अपने लोक से आकर बैठे हां। धर्मदास उत्सुकता से सन्त के पास गया तथा देखा यह तो कोई सामान्य सन्त है।
फिर भी सोचा चरण स्पर्श करके फिर आगे बढूँगा। धर्मदास जी ने जब चरणों का स्पर्श किया, मस्तक चरणों पर रखा तो ऐसा लगा कि जैसे रुई को छुआ हो। फिर चरणों को हाथां से दबा-दबाकर देखा तो उनमें कहीं भी हड्डी नहीं थी। ऊपर चेहरे की ओर देखा तो वही बाबा जिन्दा उसी पहले वाली वेशभूषा में बैठा था। धर्मदास जी ने चरणों को दृढ़ करके पकड़ लिया कि कहीं फिर से न चले जाएँ और अपनी गलती की क्षमा याचना की। कहा कि हे जिन्दा! आप तो तत्त्वदर्शी सन्त हो। मैं एक भ्रमित जिज्ञासु हूँ। जब तक मेरी शंकाओं का समाधान नहीं होगा, तब तक मेरा अज्ञान नाश कैसे होगा? आप तो महाकृपालु हैं। मुझ किंकर पर दया करो। मेरा अज्ञान हटाओ प्रभु।
प्रश्न (धर्मदास जी का) :- हे जिन्दा! यदि श्री विष्णु जी पूर्ण परमात्मा नहीं है तो कौन है पूर्ण परमात्मा, कृपया गीता से प्रमाण देना?
उत्तर :- वह परमात्मा ‘‘परम अक्षर ब्रह्म’’ है जो कुल का मालिक है।
प्रमाण :- श्रीमद्भगवत गीता अध्याय 15 श्लोक 1 से 4 तथा 16-17 में है। गीता अध्याय 15 श्लोक 1 से 4 का सारांश व भावार्थ है कि ‘‘उल्टे लटके हुए वृक्ष के समान संसार को जानो। जैसे वृक्ष की जड़ें तो ऊपर हैं, नीचे तीनों गुण रुपी शाखाएं जानो। गीता अध्याय 15 श्लोक 1 में यह भी स्पष्ट किया है कि तत्त्वदर्शी सन्त की क्या पहचान है? तत्त्वदर्शी सन्त वह है जो संसार रुपी वृक्ष के सर्वांग (सभी भाग) भिन्न-भिन्न बताए।
विशेष :- वेद मन्त्रों की जो आगे फोटोकॉपियाँ लगाई हैं, ये आर्यसमाज के आचार्यों तथा महर्षि दयानंद द्वारा अनुवादित हैं और सार्वदेशिक आर्य प्रतिनिधि सभा दिल्ली द्वारा प्रकाशित हैं। जिनमें वर्णन है कि परमेश्वर स्वयं पृथ्वी पर सशरीर प्रकट होकर कवियों की तरह आचरण करता हुआ सत्य आध्यात्मिक ज्ञान सुनाता है। (प्रमाण ऋग्वेद मण्डल नं. 9 सुक्त 86 मन्त्र 26-27, ऋग्वेद मण्डल 9 सुक्त 82 मन्त्र 1-2ए सुक्त 96 मन्त्र 16 से 20,
ऋग्वेद मण्डल 9 सुक्त 94 मन्त्र 1, ऋग्वेद मण्डल 9 सुक्त 95 मन्त्र 2, ऋग्वेद मण्डल 9 सूक्त 20 मन्त्र 1, ऋग्वेद मण्डल 9 सूक्त 54 मन्त्र 3 में) इन मन्त्रों में कहा है कि परमात्मा
सर्व भवनों अर्थात् लोकां के उपर के लोक में विराजमान है। जब-जब पृथ्वी पर अज्ञान की वृद्धि होने से अधर्म बढ़ जाता है तो परमात्मा स्वयं सशरीर चलकर पृथ्वी पर प्रकट होकर
यथार्थ अध्यात्म ज्ञान का प्रचार लोकोक्तियों, शब्दों, चौपाईयों, साखियों, कविताओं के माध्यम से कवियों जैसा आचरण करके घूम-फिरकर करता है। जिस कारण से एक प्रसिद्ध कवि की उपाधि भी प्राप्त करता है। कृपया देखें उपरोक्त वेद मन्त्रों की फोटोकॉपी इसी पुस्तक के पृष्ठ 258 पर।
परमात्मा ने अपने मुख कमल से ज्ञान बोलकर सुनाया था। उसे सूक्ष्म वेद कहते हैं। उसी को ‘तत्त्व ज्ञान’ भी कहते हैं। तत्त्वज्ञान का प्रचार करने के कारण परमात्मा ‘‘तत्त्वदर्शी सन्त’’ भी कहलाने लगता है। उस तत्त्वदर्शी सन्त रूप में प्रकट परमात्मा ने संसार रुपी वृक्ष के सर्वांग इस प्रकार बताये :-
कबीर, अक्षर पुरुष एक वृक्ष है, क्षर पुरुष वाकि डार।
तीनों देवा शाखा ह��ं, पात रुप संसार।।
भावार्थ : वृक्ष का जो हिस्सा पृथ्वी से बाहर दिखाई देता है, उसको तना कहते हैं। जैसे संसार रुपी वृक्ष का तना तो अक्षर पुरुष है। तने से मोटी डार निकलती है वह क्षर पुरुष जानो, डार से मानो तीन शाखाएँ निकलती हों, उनको तीनों देवता (रजगुण ब्रह्मा जी,
सतगुण विष्णु जी तथा तमगुण शिव) हैं तथा इन शाखाओं पर टहनियों व पत्तों को संसार जानों। इस संसार रुपी वृक्ष के उपरोक्त भाग जो पृथ्वी से बाहर दिखाई देते हैं। मूल (जड़ें),
जमीन के अन्दर हैं। जिनसे वृक्ष के सर्वांगों का पोषण होता है। गीता अध्याय 15 श्लोक 16-17 में तीन पुरुष कहे हैं। श्लोक 16 में दो पुरुष कहे हैं ‘‘क्षर पुरुष तथा अक्षर पुरुष’’
दोनों की स्थिति ऊपर बता दी है। गीता अध्याय 15 श्लोक 16 में भी कहा है कि क्षर पुरुष तथा अक्षर पुरुष दोनों नाशवान हैं। इनके अन्तर्गत जितने भी प्राणी हैं, वे भी नाशवान हैं।
परन्तु आत्मा तो किसी की भी नहीं मरती। गीता अध्याय 15 श्लोक 17 में कहा है कि उत्तम पुरुष अर्थात् पुरुषोत्तम तो क्षर पुरुष और अक्षर पुरुष से भिन्न है जिसको परमात्मा कहा गया है। इसी प्रभु की जानकारी गीता अध्याय 8 श्लोक 3 में है जिसको ‘‘परम अक्षर ब्रह्म‘‘ कहा है। गीता अध्याय 15 श्लोक 17 में इसी का वर्णन है। यही प्रभु तीनों लोकों में प्रवेश करके सबका धारण-पोषण करता है। यह वास्तव में अविनाशी परमेश्वर है। मूल से ही वृक्ष की परवरिश होती है, इसलिए सबका धारण-पोषण करने वाला परम अक्षर ब्रह्म है। जैसे पूर्व में गीता अध्याय 15 श्लोक 1-4 में बताया है कि ऊपर को जड़ (मूल) वाला, नीचे को शाखा वाला संसार रुपी वृक्ष है। जड़ से ही वृक्ष का धारण-पोषण होता है। इसलिए परम अक्षर ब्रह्म जो संसार रुपी वृक्ष की जड़ (मूल) है, यही सर्व पुरुषों (प्रभुओं) का पालनहार इनका विस्तार (रचना करने वाला = सृजनहार) है। यही कुल का मालिक है।
क्रमशः_______________
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rupendraarya · 4 months
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आर्यवीर दल व्यायाम प्रदर्शन रेतागढ़ बुलंदशहर #आर्यसमाज #आर्यवीरदल #aryaveerdal #aryasamaj https://youtu.be/Nj1R-rrJbLQ?si=wlQCcWmSuqnLLptG
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jawaharsinghrawat · 4 months
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आर्यसमाज के महान प्रचारक गुरुकुल कांगड़ी विश्वविध्यालय के संस्थापक परम पूजनीय स्वामी श्रद्धानन्द जी की पुण्यतिथि पर उन्हें भावभीनी श्रद्धांजलि
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sharpbharat · 5 months
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Jamshedpur bhartiya model middle school : साकची भारतीय मॉडल मिडिल स्कूल का वार्षिक पारितोषिक वितरण समारोह आयोजित, मुख्य अतिथि ने सभी वर्गों के प्रथम तीन विद्यार्थियों को मेडल व प्रशस्तिपत्र प्रदान किये
जमशेदपुर : साकची ताप्ती रोड स्थित भारतीय मॉडल मिडिल स्कूल का वार्षिक पारितोषिक वितरण समारोह गुरुवार 7 दिसंबर को स्कूल सभागार में आयोजित हुआ. मुख्य अतिथि, जमशेदपुर रेड क्रॉस सोसाइटी के सचिव विजय कुमार सिंह ने दीप प्रज्वलित कर समारोह का विधिवत उद्घाटन किया. इस अवसर पर स्कूल प्रबंधन समिति के पदाधिकारियों के साथ ही जमशेदपुर आर्यसमाज ट्रस्ट के पदाधिकारी भी एवं बड़ी संख्या में विद्यार्थियों के अभिभावक…
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aryasamaj0 · 2 months
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vaidicphysics · 2 months
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प्रथम आक्षेप की समीक्षा
सर्वप्रथम हम वेदों पर उठाये गये आक्षेपों का उत्तर दे रहे हैं। उसमें भी सबसे अधिक प्रक्षेप वेद का भेद साइट पर सुलेमान रजवी ने किये हैं। राजवी वेदों पर हिंसा एवं साम्प्रदायिकता का आरोप लगाते हुए लिखते हैं—
आक्षेप संख्या १ – Vedas are terror manual which turns humans into savages. Many tribes were destroyed as a result of the violent passages in Vedas. As per Vedas, you must kill a person who rejects Vedas, who hates Vedas and Ishwar, who does not worship, who does not make offerings to Ishwar, who insults god (Blasphemy), one who oppresses a Brahmin etc. There are several passages in Vedas which calls for death of disbelievers. अर्थात् इनकी दृष्टि में वेद मनुष्य को बर्बर आतंकी बनाने वाला ग्रन्थ है। इस ग्रन्थ ने अनेक जनजातियों को नष्ट कर दिया है। वेद और ईश्वर को न मानने वाले, ईश्वर की पूजा न करने वाले, ईश्वर की निन्दा करने वाले और ब्राह्मïण का अपमान करने वाले को मार डालने का आदेश वेद में दिया गया है।
इसके साथ ही रजवी का कहना है कि वेदों को मानने वाले वेदों में निर्दिष्ट हिंसा को नहीं देखते, बल्कि अन्य सम्प्रदायों के ग्रन्थों का गलत अर्थ करके उन पर हिंसा का आरोप लगाते हैं।
आक्षेप की समीक्षा – मैं रजवी के साथ सभी इस्लामी विद्वानों से पूछना चाहूँगा कि मक्का-मदीना से प्रारम्भ हुआ इस्लाम क्या शान्ति और सत्य के द्वारा विश्व के ५६-५७ देशों में फैला है? क्या तैमूर, अलाउद्दीन खिलजी, बाबर, अकबर और औरंगजेब जैसे लोग इस्लाम के शान्तिदूत बनकर भारत में आए थे? क्या इन शान्तिदूतों की शान्ति से आहत होकर हजारों रानियों ने जौहर करके अपने प्राण गँवाए थे? क्या उन्होंने भारत में शान्ति की स्थापना के लिए हजारों मन्दिर तोड़े थे? क्या कुरान में काफिरों की गर्दनें उड़ाने का वर्णन नहीं है? आप वेदानुयायियों के द्वारा वनवासियों, जिन्हें षड्यन्त्रपूर्वक आदिवासी कहा गया है, की हत्या का आरोप लगा रहे हैं। आपको इतनी समझ तो रखनी चाहिए कि भारत में आज भी वनवासी वर्ग अपनी परम्परा व मान्यताओं को प्रसन्नतापूर्वक निभा रहा है और इस्लामी देशों में सभी को बलपूर्वक या तो इस्लामी मान्यताओं को मानने के लिए विवश किया गया है अथवा उन्हें नष्ट कर दिया गया है। भारत में तो सम्पूर्ण वनवासी समाज क्षत्रियों के साथ कन्धे से कन्धा मिलाकर राष्ट्र की रक्षा के लिए अपना बलिदान देता चला आया है, चाहे इस्लामी आक्रान्ताओं के विरुद्ध युद्ध हो अथवा अंग्रेजों के विरुद्ध। वनवासियों ने सदैव राष्ट्र व धर्म की रक्षा के लिए सदैव अपना बलिदान दिया है। इसलिए आपको अपने घर की चिन्ता करनी चाहिए, हमारे घर की नहीं। अगर वेदानुयायी समाज हिंसक होता, तो संसार में कोई दूसरा सम्प्रदाय पैदा ही नहीं होता और यदि पैदा हो जाता, तो वह जीवित भी नहीं रहता।
आप कुरान पर किये गये किसी आक्षेप को नासमझी का परिणाम बता रहे हैं, तो कृपया समझदारी का परिचय देकर क्या आप कुरान के उन अनुवादों को नष्ट करवा कर उनके सही अनुवाद कराने का साहस करेंगे? छह दिन में सम्पूर्ण सृष्टि का बन जाना, मिट्टी से मानव का शरीर बन जाना, खुदा का तख्त पर बैठे रहना एवं अन्य सृष्टि सम्बन्धी आयतों की सही व्याख्या करके सम्पूर्ण सृष्टि प्रक्रिया को मुझे समझाने का प्रयास करेंगे? मैं निश्चित रूप से कह सकता हूँ कि कोई भी इस्लामी विद्वान् इसमें समर्थ नहीं हो सकता।
आपने वेद को तो सही ढंग से समझ ही लिया होगा, तभी तो आरोप लगा रहे हैं। यदि आप वेद समझते हैं, तब तो आपको किसी के भाष्य उद्धृत करने की आवश्यकता ही नहीं थी। यहाँ ऐसा प्रतीत होता है कि आपका मुख्य लक्ष्य आर्यसमाज एवं पौराणिक (कथित सनातनी हिन्दु) को ही बदनाम करना है। आपको संस्कृत भाषा का कोई ज्ञान नहीं है, अन्यथा आप आचार्य सायण का भाष्य भी उद्धृत करते। आपने श्री देवीचन्द को भी आर्य विद्वान् कहा है, यह ज्ञान क्या आपको खुदा ने दिया है कि देवीचन्द आर्यसमाज के विद्वान् थे? मैंने तो आर्य समाज में किसी देवीचन्द नामक वेदभाष्यकार का नाम तक नहीं सुना। भाष्यों में भी प्राय: आपने अंग्रजी अनुवादों को ही अधिक उद्धृत किया है। इससे यह भी सिद्ध होता है कि आपको हिन्दी भाषा का भी बहुत अधिक ज्ञान नहीं है और केवल अंग्रेजी भाषा पढक़र वेद के अधिकारी विद्वान् बनकर वेद पर आक्षेप करने बैठ गये। मैं मानता हूँ कि ऋषि दयानन्द के अतिरिक्त अन्य सभी भाष्यकारों से वेदभाष्य करने में भारी भूलें हुई हैं। अब हम क्रमश: आपके द्वारा उद्धृत एक-एक वेद मन्त्र पर विचार करते हैं—
क्रमशः...
सभी वेदभक्तों से निवेदन है कि वेदों पर किये गए आक्षेपों के उत्तर की इस शृंखला को आधिकाधिक प्रचारित करने का कष्ट करें‚ जिससे वेदविरोधियों तक उत्तर पहुँच सके और वेदभक्तों में स्वाभिमान जाग सके।
✍ आचार्य अग्निव्रत नैष्ठिक
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helputrust · 1 year
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12.02.2023, लखनऊ | महर्षि दयानंद सरस्वती जी की 200वीं जयंती के अवसर पर हेल्प यू एजुकेशनल एंड चैरिटेबल ट्रस्ट द्वारा ट्रस्ट के इंदिरा नगर स्थित कार्यालय में श्रद्धापूर्ण पुष्पांजलि कार्यक्रम के आयोजन की दिनांक 13.02.2023 के समाचार पत्रों में प्रकाशित खबर |
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helpukiranagarwal · 6 months
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भारतीय स्वतंत्रता संग्राम सेनानी, बहुआयामी व्यक्तित्व के धनी एवं आर्यसमाज व वैदिक धर्म के अनन्य प्रचारक #भाई_परमानंद जी की जयंती पर उन्हें शत शत नमन ।
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naveensarohasblog · 2 years
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#कबीर_बड़ा_या_कृष्ण_Part90
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वेदों से जानते हैं परम अक्षर ब्रह्म कौन है? || Part B
यहाँ पर वेदों के मंत्रों की कुछ फोटोकाॅपी लगाई हैं जिनका अनुवाद आर्य समाज के आचार्यों, शास्त्रियों ने किया है। कुछ ठीक, कुछ गलत है। परंतु सत्य फिर भी स्पष्ट है।
वेद मंत्रों में कहा है कि सृष्टि का उत्पत्तिकर्ता ‘‘परम अक्षर ब्रह्म’’ यानि ‘‘सत्यपुरूष’’ आकाश में बने सनातन परम धाम यानि सत्यलोक में निवास करता है। एक सिंहासन पर विराजमान है। उसके सिर के ऊपर मुकट तथा छत्र लगे हैं। परमेश्वर देखने में राजा के समान है। परमेश्वर वहाँ से चलकर नीचे के लोक में पृथ्वी आदि पर चलकर (गति करके) आता है। अच्छी आत्माओं को मिलता है। उनको यथार्थ अध्यात्म ज्ञान बताता है। अपने मुख से वाणी बोल-बोलकर भक्ति करने की प्रेरणा करता है। साधना के सत्य नामों का आविष्कार करता है। प्रत्येक युग में एक बार ऐसी लीला करते हुए शिशु रूप धारण करके कमल के फूल पर निवास करता है। वहाँ से बाल परमेश्वर को निःसंतान दम्पति उठा ले जाते हैं। बाल भगवान की परवरिश कंवारी गायों द्वारा होती है। बड़ा होकर तत्त्वज्ञान का प्रचार करता है। अपने मुख से वाणी उच्चारण करता है। दोहों, चैपाईयों, शब्दों के माध्यम से अपनी जानकारी की वाणी उच्चारण करता है जिसको (कविर्गिर्भीः) कबीर वाणी कहा जाता है तथा इसी कारण से प्रसिद्ध कवि की भी पदवी प्राप्त करता है यानि उसको कवि कहा जाता है। जिस पर वेदों में कहे लक्षण खरे उतरते हैं। वही सृष्टि का उत्पत्ति कर्ता तथा सबका धारण-पोषण कर्ता है। अन्य नहीं हो सकता। ये लक्षण केवल कबीर जुलाहे (काशी वाले) पर खरे उतरते हैं। इसलिए परम अक्षर ब्रह्म कबीर जी हैं। इन वेद मंत्रों के बाद चारों युगों में परमेश्वर कबीर जी का लीला करने आने का संक्षिप्त वर्णन है। उसे पढ़कर जान जाओगे कि वेदों में कबीर परमेश्वर जी का वर्णन है। कबीर परमेश्वर जी ने भी कहा है:-
बेद मेरा भेद है, मैं ना बेदन के मांही। जौन बेद से मैं मिलूं, बेद जानते नांही।।
अर्थात् कबीर जी ने स्पष्ट किया है कि चारों वेद मेरी महिमा बताते हैं। परंतु इन वेदों में मेरी प्राप्ति की भक्ति विधि नहीं क्योंकि काल ब्रह्म ने वह यथार्थ भक्ति के मंत्र निकाल दिए थे। मेरी प्राप्ति का ज्ञान जिस सूक्ष्म वेद में है, उसका ज्ञान वेदों में अंकित नहीं है।
कृपया पढ़ें वेद मंत्र तथा दास (रामपाल दास) के द्वारा किया गया विश्लेषण, इनके बाद परमेश्वर कबीर जी का चारों युगों में सतलोक सिंहासन से गति करके आने का प्रकरण।
वेद मंत्र (प्रमाण सहित)
प्रमाण ऋग्वेद मण्डल नं. 9 सुक्त 86 मन्त्र 26-27
Rig Veda Mandal 9 Sukt 86 Mantra 26
ववेचन:- ऋग्वेद मण्डल 9 सूक्त 86 मन्त्र 26, जो आर्यसमाज के आचार्यों व महर्षि दयानन्द के चेलों द्वारा अनुवादित है जिसमें स्पष्ट है कि यज्ञ करने वाले अर्थात् धार्मिक अनुष्ठान करने वाले यजमानों अर्थात् भक्तों के लिए परमात्मा, सब रास्तों को सुगम करता हुआ अर्थात् जीवन रूपी सफर के मार्ग को दुखों रहित करके सुगम बनाता हुआ। उनके विघ्नों अर्थात् संकटों का मर्दन करता है अर्थात् समाप्त करता है। भक्तों को पवित्र अर्थात् पाप रहित, विकार रहित करता है। जैसा की अगले मन्त्र 27 में कहा है कि ’’जो परमात्मा द्यूलोक अर्थात् सत्यलोक के तीसरे पृष्ठ पर विराजमान है, वहाँ पर परमात्मा के शरीर का प्रकाश बहुत अधिक है।‘‘ उदाहरण के लिए परमात्मा के एक रोम (शरीर के बाल) का प्रकाश करोड़ सूर्य तथा इतने ही चन्द्रमाओं के मिले-जुले प्रकाश से भी अधिक है। यदि वह परमात्मा उसी प्रकाश युक्त शरीर से पृथ्वी पर प्रकट हो जाए तो हमारी चर्म दृष्टि उन्हें देख नहीं सकती। जैसे उल्लु पक्षी दिन में सूर्य के प्रकाश के कारण कुछ भी नहीं देख पाता है। यही दशा मनुष्यों की हो जाए। इसलिए वह परमात्मा अपने रूप अर्थात् शरीर के प्रकाश को सरल करता हुआ उस स्थान से जहाँ परमात्मा ऊपर रहता है, वहाँ से गति करके बिजली के समान क्रीड़ा अर्थात् लीला करता हुआ चलकर आता है, श्रेष्ठ पुरूषों को मिलता है। यह भी स्पष्ट है कि आप कविः अर्थात् कविर्देव हैं। हम उन्हें कबीर साहेब कहते हैं।
Rig Veda Mandal 9 Sukt 86 Mantra 27
विवेचन:- ऋग्वेद मण्डल 9 सूक्त 86 के मन्त्र 27। इसमें स्पष्ट है कि ’’परमात्मा द्यूलोक अर्थात् अमर लोक के तीसरे पृष्ठ अर्थात् भाग पर विराजमान है। सत्यलोक अर्थात् शाश्वत् स्थान के तीन भाग हैं। एक भाग में वन-पहाड़-झरने, बाग-बगीचे आदि हैं। यह बाह्य भाग है अर्थात् बाहरी भाग है। (जैसे भारत की राजधानी दिल्ली भी तीन भागों में बँटी है। बाहरी दिल्ली जिसमें गाँव खेत-खलिहान और नहरें हैं, दूसरा बाजार बना है। तीसरा संसद भवन तथा कार्यालय हैं।)
इसके पश्चात् द्यूलोक में बस्तियाँ हैं। सपरिवार मोक्ष प्राप्त हंसात्माऐं रहती हैं। (पृथ्वी पर जैसे भक्त को भक्तात्मा कहते हैं, इसी प्रकार सत्यलोक में हंसात्मा कहलाते हैं।) (3) तीसरे भाग में सर्वोपरि परमात्मा का सिंहासन है। उसके आस-पास केवल नर आत्माऐं रहती हैं, वहाँ स्त्री-पुरूष का जोड़ा नहीं है। वे यदि अपना परिवार चाहते हैं तो शब्द (वचन) से केवल पुत्र उत्पन्न कर लेते हैं। इस प्रकार शाश्वत् स्थान अर्थात् सत्यलोक तीन भागों में परमात्मा ने बाँट रखा है। वहाँ यानि सत्यलोक में प्रत्येक स्थान पर रहने वालों में वृद्धावस्था नहीं है, वहाँ मृत्यु नहीं है। इसीलिए गीता अध्याय 7 श्लोक 29 में कहा है कि जो जरा अर्थात् वृद्ध अवस्था तथा मरण अर्थात् मृत्यु से छूटने का प्रयत्न करते हैं, वे तत् ब्रह्म अर्थात् परम अक्षर ब्रह्म को जानते हैं। सत्यलोक में सत्यपुरूष रहता है, वहाँ पर जरा-मरण नहीं है, बच्चे युवा होकर सदा युवा रहते हैं।
प्रमाण ऋग्वेद मण्डल नं. 9 सुक्त 82 मन्त्र 1-2
Rig Veda Mandal 9 Sukt 82 Mantra 1
Rig Veda Mandal 9 Sukt 82 Mantra 2
विवेचन:- ऊपर ऋग्वेद मण्डल 9 सूक्त 82 मन्त्र 1-2 की फोटोकापी हैं, यह अनुवाद महर्षि दयानन्द जी के दिशा-निर्देश से उन्हीं के चेलों ने किया है और सार्वदेशिक आर्य प्रतिनिधि सभा दिल्ली से प्रकाशित है।
इनमें स्पष्ट है कि:- मन्त्र 1 में कहा है ’’सर्व की उत्पत्ति करने वाला परमात्मा तेजोमय शरीर युक्त है, पापों को नाश करने वाला और सुखों की वर्षा करने वाला अर्थात् सुखों की झड़ी लगाने वाला है, वह ऊपर सत्यलोक में सिंहासन पर बैठा है जो देखने में राजा के समान है। यही प्रमाण सूक्ष्मवेद में है कि:-
अर्श कुर्श पर सफेद गुमट है, जहाँ परमेश्वर का डेरा।
श्वेत छत्र सिर मुकुट विराजे, देखत न उस चेहरे नूं।।
यही प्रमाण बाईबल ग्रन्थ तथा र्कुआन् शरीफ में है कि परमात्मा ने छः दिन में सृष्टि रची और सातवें दिन ऊपर आकाश में तख्त अर्थात् सिंहासन पर जा विराजा। (बाईबल के उत्पत्ति ग्रन्थ 2:26-30 तथा र्कुआन् शरीफ की सुर्त ’’फुर्कानि 25 आयत 52 से 59 में है।)
वह परमात्मा अपने अमर धाम से चलकर पृथ्वी पर शब्द वाणी से ज्ञान सुनाता है। वह वर्णीय अर्थात् आदरणीय श्रेष्ठ व्यक्तियों को प्राप्त होता है, उनको मिलता है। {जैसे 1 सन्त धर्मदास जी बांधवगढ(मध्य प्रदेश वाले को मिले) 2 सन्त मलूक दास जी को मिले, 3 सन्त दादू दास जी को आमेर (राजस्थान) में मिले 4 सन्त नानक देव जी को मिले 5 सन्त गरीब दास जी गाँव छुड़ानी जिला झज्जर हरियाणा वाले को मिले 6 सन्त घीसा दास जी गाँव खेखड़ा जिला बागपत (उत्तर प्रदेश) वाले को मिले।}
वह परमात्मा अच्छी आत्माओं को मिलते हैं। जो परमात्मा के दृढ़ भक्त होते हैं, उन पर परमात्मा का विशेष आकर्षण होता है। उदाहरण भी बताया है कि जैसे विद्युत अर्थात् आकाशीय बिजली स्नेह वाले स्थानों को आधार बनाकर गिरती है। जैसे कांसी धातु पर बिजली गिरती है, पहले कांसी धातु के कटोरे, गिलास-थाली, बेले आदि-आदि होते थे। वर्षा के समय तुरन्त उठाकर घर के अन्दर रखा करते थे। वृद्ध कहते थे कि कांसी के बर्तन पर बिजली अमूमन गिरती है, इसी प्रकार परमात्मा अपने प्रिय भक्तों पर आकर्षित होकर मिलते हैं।
मन्त्र नं. 2 में तो यह भी स्पष्ट किया है कि परमात्मा उन अच्छी आत्माओं को उपदेश करने की इच्छा से स्वयं महापुरूषों को मिलते हैं। उपदेश का भावार्थ है कि परमात्मा तत्वज्ञान बताकर उनको दीक्षा भी देते हैं। उनके सतगुरू भी स्वयं परमात्मा होते हैं। यह भी स्पष्ट किया है कि परमात्मा अत्यन्त गतिशील पदार्थ अर्थात् बिजली के समान तीव्रगामी होकर हमारे धार्मिक अनुष्ठानों में आप पहुँचते हैं। आप जी ने पीछे पढ़ा कि सन्त धर्मदास को परमात्मा ने यही कहा था कि मैं वहाँ पर अवश्य जाता हूँ जहाँ धार्मिक अनुष्ठान होते हैं क्योंकि मेरी अनुपस्थिति में काल कुछ भी उपद्रव कर देता है। जिससे साधकों की आस्था परमात्मा से छूट जाती है। मेरे रहते वह ऐसी गड़बड़ नहीं कर सकता। इसीलिए गीता अध्याय 3 श्लोक 15 में कहा है कि वह अविनाशी परमात्मा जिसने ब्रह्म को भी उत्पन्न किया, सदा ही यज्ञों में प्रतिष्ठित है अर्थात् धार्मिक अनुष्ठानों में उसी को इष्ट रूप में मानकर आरती स्तुति करनी चाहिए।
इस ऋग्वेद मण्डल 9 सूक्त 82 मन्त्र 2 में यह भी स्पष्ट किया है कि आप (कविर्वेधस्य) कविर्देव है जो सर्व को उपदेश देने की इच्छा से आते हो, आप पवित्र परमात्मा हैं। हमारे पापों को छुड़वाकर अर्थात् नाश करके हे अमर परमात्मा! आप हम को सुःख दें और (द्युतम् वसानः निर्निजम् परियसि) हम आप की सन्तान हैं। हमारे प्रति वह वात्सल्य वाला प्रेम भाव उत्पन्न करते हुए उसी (निर्निजम्) सुन्दर रूप को (परियासि) उत्पन्न करें अर्थात् हमारे को अपने बच्चे जानकर जैसे पहले और जब चाहें तब आप अपनी प्यारी आत्माओं को प्रकट होकर मिलते हैं, उसी तरह हमें भी दर्शन दें।
प्रमाण ऋग्वेद मण्डल नं. 9 ��ुक्त 96 मन्त्र 16 से 20
Rig Veda Mandal 9 Sukt 96 Mantra 16
Rig Veda Mandal 9 Sukt 96 Mantra 17
ऋग्वेद मण्डल 9 सूक्त 96 के मंत्र 16 में कहा है कि हे परमात्मन्! आप अपने श्रेष्ठ गुप्त नाम का ज्ञान कराऐं। उस नाम को मंत्र 17 में बताया है कि वह कविः यानि कविर्देव है।
मंत्र 17 की केवल हिन्दी:- (शिशुम् जज्ञानम् हर्यन्तम्) परमेश्वर जान-बूझकर तत्वज्ञान बताने के उद्देश्य से शिशु रूप में प्रकट होता है, उनके ज्ञान को सुनकर (मरूतो गणेन) भक्तों का बहुत बड़ा समूह उस परमात्मा का अनुयाई बन जाता है। (मृजन्ति शुम्यन्ति वहिन्)
वह ज्ञान बुद्धिजीवी लोगों को समझ आता है, वे उस परमेश्वर की स्तुति भक्ति तत्वज्ञान के आधार से करते हैं, वह भक्ति (वहिन्) शीघ्र लाभ देने वाली होती है। वह परमात्मा अपने तत्वज्ञान को (काव्येना) कवित्व से अर्थात् कवियों की तरह दोहों, शब्दों, लोकोक्तियों, चैपाईयों द्वारा (कविर् गीर्भिः) कविर् वाणी द्वारा अर्थात् कबीर वाणी द्वारा (पवित्रम् अतिरेभन्) शुद्ध ज्ञान को उच्चे स्वर में गर्ज-गर्जकर बोलते हैं। वह (कविः) कवि की तरह आचरण करने वाला कविर्देव (सन्त्) सन्त रूप में प्रकट (सोम) अमर परमात्मा होता है। (ऋग्वेद मण्डल 9 सूक्त 96 मन्त्र 17)
विशेष:- इस मन्त्र के मूल पाठ में दो बार ’’कविः’’ शब्द है, आर्य समाज के अनुवादकर्ताओं ने एक (कविः) का अर्थ ही नहीं किया है।
Rig Veda Mandal 9 Sukt 96 Mantra 18
विवेचन:- यह ऋग्वेद मण्डल 9 सूक्त 96 मन्त्र 18 की फोटोकापी है जिसका अनुवाद महर्षि दयानन्द जी के अनुयाईयों ने किया है। सार्वदेशिक आर्य प्रतिनिधि सभा दिल्ली द्वारा अनुवादित है। इस पर विवेचन करते हैं। इसके अनुवाद में भी बहुत-सी गलतियाँ हैं जो आर्यसमाज के आचार्यों ने की है। हम संस्कृत भी समझ सकते हैं, विवेचन करता हूँ तथा यथार्थ अनुवाद व भावार्थ स्पष्ट करता हूँ। मन्त्र 17 में कहा है कि ऋषि या सन्त रूप में प्रकट होकर परमात्मा अमृतवाणी अपने मुख कमल से बोलता है और उस ज्ञान को समझकर अनेकों अनुयाईयों का समूह बन जाता है। (य) जो वाणी परमात्मा तत्वज्ञान की सुनाता है, वे (ऋषिकृत्) ऋषि रूप में प्रकट परमात्मा कृत (सहंस्रणीयः) हजारों वाणियाँ अर्थात् कबीर वाणियाँ (ऋषिमना) ऋषि स्वभाव वाले भक्तों के लिए (स्वर्षाः) आनन्ददायक होती हैं। (कविनाम पदवीः) कवित्व से दोहों, चैपाईयों में वाणी बोलने के कारण वह परमात्मा प्रसिद्ध कवियों में से एक कवि की भी पदवी प्राप्त करता है। वह (सोम) अमर परमात्मा (सिषासन्) सर्व की पालन की इच्छा करता हुआ प्रथम स्थिति में (महिषः) बड़ी पृथ्वी अर्थात् ऊपर के लोकों में (तृतीयम् धाम) तीसरे धाम अर्थात् सत्यलोक के तीसरे पृष्ठ पर (अनुराजति) तेजोमय शरीर युक्त (स्तुप) गुम्बज में (विराजम्) विराजमान है, वहाँ बैठा है। यही प्रमाण ऋग्वेद मण्डल 9 सूक्त 54 मन्त्र 3 में है कि परमात्मा सर्व लोकों के ऊपर के लोक में विराजमान है, (तिष्ठन्ति) बैठा है।
Rig Veda Mandal 9 Sukt 96 Mantra 19
विवेचन:- ऋग्वेद मण्डल 9 सूक्त 96 मन्त्र 19 का भी आर्य समाज के विद्वानों ने अनुवाद किया है। इसमें भी बहुत सारी गलतियाँ है। पुस्तक विस्तार के कारण केवल अपने मतलब की जानकारी प्राप्त करते हैं।
इस मन्त्र में चैथे धाम का वर्णन है जो आप जी सृष्टि रचना में पढेंगे, उससे पूर्ण जानकारी होगी पढे़ं इसी पुस्तक के पृष्ठ 208 पर।
परमात्मा ने ऊपर के चार लोक अ��र-अमर रचे हैं।
अनामी लोक जो सबसे ऊपर है।
अगम लोक
अलख लोक
सत्यलोक
हम पृथ्वी लोक पर हैं, यहाँ से ऊपर के लोकों की गिनती करेंगे तो 1 सत्यलोक 2 अलख लोक 3 अगम लोक तथा 4 अनामी लोक गिना जाता है। उस चैथे धाम में बैठकर परमात्मा ने सर्व ब्रह्माण्डों व लोकों की रचना की। शेष रचना सत्यलोक में बैठकर की थी। आर्य समाज के अनुवादकों ने तुरिया परमात्मा अर्थात् चैथे परमात्मा का वर्णन किया है। यह चैथा धाम है। उसमें मूल पाठ मन्त्र 19 का भावार्थ है कि तत्वदर्शी सन्त चैथे धाम तथा चैथे परमात्मा का (विवक्ति) भिन्न-भिन्न वर्णन करता है। पाठक जन कृपया पढे़ं सृष्टि रचना इसी पुस्तक के पृष्ठ 208 पर जिससे आप जी को ज्ञान होगा कि लेखक (संत रामपाल दास) ही वह तत्वदर्शी संत है जो तत्वज्ञान से परिचित है।
Rig Veda Mandal 9 Sukt 96 Mantra 20
विवेचन:- ऋग्वेद मण्डल 9 सूक्त 96 मन्त्र 20 का यथार्थ ज्ञान जानते हैंः-
इस मन्त्र का अनुवाद महर्षि दयानन्द के चेलों द्वारा किया गया है, इनका दृष्टिकोण यह रहा है कि परमात्मा निराकार है क्योंकि महर्षि दयानन्द जी ने यह बात दृढ़ की है कि परमात्मा निराकार है। इसलिए अनुवादक ने सीधे मन्त्र का अनुवाद घुमा-फिराकर किया है। जैसे मूल पाठ में लिखा हैः-
मर्य न शुभ्रः तन्वा मृजानः अत्यः न सृत्वा सनये धनानाम्।
वृर्षेव यूथा परि कोशम अर्षन् कनिक्रदत् चम्वोः आविवेश।।
अनुवाद:- जैसे (मर्यः न) मनुष्य सुन्दर वस्त्रा धारण करता है, ऐसे परमात्मा मनुष्य के समान (शुभ्रः तन्व) सुन्दर शरीर (मृजानः) धारण करके (अत्यः) अत्यन्त गति से चलता हुआ (सनये धनानाम्) भक्ति धन के धनियों अर्थात् पुण्यात्माओं को (सनये) प्राप्ति के लिए आता है। (यूथा वृषेव) जैसे एक समुदाय को उसका सेनापति प्राप्त होता है, ऐसे वह परमात्मा संत व ऋषि रूप में प्रकट होता है तो उसके बहुत सँख्या में अनुयाई बन जाते हैं और परमात्मा उनका गुरू रूप में मुखिया होता है। वह परमात्मा (परि कोशम्) प्रथम ब्रह्माण्ड में (अर्षन्) प्राप्त होकर अर्थात् आकर (कनिक्रदत्) ऊँचे स्वर में सत्यज्ञान उच्चारण करता हुआ (चम्वोः) पृथ्वी खण्ड में (अविवेश) प्रविष्ट होता है।
भावार्थ:- जैसे पूर्व में वेद मन्त्रों में कहा है कि परमात्मा ऊपर के लोक में रहता है, वहाँ से गति करके अपने रूप को अर्थात् शरीर के तेज को सरल करके पृथ्वी पर आता है। इस ऋग्वेद मण्डल 9 सूक्त 96 मन्त्र 20 में उसी की पुष्टि की है। कहा है कि जैसे मनुष्य वस्त्र धारण करता है, ऐसे अन्य शरीर धारण करके परमात्मा मानव रूप में पृथ्वी पर आता है और (धनानाम्) दृढ़ भक्तों (अच्छी पुण्यात्माओं) को प्राप्त होता है, उनको वाणी उच्चारण करके तत्वज्ञान सुनाता है।
विवेचन:- ये ऋग्वेद मण्डल 9 सूक्त 96 मन्त्र 16 से 20 की फोटोकापियाँ हैं, जिनका हिन्दी अनुवाद महर्षि दयानन्द सरस्वती आर्यसमाज प्रवर्तक के दिशा-निर्देश से उनके आर्यसमाजी चेलों ने किया है। यह अनुवाद कुछ-कुछ ठीक है, अधिक गलत है। पहले अधिक ठीक या कुछ-कुछ गलत था जो मेरे द्वारा शुद्ध करके विवेचन में लिख दिया है। अब अधिक गलत को शुद्ध करके लिखता हूँ।
ऋग्वेद मण्डल 9 सूक्त 96 मन्त्र 16 में कहा है कि:-
हे परमात्मा! आपका जो गुप्त वास्तविक (चारू) श्रेष्ठ (नाम) नाम है, उसका ज्ञान कराऐं। प्रिय पाठको! जैसे भारत के राजा को प्रधानमंत्री कहते हैं, यह उनकी पदवी का प्रतीक है। उनका वास्तविक नाम कोई अन्य ही होता है। जैसे पहले प्रधानमंत्री जी पंडित जवाहर लाल नेहरू जी थे। ’’जवाहरलाल’’ उनका वास्तविक नाम है। इस मंत्र 16 में कहा है कि हे परमात्मा! आपका जो वास्तविक नाम है वह (सोतृमिः) उपासना करने का (स्व आयुधः) स्वचालित शस्त्र के समान (पूयमानः) अज्ञान रूपी गन्द को नाश करके प���पनाशक है। आप अपने उस सत्य मन्त्र का हमें ज्ञान कराऐं। (देव सोम) हे अमर परमेश्वर! आपका वह मन्त्र श्वांसों द्वारा नाक आदि (गाः) इन्द्रियों से (वासुम् अभि) श्वांस-उश्वांस से जपने से (सप्तिरिव = सप्तिः इव) विद्युत् जैसी गति से अर्थात् शीघ्रता से (अभिवाजं) भक्ति धन से परिपूर्ण करके (श्रवस्यामी) ऐश्वर्य को तथा मोक्ष को प्राप्त कराईये।
प्रिय पाठकों से निवेदन है कि इस ऋग्वेद मण्डल 9 सूक्त 96 मन्त्र 16 के अनुवाद में बहुत-सी गलतियाँ थी जो शुद्ध कर दी हैं। प्रमाण के लिए मूल पाठ मे ’’अभिवाजं’’ शब्द है इसका अनुवाद नहीं किया गया है। इसके स्थान पर ’’अभिगमय’’ शब्द का अर्थ जोड़ा है जो मूल पाठ में नहीं है।
विवेचन:- ऋग्वेद मण्डल 9 सूक्त 96 मन्त्र 17 के अनुवाद में भी बहुत गलतियाँ हैं जो आर्यसमाजियों द्वारा अनुवादित है। अब शुद्ध करके लिखता हूँः-
जैसा कि पूर्वोक्त ऋग्वेद मण्डल 9 सूक्त 86 तथा 82 के मन्त्रों में प्रमाण है कि परमात्मा अपने शाश्वत् स्थान से जो द्यूलोक के तीसरे स्थान पर विराजमान है, वहाँ से चलकर पृथ्वी पर जान-बूझकर किसी खास उद्देश्य से प्रकट होता है। परमात्मा सर्व ब्रह्माण्डों में बसे प्राणियों की परवरिश तीन स्थिति में करते हैं।
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