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Amazfit GTR 3 Pro लिमिटेड एडिशन अल्ट्रा एचडी डिस्प्ले के साथ लॉन्च: विवरण
Amazfit GTR 3 Pro लिमिटेड एडिशन अल्ट्रा एचडी डिस्प्ले के साथ लॉन्च: विवरण
Amazfit ने अपनी Amazfit GTR 3 Pro स्मार्टवॉच के सीमित संस्करण का अनावरण किया है। Amazfit GTR 3 Pro में मानक GTR 3 Pro के समान विनिर्देश हैं, लेकिन यह इसके डिज़ाइन और स्ट्रैप सामग्री के मामले में भिन्न है। Amazfit GTR 3 Pro Limited Edition एक फ्लैट स्क्रीन डिज़ाइन के साथ आता है, जबकि मानक GTR 3 Pro एक गोल डिस्प्ले को स्पोर्ट करता है। सीमित संस्करण का फ्रेम स्टेनलेस स्टील से बना है, और पट्टा मानक…
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naveensarohasblog · 7 days
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सर्व कला सतगुरू साहेब की
हरि आए हरियाणे नू ।
‘भाई बाले वाली जन्म साखी में प्रमाण’’
‘‘एक महापुरूष के विषय में भाई बाले वाली जन्म साखी में प्रजाद भक्त की भविष्यवाणी’’ भाई बाले वाली जन्म साखी में लिखा गया विवरण स्पष्ट करता है कि संत रामपाल दास जी महाराज ही वह अवतार है जिन्हें परमेश्वर कबीर जी तथा संत नानक जी के पश्चात् पंजाब की धरती पर अवतरित होना था। सन्त रामपाल दास जी महाराज 8 सितम्बर सन् 1951 को गांव धनाना, जिला सोनीपत, हरियाणा प्रान्त (उस समय पंजाब प्रान्त) भारत की पवित्रा धरती पर श्री नन्द राम जाट के घर जाट वर्ण में श्रीमति इन्द्रा देवी की कोख से जन्में।
इस विषय में ’’जन्म साखी भाई बाले वाली’’ हिन्दी वाली में जिसके प्रकाशक हैं:- भाई जवाहर सिंह कृपाल सिंह एण्ड कम्पनी पुस्तकां वाले, बाजार माई सेवां, अमृतसर (पंजाब) तथा पंजाबी वाली के प्रकाशक है:- भाई जवाहर सिंह कृपाल सिंह पुस्तकां वाले गली-8 बाग रामानन्द अमृतसर (पंजाब)।
इसमें लिखा अमर लेख इस प्रकार है:- एक समय भाई बाला तथा मरदाना को साथ लेकर सतगुरु नानक देव जी भक्त प्रजाद जी के लोक में गए। जो पृथ्वी से कई लाख कोस दूर अन्तरिक्ष में है। प्रजाद ने कहा कि हे नानक जी! आप को परमात्मा ने दिव्य दृष्टि दी तथा कलयुग में बड़ा भक्त बनाया है। आप का कलयुग में बहुत प्रताप होगा। यहां पर (प्रजाद के लोक में) पहले कबीर जी आये थे या आज आप आये हो एक और आयेगा जो आप दोनों जैसा ही महापुरूष होगा। इन तीनों के अतिरिक्त यहां मेरे लोक में कोई नहीं आ सकता। भक्त बहुत हो चुके हैं आगे भी होगें परन्तु यहां मेरे लोक में वही पहुँच सकता है, जो इन जैसी महिमा वाला होगा और कोई नहीं। इसलिए इन तीनों के अतिरिक्त यहां कोई नहीं आ सकता। मरदाने ने पूछा कि हे प्रजाद जी! कबीर जी जुलाहा थे, नानक जी खत्राी हैं, वह तीसरा किस वर्ण (जाति) से तथा किस धरती पर अवतरित होगा।
प्रजाद भक्त ने कहा भाई सुन:- नानक जी के सच्चखण्ड जाने के सैकड़ों वर्ष पश्चात् पंजाब की धरती पर जाट वर्ण में जन्म लेगा तथा उसका प्रचार क्षेत्रा शहर बरवाला होगा। (लेख समाप्त)
विवेचन:- संत रामपाल दास जी महाराज वही अवतार हैं जो अन्य प्रमाणों के साथ-2 जन्म साखी में लिखे वर्णन पर खरे उतरते हैं। जन्म साखी में ‘‘सौ वर्ष के पश्चात्’’ लिखा है। यहां पर सैकड़ों वर्ष पश्चात् कहा गया था जिसको पंजाबी भाषा में लिखते समय सौ वर्ष ही लिख दिया। क्योंकि मर्दाना ने पूछा था कि वह कौन से युग में नजदीक ही आयेगा? तब भक्त प्रजाद ने कहा कि श्री नानक जी के सैकड़ों वर्ष पश्चात् कलयुग में ही वह संत जाट वर्ण में जन्म लेगा। इसी लिए यहां सौ वर्ष के स्थान पर सैकड़ों वर्षों ही न्यायोचित है तथा प्रचार क्षेत्रा बरवाला के स्थान पर बटाला लिखा गया है। इसके दो कारण हो सकते हैं कि ‘‘शहर बरवाला’’ जिला हिसार हरियाणा (उस समय पंजाब) प्रान्त में सुप्रसिद्ध नहीं था तथा बटाला शहर पंजाब प्रान्त में प्रसिद्ध था। लेखनकर्ता ने इस कारण से ‘‘बरवाला’’ के स्थान पर ‘‘बटाला’’ लिख द��या दूसरा प्रिन्ट करते समय ‘‘अतअूसल’’ की जगह ‘‘अजूसल’’ प्रिंट हो गया है। एक और विशेष विचारणीय पहलू है कि पंजाब के बटाला शहर में कोई भी जाट संत नहीं हुआ है। जो इन महापुरूषों (परमेश्वर कबीर देव जी व श्री नानक देव जी) के समान महिमावान तथा इनके समान ज्ञानवान हुआ हो। इस आधार से तथा अन्य प्रमाणों के आधार से तथा इस जन्म साखी के आधार से स्पष्ट है कि वह तीसरे महापुरूष संत रामपाल दास जी महाराज हैं तथा इनका आध्यात्मिक ज्ञान भी इन दोनों महापुरूषों (परमेश्वर कबीर जी तथा श्री नानक देव जी) से मेल खाता है। आप देखेंगे दोनों फोटो कापी जो जन्म साखी भाई बाले वाली जो कि एक पंजाबी भाषा में है तथा दूसरी हिन्दी में है जो कि पंजाबी भाषा से ही अनुवादित है। इसमें कुछ प्रकरण ठीक नहीं लिखा है। जैसे पंजाबी भाषा में लिखा है कि ‘‘जो इस जीहा कोई होवेगा तां एथे पहुँचेगा होर दा एथे पहुँचण दा कम नही’’ परन्तु हिन्दी वाली जन्म साखी में यह विवरण नहीं है जो बहुत महत्वपूर्ण है। इससे सिद्ध है कि लिखते समय कुछ प्रकरण बदल जाता है। फिर भी ढेर सारे प्रमाण जो इस पुस्तक में अन्य महापुरूषों के द्वारा सन्त रामपाल दास जी के विषय में कहे हैं वे भी इसी को प्रमाणित करते हैं।
विशेष:- यदि कोई यह कहे कि जन्म साखी में लिखी व्याख्या सन्त गरीबदास जी गांव छुड़ानी वाले के लिए हैं। क्योंकि वे भी जाट जाति से थे तथा छुड़ानी गांव भी पहले पंजाब प्रांत के अन्तर्गत आता था। यह भी उचित नहीं लगती क्योंकि संत गरीबदास जी ने अपनी अमृतवाणी ‘‘असुर निकंदन रमैणी’’ में कहा है कि ‘‘सतगुरु दिल्ली मण्डल आयसी, सूती धरनी सूम जगायसी’’ भावार्थ है कि संत गरीबदास जी के सतगुरु पूज्य कबीर साहेब जी थे। पुराना रोहतक जिला (सोनीपत, रोहतक तथा झज्जर को मिला कर एक जिला रोहतक था) दिल्ली मण्डल में लगता था। यह किसी राजा के आधीन नहीं था। अग्रेंजो के शासन काल में दिल्ली के आधीन था। सन्त गरीबदास जी ने स्पष्ट किया है कि सतगुरु (परमेश्वर कबीर जी) दिल्ली मण्डल में आऐंगे भक्तिहीन प्राणियों को जगाऐंगे सत्यभक्ति कराऐंगे। (ध्यान रहे कबीर सागर में काल के दूतों ने मिलावट करके सत्य को न जानकर अपनी अटकल बाजी से असत्य प्रमाण दिए हैं। उसका नाश करने के लिए परमेश्वर कबीर जी ने अपने अंश अवतार सन्त गरीब दास जी द्वारा यथार्थ ज्ञान प्रचार करवाया है। जो सन्त गरीब दास जी की अमृतवाणी रूप में है। इसी बात की पुष्टि ‘‘कबीर सागर के सम्पादक कबीर पंथी श्री युगलानन्द बिहारी जी की उस टिप्पणी से होती है जो उन्होंने अनुराग सागर तथा ज्ञान सागर की भूमिका में की है कहा है कि कबीर पंथियों ने ही कबीर पंथ के ग्रन्थों का नाश कर रखा है। अपने-2 मते अनुसार फेर बदल करके अपने मत को जोड़ा है। मेरे पास अनुराग सागर तथा ज्ञान सागर की कई-2 प्रतियाँ रखी हैं। जिनमें से एक दूसरे से मेल नहीं खा रही हैं।)
सन्त रामपाल दास जी महाराज का जन्म श्री नन्द राम जाट के घर 8 सितम्बर 1951 को गांव-धनाना जिला सोनीपत (उस समय जिला रोहतक) में हुआ था। जो वर्तमान हरियाणा तथा पंजाब प्रांत मिलकर, उस समय एक ही ‘पंजाब’ प्रांत था। परमेश्वर कबीर जी ने भी कहा था कि जिस समय कलयुग 5500 वर्ष बीत चुका होगा मैं गरीबदास वाले बारहवें पंथ में आगे स्वयं आऊँगा। सन्त गरीबदास जी द्वारा मेरी (कबीर परमेश्वर की) महिमा की वाणी प्रकट होगी तथा गरीबदास वाले बारहवें पंथ तक के साधक मुझे आधार बनाकर वाणी को समझने की कोशिश करेंगे परन्तु वाणी को न समझ कर सतनाम तथा सारनाम से वंचित रहने के कारण असंख्य जन्म तक सत्यलोक प्राप्ति नहीं कर सकते। उसी बारहवें पंथ (गरीबदास जी वाले पंथ) में मैं (परमेश्वर कबीर जी) ही स्वयं चलकर आऊँगा। तब सन्त गरीबदास जी द्वारा प्रकट की गई वाणी को मैं (कबीर परमेश्वर) प्रकट होकर समझाऊँगा। इस से सिद्ध हुआ कि जन्म साखी में जिस जाट सन्त के विषय में कहा है निरविवाद रूप से वह संत रामपाल दास जी महाराज जी ही हैं। फिर भी हम संत गरीबदास जी का विशेष आदर करते हैं। क्योंकि उन्होंने परमेश्वर कबीर जी का अमर संदेश सुनाया है।
यदि कोई भ्रम उत्पन्न करे की दस गुरु साहिबानों में से भी किसी की ओर संकेत हो सकता है। इसके लिए स्मरण रहे कि दस सिख गुरु साहिबानों में से कोई भी जाट वर्ण से नहीं थे। दूसरे सिख गुरु श्री अंगद देव जी खत्राी थे। तीसरे गुरु जी श्री अमर दास जी भी खत्राी थे। चौथे गुरु जी श्री रामदास जी खत्राी थे तथा पांचवें गुरु जी श्री अर्जुन देव जी से लेकर दसवें तथा अन्तिम श्री गुरु गोबिन्द सिंह जी तक श्री गुरु रामदास जी की सन्तान अर्थात् खत्राी थे। फिर भी हम सभी सिख गुरु साहिबानों का विशेष आदर करते हैं।
संत रामपाल दास जी महाराज कहते हैं:-
जीव हमारी जाति है, मानव धर्म हमार���, हिन्दु मुसलिम, सिख, ईसाई, धर्म नहीं कोई न्यारा।।
परमेश्वर कबीर जी ने कहा है:-
जाति ना पूछो संत की, पूछ लीजिए ज्ञान। मोल करो तलवार का, पड़ी रहन दो म्यान।।
कृप्या प्रमाण के लिए देखें फोटो कापी जन्म साखी पंजाबी गुरुमुखी (पंजाबी भाषा) वाली तथा हिन्दी वाली दोनों में आप जी सहज में समझ सकते हो कि वास्तविक्ता क्या है। जन्म साखियों के प्रकाशक हैं:- भाई जवाहर सिंह कृपाल सिंह अमृतसर (पंजाब)। कृप्या देखें फोटो कापी जन्म साखी भाई बाले वाली पंजाबी भाषा वाली के पृष्ठ 272 की।
कृप्या देखें फोटो कापी जन्म साखी भाई बाले वाली पंजाबी भाषा वाली के पृष्ठ 273 की।
कृप्या देखें फोटो कापी जन्म साखी भाई बाले वाली हिन्दी वाली के पृष्ठ 305 की प्रश्न: एक संस्कृत के विद्वान शास्त्राी ने कहा कि आप के गुरु संत रामपाल दास जी महाराज संस्कृत नहीं पढ़े हैं। आप कहते हो कि उन्होंने श्री मद्भगवत् गीता का यथार्थ अनुवाद करके भक्तों को बताते हैं। यह कभी नहीं हो सकता। उत्तर: सन्त रामपाल दास जी महाराज के भक्त ने उत्तर दिया शास्त्राी जी उसी को परमेश्वर का अवतार कहते हैं। जो भाषा का ज्ञान न होते हुए यथार्थ अनुवाद कर दें। क्योंकि परमेश्वर सर्वज्ञ है। उन्हीं गुणों से युक्त उसका भेजा हुआ अवतार होता है। वह अवतार सन्त रामपाल दास जी महाराज जी हैं। आप तो केवल वेदों और गीता के अनुवाद से अचम्भित हैं। सन्त रामपाल दास जी महाराज ने तो बाईबल तथा कुरान को यथार्थ रूप में बताया है। जिसे ईसाई धर्म के वर्तमान के फादर व पादरी तथा मुसलमान धर्म के मुल्ला व काजी भी नहीं समझ सके।
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आध्यात्मिक जानकारी के लिए आप संत रामपाल जी महाराज जी के मंगलमय प्रवचन सुनिए Sant Rampal Ji Maharaj YOUTUBE चैनल पर प्रतिदिन 7:30-8.30 बजे।
संत रामपाल जी महाराज जी इस विश्व में एकमात्र पूर्ण संत हैं। आप सभी से विनम्र निवेदन है अविलंब संत रामपाल जी महाराज जी से नि:शुल्क नाम दीक्षा लें और अपना जीवन सफल बनाएं।
https://online.jagatgururampalji.org/naam-diksha-inquiry
23 notes · View notes
kisturdas · 4 months
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सृष्टी की रचना
#SANTRAMPALJIMAHARAJ
प्रभु प्रेमी आत्माए प्रथम बार निम्न सृष्टी की रचना को पढेगे तो ऐसे लगेगा जैसे दन्त कथा हो, परन्तु सर्व पवित्र सद्ग्रन्थों के प्रमाणों को पढ़कर दाँतों तले ऊँगली दबाएँगे कि यह वास्तविक अमृत ज्ञान कहाँ छुपा था? कृप्या धैर्य के साथ पढ़ते रहिए तथा इस अमृत ज्ञान को सुरक्षित रखिए। आप की एक सौ एक पीढ़ी तक काम आएगा।
पवित्रात्माएँ कृप्या सत्यनारायण(अविनाशी प्रभु/सतपुरुष) द्वारा रची सृष्टी रचना का वास्तविक ज्ञान पढ़े।
1. पूर्ण ब्रह्म :- इस सृष्टी रचना में सतपुरुष-सतलोक का स्वामी (प्रभु), अलख पुरुष अलख लोक का स्वामी (प्रभु), अगम पुरुष-अगम लोक का स्वामी (प्रभु) तथा अनामी पुरुष- अनामी अकह लोक का स्वामी (प्रभु) तो एक ही पूर्ण ब्रह्म है, जो वास्तव में अविनाशी प्रभु है जो भिन्न-२ रूप धारणकरके अपने चारों लोकों में रहता
है। जिसके अन्तर्गत असंख्य ब्रह्माण्ड आते हैं।
2. परब्रह्म :- यह केवल सात संख ब्रह्माण्ड का स्वामी (प्रभु) है। यह अक्षर पुरुष भी कहलाता है। परन्तु यह तथा इसके ब्रह्माण्ड भी वास्तव में अविनाशी नहीं है।
3. ब्रह्म :- यह केवल इक्कीस ब्रह्माण्ड का स्वामी (प्रभु) है। इसे क्षर पुरुष,ज्योति निरंजन, काल आदि उपमा से जाना जाता है। यह तथा इसके सर्व ब्रह्माण्ड नाशवान हैं।
(उपरोक्त तीनों पुरूषों (प्रभुओं) का प्रमाण पवित्र श्री मद्भगवत गीता अध्याय
15 श्लोक 16-17 में भी है।)
4. ब्रह्मा:- ब्रह्म का ज्येष्ठ पुत्र है, विष्णु मध्य वाला पुत्र है तथा शिव ब्रह्म का अंतिम तीसरा पुत्र है। ये तीनों ब्रह्म के पुत्र केवल एक ब्रह्माण्ड में एक विभाग (गुण) के स्वामी (प्रभु) हैं तथा नाशवान हैं। विस्तृत विवरण के लिए कृप्या पढ़े निम्न लिखित सृष्टी रचना-
{कविर्देव (कबीर परमेश्वर) ने सुक्ष्म वेद अर्थात कबीर वाणी में अपने द्वारा रची सृष्टी का ज्ञान स्वयं ही बताया है जो निम्नलिखित है}
सर्व प्रथम केवल एक स्थान अनामी (अनामय) लोक' था। जिसे अकह लोक भी कहा जाता है, पूर्ण परमात्मा उस अनामी लोक में अकेला रहता था। उस परमात्मा का वास्तविक नाम कविर्देव अर्थात् कबीर परमेश्वर है। सभी आत्माएँ उस पूर्ण धनी के शरीर में समाई हुई थी। इसी कविर्देव का उपमात्मक (पदवी का) नाम अनामी पुरुष है (पुरुष का अर्थ प्रभु होता है। प्रभु ने मनुष्य को अपने ही स्वरूप में बनाया है, इसलिए मानव का नाम भी पुरुष ही पड़ा है।) अनामी पुरूष के एक रोम कूप का प्रकाश संख सूर्यों की रोशनी से भी अधिक है।
विशेष :- जैसे किसी देश के आदरणीय प्रधान मंत्री जी का शरीर का नाम तोअन्य होता है तथा पद का उपमात्मक (पदवी का) नाम प्रधानमंत्री होता है। कई बार प्रधानमंत्री जी अपने पास कई विभाग भी रख लेते हैं। तब जिस भी विभाग के दस्तावेजों पर हस्ताक्षर करते हैं तो उस समय उसी पद को लिखते हैं। जैसे गृह मंत्रालय के दस्तावेजों पर हस्ताक्षर करेगेंतो अपने को गृह मंत्री लिखेगें। वहाँ उसी व्यक्ति के हस्ताक्षर की शक्ति कम होती है। इसी प्रकार कबीर परमेश्वर (कविर्देव) की रोशनी में अंतर भिन्न-२ लोकों में होता जाता है।
ठीक इसी प्रकार पूर्ण परमात्मा कविर्देव (कबीर परमेश्वर) ने नीचे के तीन और लोकों (अगमलोक, अलख लोक, सतलोक) की रचना शब्द(वचन) से की।
यही पूर्णब्रह्म परमात्मा कविर्देव (कबीर परमेश्वर) ही अगम लोक में प्रकट हुआ तथा कविर्देव (कबीर परमेश्वर) अगम लोक का भी स्वामी है तथा वहाँ इनका उपमात्मक
(पदवी का) नाम अगम पुरुष अर्थात् अगम प्रभु है। इसी अगम प्रभु का मानव सदृश शरीर बहुत तेजोमय है जिसके एक रोम कूप की रोशनी खरब सूर्य की रोशनी से
भी अधिक है।
यह पूर्ण कविर्देव (कबिर देव=कबीर परमेश्वर) अलख लोक में प्रकट परमात्मा हुआ तथा स्वयं ही अलख लोक का भी स्वामी है तथा उपमात्मक (पदवी का) नाम अलख पुरुष भी इसी परमेश्वर का है तथा इस पूर्ण प्रभु का मानव सदृश शरीर तेजोमय (स्वज्योंति) स्वयं प्रकाशित है। एक रोम कूप की रोशनी अरब सूर्यों के प्रकाश से भी ज्यादा है। यही पूर्ण प्रभु सतलोक में प्रकट हुआ तथा सतलोक का भी अधिपति यही है। इसलिए इसी का उपमात्मक (पदवी का) नाम सतपुरुष (अविनाशी प्रभु)है। इसी
का नाम अकालमूर्ति - शब्द स्वरूपी राम - पूर्ण ब्रहम - परम अक्षर ब्रहम आदि हैं।
इसी सतपुरुष कविर्देव (कबीर प्रभु) का मानव सदृश शरीर तेजोमय है। जिसके एक रोमकूप का प्रकाश करोड़ सूयों तथा इतने ही चन्द्रमाओं के प्रकाश से भी अधिक है।
इस कविर्देव (कबीर प्रभु) ने सतपुरुष रूप में प्रकट होकर सतलोक में विराजमान होकर प्रथम सतलोक में अन्य रचना की।
एक शब्द (वचन) से सोलह द्वीपों की रचना की। फिर सोलह शब्दों से सोलह पुत्रों की उत्पत्ति की। एक मानसरोवर की रचना की जिसमें अमृत भरा।
सोलह पुत्रों
के नाम हैं :-
(1) “कूर्म',
(2)'ज्ञानी',
(3) 'विवेक',
(4) 'तेज',
(5) “सहज
(6) “सन्तोष',
(7)'सुरति”,
(8) “आनन्द',
(9) 'क्षमा',
(10) “निष्काम
(11) ‘जलरंगी'
(12)“अचिन्त',
(13) 'प्रेम',
(14) “दयाल',
(15) 'धैर्य'
(16) योग संतायन' अथति ''योगजीत
स��पुरुष कविर्देव ने अपने पुत्र अचिन्त को सतलोक की अन्य रचना का भार सौंपा तथा शक्ति प्रदान की। अचिन्त ने अक्षर पुरुष (परब्रह्म) की शब्द से उत्पत्ति की तथा कहा कि मेरी मदद करना। अक्षर पुरुष स्नान करने मानसरोवर पर गया वहाँ आनन्द आया तथा सो गया।
लम्बे समय तक बाहर नहीं आया। तब अचिन्त की प्रार्थना पर अक्षर पुरुष को नींद से जगाने के लिए कविर्देव (कबीर परमेश्वर) ने उसी मानसरोवर से कुछ अमृत जल लेकर एक अण्डा बनाया तथा उस अण्डे में एक आत्मा प्रवेश की तथा अण्डे को मानसरोवर के अमृत जल में छोड़ा। अण्डे
की गड़गड़ाहट से अक्षर पुरुष की निंद्रा भंग हुई। उसने अण्डे को क्रोध से देखा
जिस कारण से अण्डे के दो भाग हो गए। उसमें से ज्योति निंरजन (क्षर पुरुष)
निकला जो आगे चलकर ‘काल’ कहलाया। इसका वास्तविक नाम 'कैल' है।
तब सतपुरुष (कविर्देव) ने आकाशवाणी की कि आप दोनों बाहर आओ तथा अचिंत के द्वीप में रहो। आज्ञा पाकर अक्षर पुरुष तथा क्षर पुरुष (कैल) दोनों अचिंत के द्वीप
में रहने लगे (बच्चों की नालायकी उन्हीं को दिखाई कि कहीं फिर प्रभुता की तड़प न बन जाए, क्योंकि समर्थ बिन कार्य सफल नहीं होता) फिर पूर्ण धनी कविर्देव नेसर्व रचना स्वयं की। अपनी शब्द शक्ति से एक राजेश्वरी (राष्ट्री) शक्ति उत्पन्न की, जिससे सर्व ब्रह्माण्डों को स्थापित किया। इसी को पराशक्ति परानन्दनी भी कहते हैं। पूर्ण ब्रह्म ने सर्व आत्माओं को अपने ही अन्दर से अपनी वचन शक्ति से अपने मानव शरीर सदृश उत्पन्न किया। प्रत्येक हंस आत्मा का परमात्मा जैसा ही शरीर रचा जिसका तेज 16 (सोलह) सूर्या जैसा मानव सदृश ही है। परन्तु परमेश्वर के शरीर के एक रोम कूप का प्रकाश करोड़ों सूयों से भी ज्यादा है। बहुत समयउपरान्त क्षर पुरुष (ज्योति निरंजन) ने सोचा कि हम तीनों (अचिन्त - अक्षर पुरुष और क्षर पुरुष) एक द्वीप में रह रहे हैं तथा अन्य एक-एक द्वीप में रह रहे हैं। मैं भी साधना करके अलग द्वीप प्राप्त करूंगा। उसने ऐसा विचार करके एक पैर पर खड़ाहोकर सत्तर (70) युग तक तप किया।
आत्माएँ काल के जाल में कैसे फंसी
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विशेष :- जब ब्रह्म (ज्योति निरंजन) तप कर रहा था हम सभी आत्माएँ, जो आज ज्योति निरंजन के इक्कीस ब्रह्माण्डों में रहते हैं इसकी साधना पर आसक्त होगए तथा अन्तरात्मा से इसे चाहने लगे। अपने सुखदाई प्रभु सत्य पुरूष से विमुख हो गए। जिस कारण से पतिव्रता पद से गिर गए।
पूर्ण प्रभु के बार-बार सावधान करने पर भी हमारी आसक्ति क्षर पुरुष से नहीं हटी।{यही प्रभाव आज भी इस काल की स्रष्टी में विद्यमान है। जैसे नौजवान बच्चे फिल्म स्टारों(अभिनेताओं तथा अभिनेत्रियों) की बनावटी अदाओं तथा अपने रोजगार उद्देश्य से कर रहे भूमिका पर अति आसक्त
हो जाते हैं, रोकने से नहीं रूकते। यदि कोई अभिनेता या अभिनेत्री निकटवर्ती शहर
में आ जाए तो देखें उन नादान बच्चों की भीड़ केवल दर्शन करने के लिए बहु संख्या
में एकत्रित हो जाती हैं। 'लेना एक न देने दो' रोजी रोटी अभिनेता कमा रहे हैं, नौजवान
बच्चे लुट रहे हैं। माता-पिता कितना ही समझाएँ किन्तु बच्चे नहीं मानते। कहीं न कहीं कभी न कभी, लुक-छिप कर जाते ही रहते हैं।}
पूर्ण ब्रह्मा कविर्देव (कबीर प्रभु) ने क्षर पुरुष से पूछा कि बोलो क्या चाहते हो? उसने कहा कि पिता जी यह स्थान मेरे लिए कम है, मुझे अलग से द्वीप प्रदानकरने की कृपा करें। हक्का कबीर (सत्तू कबीर) ने उसे 21 (इक्कीस) ब्रह्मण्ड प्रदानकर दिए।
कुछ समय उपरान्त ज्योति निरंजन ने सोचा इस में कुछ रचना करनी चाहिए। खाली ब्रह्मण्ड(प्लाट) किस काम के। यह विचार कर 70 युग तप करके पूर्ण परमात्मा कविर्देव (कबीर प्रभु) से रचना सामग्री की याचना की। सतपुरुष ने उसे तीन गुण तथा पाँच तत्व प्रदान कर दिए, जिससे ब्रह्म (ज्योति निरंजन) ने अपने ब्रह्माण्डों में कुछ रचना की। फिर सोचा कि इसमें जीव भी होने चाहिए, अकेले का दिल नहीं लगता। यह विचार करके 64 (चौसठ) युग तक फिर तप किया। पूर्ण परमात्मा कविरदेव के पूछने पर बताया कि मुझे कुछ आत्मा दे दो, मेरा अकेले का दिल नहीं लग रहा। तब सतपुरुष कविरग्नि (कबीर परमेश्वर) ने कहा कि ब्रहम तेरे तप के प्रतिफल में मैं तुझे और ब्रह्मण्ड दे सकता हूँ, परन्तु मेरी आत्माओं को किसी भी जप-तप साधना के फल रूप में नहीं दे सकता। हाँ, यदि कोई स्वेच्छा से तेरे साथ जाना चाहे तो वह जा सकता है।
युवा कवि (समर्थ कबीर) के वचनसुन कर ज्योति निरंजन हमारे पास आया। हम सभी हंस आत्मा पहले से ही उसपर आसक्त थे। हम उसे चारों तरफ से घेर कर खड़े हो गए। ज्योति निंरजन ने कहा कि मैंने पिता जी से अलग 21 ब्रह्मण्ड प्राप्त किए हैं। वहाँ नाना प्रकार के रमणीय स्थल बनाए हैं। क्या आप मेरे साथ चलोगे? हम सभी हंसों ने जो आज21 ब्रह्यण्डों में परेशान हैं, कहा कि हम तैयार हैं। यदि पिता जी आज्ञा दें तब क्षरपुरुष पूर्ण ब्रह्म महान् कविर (समर्थ कबीर प्रभु) के पास गया तथा सर्व वात कही।
तब कविरग्नि (कबीर परमेश्वर) ने कहा कि मेरे सामने स्वीकृति देने वाले को आज्ञा
दूंगा। क्षर पुरुष तथा परम अक्षर पुरुष (कविरमितौजा) दोनों हम सभी हंसात्माओं
के पास आए। सत् कविर्देव ने कहा कि जो हंस आत्मा ब्रह्म के साथ जाना चाहता
है हाथ ऊपर करके स्वीकृति दे। अपने पिता के सामने किसी की हिम्मत नहीं हुई।किसी ने स्वीकृति नहीं दTI बहुत समय तक सन्नाटा छाया रहा। तत्पश्चात् एक हंस आत्मा ने साहस किया तथा कहा कि पिता जी मैं जाना चाहता हूँ। फिर तो उसकी देखा-देखी (जो आज काल (ब्रह्म) के इक्कीस ब्रह्मण्डों में फंसी हैं) हम सभी आत्माओं ने स्वीकति दे दी।
परमेश्वर कबीर जी ने ज्योति निरंजन से कहा कि आप अपने स्थान पर जाओ। जिन्होंने तेरे साथ जाने की स्वीकृति दी है। मैं उन सर्वहंस आत्माओं को आपके पास भेज दूंगा। ज्योति निरंजन अपने 21 ब्रह्मण्डों में चला गया। उस समय तक यह इक्कीस ब्रह्माण्ड सतलोक में ही थे। पूर्ण ब्रह्म ने सर्व प्रथम स्वीकृति देने वाले हंस को लड़की का रूपदिया परन्तु स्त्री इन्द्री नहीं रची तथा सर्व आत्माओं को (जिन्होंने ज्योति निरंजन (ब्रह्म) के साथ जाने की सहमति दी थी) उस लड़की के शरीर में प्रवेश कर दियातथा उसका नाम आष्ट्रा (आदि माया/ प्रकृति देवी/ दुर्गा) पड़ा तथा सत्य पुरूष ने कहा कि पुत्री मैंने तेरे को शब्द शक्ति प्रदान कर दी है जितने जीव ब्रह्म कहे आप उत्पन्न कर देना। पूर्ण ब्रह्म कविर्देव (कबीर साहेब) अपने पुत्र सहज दास के द्वारा प्रकृति को क्षर पुरुष के पास भिजवा दिया। सहज दास जी ने ज्योति निरंजन को बताया कि पिता जी ने इस बहन के शरीर में उन सर्व आत्माओं को प्रवेश कर दिया है जिन्होंने आपके साथ जाने की सहमति व्यक्त की थी तथा इसको पिता जी ने वचन शक्ति प्रदान की है, आप जितने जीव चाहोगे प्रकति अपने शब्द से उत्पन्न कर देगी। यह कह कर सहजदास वापिस अपने द्वीप में आ गया।
युवा होने के कारण लड़की का रंग-रूप निखरा हुआ था। ब्रह्म के अन्दर विषय-वासना उत्पन्न हो गई तथा प्रक्रति ( कालान्तर में दुर्गा देवी इसी का नाम पडा) देवी के साथ अभद्र गति विधि प्रारम्भ की। तब दुर्गा ने कहा कि ज्योति निरंजन मेरे पास पिता जी की प्रदान की हुई शब्द शक्ति है। आप जितने प्राणी कहोगे मैं वचन से उत्पन्न कर दूंगी। आप मैथुन परम्परा शुरु मत करो। आप भी उसी पिता के शब्द से अण्��े से उत्पन्न हुए हो तथा मैं भी उसी परमपिता के वचन से ही बाद में उत्पन्न हुई हूँ। आप मेरे बड़े भाई हो, बहन-भाई का यह योग महापाप का कारण बनेगा। परन्तु ज्योति निरंजन ने प्रकृति देवी की एक भी प्रार्थना नहीं सुनी तथा अपनी शब्द शक्ति द्वारा नाखुनों से स्त्री इन्द्री (भग) प्रकृति को लगा दी तथा बलात्कार करने की ठानी।
उसी समय दुर्गा ने अपनी इज्जत रक्षा के लिए कोई और ��ारा न देख सुक्ष्म रूप बनाया तथा ज्योति निरंजन के खुले मुख के द्वारा पेट में प्रवेश करके पूर्णब्रह्म कविरदेव से अपनी रक्षा के लिए याचना की। उसी समय कविर्देव (कवि देव) अपने पुत्र योग
संतायन अर्थात् जोगजीत का रूप बनाकर वहाँ प्रकट हुए तथा कन्या को ब्रह्म के उदर से बाहर निकाला तथा कहा कि ज्योति निरंजन आज से तेरा नाम 'काल' होगा। तेरे जन्म-मृत्यु होते रहेंगे। इसीलिए तेरा नाम क्षर पुरुष होगा तथा एक लाख मानव शरीर धारी प्राणियों को प्रतिदिन खाया करेगा व सवा लाख उत्पन्न किया करेगा। आप दोनों को इक्कीस ब्रह्माण्ड सहित निष्कासित किया जाता है।
इतना कहते ही इक्कीस ब्रह्माण्ड विमान की तरह चल पड़े। सहज दास के द्वीप के पास से होते हुए सतलोक से सोलह संख कोस (एक कोस लगभग 3 कि. मी. का होता है) की दूरी पर आकर रूक गए।
विशेष विवरण - अब तक तीन शक्तियों का विवरण आया है।
1. पूर्णब्रह्म - जिससे अन्य उपमात्मक नामों से भी जाना जाता है, जैसे सतपुरुष अकालपुरुष, शब्द स्वरूपी राम, परम अक्षर ब्रह्म/पुरुष आदि। यह पूर्णब्रह्म असंख्यब्रह्मण्डों का स्वामी है तथा वास्तव में अविनाशी है।
2. परब्रह्म - जिसे अक्षर पुरुष भी कहा जाता है। यह वास्तव में अविनाशी नहीं है। यह सात शंख ब्रह्माण्डों का स्वामी है।
3. ब्रह्म - जिसे ज्योति निरंजन, काल, कैल, क्षर पुरुष तथा धर्मराय आदि नामों
से जाना जाता है, जो केवल इक्कीस ब्रह्माण्ड का स्वामी है। अब आगे इसी ब्रह्मा
(काल) की सृष्टी के एक ब्रह्माण्ड का परिचय दिया जाएगा, जिसमें तीन और नाम आपके पढ़ने में आयेंगे - ब्रह्मा, विष्णु तथा शिव।
ब्रह्म तथा ब्रह्मा में भेद - एक ब्रह्माण्ड में बने सर्वोपरि स्थान पर ब्रहम (क्षर पुरुष) स्वयं तीन गुप्त स्थानों की रचना करके ब्रह्मा, विष्णु तथा शिव रूप में रहता है तथा अपनी पत्नी प्रकृति (दुर्गा) के सहयोग से तीन पुत्रों की उत्पत्ति करता है। उनके नाम भी ब्रह्मा, विष्णु तथा शिव ही रखता है।
जो ब्रह्म का पुत्र ब्रह्मा है वह एक ब्रह्माण्ड में केवल तीन लोकों (पृथ्वी लोक, स्वर्ग लोक तथा पाताल लोक) में एक रजोगुण विभाग का मंत्री (स्वामी) है। इसे त्रिलोकीय ब्रह्मा कहा है तथा ब्रह्म जो ब्रह्मलोक में ब्रह्म रूप में रहता है उसे महाब्रह्मा व ब्रह्मलोकीय ब्रह्मा कहा है।
इसी ब्रह्म (काल) को सदाशिव, महाशिव, महाविष्णु भी कहा है.
श्री विष्णु पुराण में प्रमाण :- चतुर्थ अंश अध्याय 1 पृष्ठ 230-231 पर श्री ब्रह्माजी ने कहा :- जिस अजन्मा, सर्वमय विधाता परमेश्वर का आदि, मध्य, अन्त,स्वरूप, स्वभाव और सार हम नहीं जान पाते (श्लोक 83)
जो मेरा रूप धारण कर संसार की रचना करता है, स्थिति के समय जो पुरूष रूप है तथा जो रूद्र रूप से विश्व का ग्रास कर जाता है, अनन्त रूप से सम्पूर्ण जगत् को धारण करता है। (श्लोक 86 )
"श्री ब्रह्मा जी, श्री विष्णु जी व श्री शिव जी की उत्पत्ति ”
==============================
काल (ब्रह्म) ने प्रकृति (दुर्गा) से कहा कि अब मेरा कौन क्या बिगाडेगा? मनमानी करूंगा प्रक्रति ने फिर प्रार्थना की कि आप कुछ तो शर्म करो । प्रथम तो आप मेरे बड़े भाई हो, क्योंकि उसी पूर्ण परमात्मा (कविर्देव) की वचन शक्ति से आप की (ब्रह्म की) अण्डे से उत्पत्ति हुई तथा बाद में मेरी उत्पत्ति उसी परमेश्वर के वचन से हुई है। दूसरे मैं आपके पेट से बाहर निकली हूँ, मैं आपकी बेटी हुई तथा आप मेरे पिता हुए। इन पवित्र नातों में बिगाड़ करना महापाप होगा। मेरे पास पिता की प्रदान की हुई शब्द शक्ति है, जितने प्राणी आप कहोगे मैं वचन से उत्पन्न कर दूंगी।
ज्योति निरंजन ने दुर्गा की एक भी विनय नहीं सुनी तथा कहा कि मुझे जो सजा मिलनी थी मिल गई, मुझे सतलोक से निष्कासित कर दिया। अब मनमानी करूंगा। यह कह कर काल पुरूष (क्षर पुरूष) ने प्रकृति के साथ जबरदस्ती शादी
की तथा तीन पुत्रों (रजगुण युक्त - ब्रह्मा जी, सतगुण युक्त - विष्णु जी तथा तमगुण युक्त - शिव शंकर जी) की उत्पत्ति की.
जवान होने तक तीनों पुत्रों को दुर्गा के द्वारा अचेत करवा देता है, फिर युवा होने पर श्री ब्रह्मा जी को कमल के फूल पर, श्री विष्णु जी को शेष नाग की शैय्या पर तथा श्री शिव जी को कैलाश पर्वत पर सचेत करके इक्ट्ठे कर देता है। तत्पश्चात् प्रकृति (दुर्गा) द्वारा इन तीनों का विवाह कर दिया जाता है तथा एक ब्रह्माण्ड में तीन लोकों (स्वर्ग लोक, पृथ्वी लोक तथा पाताल लोक) में एक-एक विभाग के मंत्री (प्रभु) नियुक्त कर देता है।
जैसे श्री ब्रह्मा जी को रजोगुण विभाग का तथा विष्णु जी को सत्तोगुण विभाग का
तथा श्री शिव शंकर जी को तमोगुण विभाग का तथा स्वयं गुप्त (महाब्रह्मा
महाविष्णु - महाशिव) रूप से मुख्य मंत्री पद को संभालता है।
एक ब्रह्माण्ड में एक ब्रह्मलोक की रचना की है। उसी में तीन गुप्त स्थान बनाए हैं। एक रजोगुण प्रधान स्थान है जहाँ पर यह ब्रह्म (काल) स्वयं महाब्रह्मा (मुख्यमंत्री) रूप में रहता है तथा अपनी पत्नी दुर्गा को महासावित्री रूप में रखता है। इन दोनों के संयोग से जो पुत्र इस स्थान पर उत्पन्न होता है वह स्वत: ही रजोगुणी बन जाता है। दूसरा स्थान सतोगुण प्रधान स्थान बनाया है। वहाँ पर यह क्षर पुरुष स्वयं महाविष्णु रूप बना कर रहता है तथा अपनी पत्नी दुर्गा को महालक्ष्मी रूप में रख कर जो पुत्र उत्पन्न करता है उसका नाम विष्णु रखता है, वह बालक सतोगुण युक्त होता है तथा
तीसरा इसी काल ने वहीं पर एक तमोगुण प्रधान क्षेत्र बनाया है। उसमें यह स्वयं
सदाशिव रूप बनाकर रहता है तथा अपनी पत्नी दुर्गा को महापार्वती रूप में रखता
है। इन दोनों के पति-पत्नी व्यवहार से जो पुत्र उत्पन्न होता है उसका नाम शिव रख देते हैं तथा तमोगुण युक्त कर देते हैं।
(प्रमाण के लिए देखें पवित्र श्री शिव
महापुराण, विद्यवेश्वर संहिता पृष्ठ 24-26 जिस में ब्रहमा, विष्णु, रूद्र तथा महेश्वर
से अन्य सदाशिव है तथा रूद्र संहिता अध्याय 6 तथा 7, 9 पृष्ठ नं. 100 से, 105
तथा 110 पर अनुवाद कर्ता श्री हनुमान प्रसाद पोद्दार, गीता प्रैस गोरख पुर से
प्रकाशित तथा पवित्र श्रीमद्देवीमहापुराण तीसरा स्कद पृष्ठ नं. 14 से 123 तक,गीता प्रेस गोरखपुर से प्रकाशित, जिसके अनुवाद कर्ता हैं श्री हनुमान प्रसाद पोद्दार
चिमन लाल गोस्वामी)
फिर इन्हीं को धोखे में रख कर अपने खाने के लिए जीवों की उत्पत्ति श्री ब्रहमा जी द्वारा तथा स्थिति (एक-दूसरे को मोह-ममता में रख कर काल जाल में रखना) श्री विष्णु जी से तथा संहार (क्योंकि काल पुरुष को शापवश एक लाख मानव शरीर धारी प्राणियों के सूक्ष्म शरीर से मैल निकाल कर खानाहोता है उसके लिए इक्कीसवें ब्रह्माण्ड में एक तप्तशिला है जो स्वत: गर्मी रहती है, उस पर गर्म करके मैल पिंघला कर खाता है, जीव मरते नह��ं परन्तु कष्ट असहनीय होता है, फिर प्राणियों को कर्म आधार पर अन्य शरीर प्रदान करता है) श्री शिवजी द्वारा करवाता है। जैसे किसी मकान में तीन कमरे बने हों। एक कमरे में अश्लील चित्र लगे हों। उस कमरे में जाते ही मन में वैसे ही मलिन विचार उत्पन्न हो जाते हैं। दूसरे कमरे में साधु-सन्तों, भक्तों के चित्र लगे हों तो मन में अच्छे विचार, प्रभु का चिन्तन ही बना रहता है। तीसरे कमरे में देश भक्तों व शहीदों के चित्र लगे हों तो मन में वैरसे ही जोशीले विचार उत्पन्न हो जाते हैं। ठीक इसी प्रकार ब्रह्म (काल) ने अपनी सूझ-बूझ से उपरोक्त तीनों गुण प्रधान स्थानों की रचना की हुई है।
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jyotishwithakshayg · 5 months
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आज दिनांक - 19 जनवरी 2024 का वैदिक हिन्दू पंचांग
दिन - शुक्रवार
विक्रम संवत् - 2080
अयन - उत्तरायण
ऋतु - शिशिर
मास - पौष
पक्ष - शुक्ल
तिथि - नवमी रात्रि 07:51 तक तत्पश्चात दशमी
नक्षत्र - भरणी मध्य रात्रि 02:50 तक तत्पश्चात कृतिका
योग - साध्य दोपहर 12:46 तक तत्पश्चात शुभ
राहु काल - सुबह 11:28 से 12:50 तक
सूर्योदय - 07:23
सूर्यास्त - 06:18
दिशा शूल - पश्चिम
ब्राह्ममुहूर्त - प्रातः 05:38 से 06:30 तक
निशिता मुहूर्त - रात्रि 12:24 से 01:16 तक
व्रत पर्व विवरण -
विशेष - नवमी को लौकी खाना त्याज्य है । (ब्रह्मवैवर्त पुराण, ब्रह्म खंडः 27.29-34)
कठोर या चंचल स्वभाव बदलने की कुंजी
स्वभाव कठोर है तो कमल का ध्यान करें, स्वभाव कोमल हो जायेगा । चंचल स्वभाव है तो ऐसा चिंतन करें कि “मैं शांत आत्मा हूँ, चिद्घन आत्मा हूँ, चैतन्य आत्मा हूँ... चंचलता मन में है, उसको जाननेवाला, चल मन को जाननेवाला अचल मेरा आत्मा-परमात्मा है । ॐ ॐ ॐ....” थोड़े दिन में स्वभाव ठीक हो जायेगा ।
मनुष्य कितना भी पतित हो वह महान बन सकता है
‘ॐऽऽऽ...’ उच्चारण किया और जितनी देर उच्चारण किया उतनी देर शांत हो जाय, ध्यान में डूबता जाय । अगर ऐसा १०-१५ मिनट सुबह-शाम करे, गुरुगीता का पाठ करे, युवाधन-सुरक्षा के नियमों पर अमल करे और भगवान् को, सदगुरु को एकटक देखे, उनसे बातें करे, प्रेरणा ले फिर अंतर में डुबकी मारे तो कितना भी पतित, कैसा भी गिरा हुआ व्यक्ति हो, उसका पतन बंद होने लगेगा, मन पवित्र होने लगेगा । वह मंगल के रास्ते चल पड़ेगा ।
लक्ष्मीप्राप्ति व घर में सुख-शांति हेतु
तुलसी-गमले की प्रतिदिन एक प्रदक्षिणा करने से लक्ष्मीप्राप्ति में सहायता मिलती है ।
तुलसी के थोड़े पत्ते पानी में डाल के उसे सामने रखकर भगवद्गीता का पाठ करे । फिर घर के सभी लोग मिल के भगवन्नाम - कीर्तन करके हास्य - प्रयोग करे और वह पवित्र जल सब लोग ग्रहण करे । यह प्रयोग करने से घर के झगड़े मिटते है, शराबी की शराब छुटती है और घर में सुख शांति का वास होता है ।
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singhmanojdasworld · 1 year
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🍃 *ज्ञान गंगा* 🍃
*(Part - 15)*
*विष्णु का अपने पिता की प्राप्ति के लिए प्रस्थान व माता का आशीर्वाद पाना*
📜इसके बाद विष्णु से प्रकृति ने कहा कि पुत्र तू भी अपने पिता का पता लगा ले। तब विष्णु अपने पिता जी काल (ब्रह्म) का पता करते-करते पाताल लोक में चले गए, जहाँ शेषनाग था। उसने विष्णु को अपनी सीमा में प्रविष्ट होते देख ��र क्रोधित हो कर जहर भरा फुंकारा मारा। उसके विष के प्रभाव से विष्णु जी का रंग सांवला हो गया, जैसे स्प्रे पेंट हो जाता है। तब विष्णु ने चाहा कि इस नाग को मजा चखाना चाहिए। तब ज्योति निरंजन (काल) ने देखा कि अब विष्णु को शांत करना चाहिए। तब आकाशवाणी हुई कि विष्णु अब तू अपनी माता जी के पास जा और सत्य-सत्य सारा विवरण बता देना तथा जो कष्ट आपको शेषनाग से हुआ है, इसका प्रतिशोध द्वापर युग में लेना। द्वापर युग में आप (विष्णु) तो कृष्ण अवतार धारण करोगे और कालीदह में कालिन्द्री नामक नाग, शेष नाग का अवतार होगा।
ऊँच होई के नीच सतावै, ताकर ओएल (बदला) मोही सों पावै।
जो जीव देई पीर पुनी काँहु, हम पुनि ओएल दिवावें ताहूँ।।
तब विष्णु जी माता जी के पास आए तथा सत्य-सत्य कह दिया कि मुझे पिता के दर्शन नहीं हुए। इस बात से माता (प्रकृति) बहुत प्रसन्न हुई और कहा कि पुत्र तू सत्यवादी है। अब मैं अपनी शक्ति से पिता से मिलाती हूँ तथा तेरे मन का संशय खत्म करती हूँ।
कबीर, देख पुत्र तोहि पिता भीटाऊँ, तौरे मन का धोखा मिटाऊँ। मन स्वरूप कर्ता कह जानों, मन ते दूजा और न मानो। स्वर्ग पाताल दौर मन केरा, मन अस्थीर मन अहै अनेरा। निंरकार मन ही को कहिए, मन की आस निश दिन रहिए। देख हूँ पलटि सुन्य मह ज्योति, जहाँ पर झिलमिल झालर होती।।
इस प्रकार माता (अष्टंगी, प्रकृति) ने विष्णु से कहा कि मन ही जग का कर्ता है, यही ज्योति निरंजन है। ध्यान में जो एक हजार ज्योतियाँ नजर आती हैं वही उसका रूप है। जो शंख, घण्टा आदि का बाजा सुना, यह महास्वर्ग में निरंजन का ही बज रहा है। तब माता (अष्टंगी, प्रकृति) ने कहा कि हे पुत्र तुम सब देवों के सरताज हो और तेरी हर कामना व कार्य मैं पूर्ण करूंगी। तेरी पूजा सर्व जग में होगी। आपने मुझे सच-सच बताया है। काल के इक्कीस ब्रह्माण्ड़ों के प्राणियों की विशेष आदत है कि अपनी व्यर्थ महिमा बनाता है। जैसे दुर्गा जी श्री विष्णु जी को कह रही है कि तेरी पूजा जग में होगी। मैंने तुझे तेरे पिता के दर्शन करा दिए। दुर्गा ने केवल प्रकाश दिखा कर श्री विष्णु जी को बहका दिया। श्री विष्णु जी भी प्रभु की यही स्थिति अपने अनुयाइयों को समझाने लगे कि परमात्मा का केवल प्रकाश दिखाई देता है। परमात्मा निराकार है। इसके बाद आदि भवानी रूद्र(महेश जी) के पास गई तथा कहा कि महेश तू भी कर ले अपने पिता की खोज तेरे दोनों भाइयों को तो तुम्हारे पिता के दर्शन नहीं हुए उनको जो देना था वह प्रदान कर दिया है अब आप माँगो जो माँगना है। तब महेश ने कहा कि हे जननी ! मेरे दोनों बड़े भाईयों को पिता के दर्शन नहीं हुए फिर प्रयत्न करना व्यर्थ है। कृपा मुझे ऐसा वर दो कि मैं अमर (मृत्युंजय) हो जाऊँ। तब माता ने कहा कि यह मैं नहीं कर सकती। हाँ युक्ति बता सकती हूँ, जिससे तेरी आयु सबसे लम्बी बनी रहेगी। विधि योग समाधि है (इसलिए महादेव जी ज्यादातर समाधि में ही रहते हैं)। इस प्रकार माता (अष्टंगी, प्रकृति) ने तीनों पुत्रों को विभाग बांट दिए: --
भगवान ब्रह्मा जी को काल लोक में लख चौरासी के चोले (शरीर) रचने (बनाने) का अर्थात् रजोगुण प्रभावित करके संतान उत्पत्ति के लिए विवश करके जीव उत्पत्ति कराने का विभाग प्रदान किया। भगवान विष्णु जी को इन जीवों के पालन पोषण (कर्मानुसार) करने, तथा मोह-ममता उत्पन्न करके स्थिति बनाए रखने का विभाग दिया। भगवान शिव शंकर (महादेव) को संहार करने का विभाग प्रदान किया क्योंकि इनके पिता निरंजन को एक लाख मानव शरीर धारी जीव प्रतिदिन खाने पड़ते हैं।
यहां पर मन में एक प्रश्न उत्पन्न होगा कि ब्रह्मा, विष्णु तथा शंकर जी से उत्पत्ति, स्थिति और संहार कैसे होता है। ये तीनों अपने-2 लोक में रहते हैं। जैसे आजकल संचार प्रणाली को चलाने के लिए उपग्रहों को ऊपर आसमान में छोड़ा जाता है और वे नीचे पृथ्वी पर संचार प्रणाली को चलाते हैं। ठीक इसी प्रकार ये तीनों देव जहां भी रहते हैं इनके शरीर से निकलने वाले सूक्ष्म गुण की तरंगें तीनों लोकों में अपने आप हर प्राणी पर प्रभाव बनाए रहती है।
उपरोक्त विवरण एक ब्रह्माण्ड में ब्रह्म (काल) की रचना का है। ऐसे-ऐसे क्षर पुरुष (काल) के इक्कीस ब्रह्माण्ड हैं।
परन्तु क्षर पुरूष (काल) स्वयं व्यक्त अर्थात् वास्तविक शरीर रूप में सबके सामने नहीं आता। उसी को प्राप्त करने के लिए तीनों देवों (ब्रह्मा जी, विष्णु जी, शिव जी) को वेदों में वर्णित विधि अनुसार भरसक साधना करने पर भी ब्रह्म (काल) के दर्शन नहीं हुए। बाद में ऋषियों ने वेदों को पढ़ा। उसमें लिखा है कि ‘अग्नेः तनूर् असि‘ (पवित्र यजुर्वेद अ. 1 मंत्र 15) परमेश्वर सशरीर है तथा पवित्र यजुर्वेद अध्याय 5 मंत्र 1 में लिखा है कि ‘अग्नेः तनूर् असि विष्णवे त्वा सोमस्य तनूर् असि‘।
इस मंत्र में दो बार वेद गवाही दे रहा है कि सर्वव्यापक, सर्वपालन कर्ता सतपुरुष सशरीर है। पवित्र यजुर्वेद अध्याय 40 मंत्र 8 में कहा है कि (कविर् मनिषी) जिस परमेश्वर की सर्व प्राणियों को चाह है, वह कविर् अर्थात् कबीर है। उसका शरीर बिना नाड़ी (अस्नाविरम्) का है, (शुक्रम्) वीर्य से बनी पाँच तत्व से बनी भौतिक (अकायम्) काया रहित है। वह सर्व का मालिक सर्वोपरि सत्यलोक में विराजमान है, उस परमेश्वर का तेजपुंज का (स्वज्र्योति) स्वयं प्रकाशित शरीर है जो शब्द रूप अर्थात् अविनाशी है। वही कविर्देव (कबीर परमेश्वर) है जो सर्व ब्रह्माण्डों की रचना करने वाला (व्यदधाता) सर्व ब्रह्माण्डों का रचनहार (स्वयम्भूः) स्वयं प्रकट होने वाला (यथा तथ्य अर्थान्) वास्तव में (शाश्वत्) अविनाशी है (गीता अध्याय 15 श्लोक 17 में भी प्रमाण है।) भावार्थ है कि पूर्ण ब्रह्म का शरीर का नाम कबीर (कविर देव) है। उस परमेश्वर का शरीर नूर तत्व से बना है। परमात्मा का शरीर अति सूक्ष्म है जो उस साधक को दिखाई देता है जिसकी दिव्य दृष्टि खुल चुकी है। इस प्रकार जीव का भी सुक्ष्म शरीर है जिसके ऊपर पाँच तत्व का खोल (कवर) अर्थात् पाँच तत्व की काया चढ़ी होती है जो माता-पिता के संयोग से (शुक्रम) वीर्य से बनी है। शरीर त्यागने के पश्चात् भी जीव का सुक्ष्म शरीर साथ रहता है। वह शरीर उसी साधक को दिखाई देता है जिसकी दिव्य दृष्टि खुल चुकी है। इस प्रकार परमात्मा व जीव की स्थिति को समझें। वेदों में ओ3म् नाम के स्मरण का प्रमाण है जो केवल ब्रह्म साधना है। इस उद्देश्य से ओ3म् नाम के जाप को पूर्ण ब्रह्म का मान कर ऋषियों ने भी हजारों वर्ष हठयोग (समाधि लगा कर) करके प्रभु प्राप्ति की चेष्टा की, परन्तु प्रभु दर्शन नहीं हुए, सिद्धियाँ प्राप्त हो गई। उन्हीं सिद्धी रूपी खिलौनों से खेल कर ऋषि भी जन्म-मृत्यु के चक्र में ही रह गए तथा अपने अनुभव के शास्त्रों में परमात्मा को निराकार लिख दिया। ब्रह्म (काल) ने कसम खाई है कि मैं अपने वास्तविक रूप में किसी को दर्शन नहीं दूँगा। मुझे अव्यक्त जाना करेंगे (अव्यक्त का भावार्थ है कि कोई आकार में है परन्तु व्यक्तिगत रूप से स्थूल रूप में दर्शन नहीं देता। जैसे आकाश में बादल छा जाने पर दिन के समय सूर्य अदृश हो जाता है। वह दृश्यमान नहीं है, परन्तु वास्तव में बादलों के पार ज्यों का त्यों है, इस अवस्था को अव्यक्त कहते हैं।)। (प्रमाण के लिए गीता अध्याय 7 श्लोक 24-25, अध्याय 11 श्लोक 48 तथा 32)
पवित्र गीता जी बोलने वाला ब्रह्म (काल) श्री कृष्ण जी के शरीर में प्रेतवत प्रवेश करके कह रहा है कि अर्जुन मैं बढ़ा हुआ काल हूँ और सर्व को खाने के लिए आया हूँ। (गीता अध्याय 11 का श्लोक नं. 32) यह मेरा वास्तविक रूप है, इसको ���ेरे अतिरिक्त न तो कोई पहले देख सका तथा न कोई आगे देख सकता है अर्थात् वेदों में वर्णित यज्ञ-जप-तप तथा ओ3म् नाम आदि की विधि से मेरे इस वास्तविक स्वरूप के दर्शन नहीं हो सकते। (गीता अध्याय 11 श्लोक नं 48) मैं कृष्ण नहीं हूँ, ये मूर्ख लोग कृष्ण रूप में मुझ अव्यक्त को व्यक्त (मनुष्य रूप) मान रहे हैं। क्योंकि ये मेरे घटिया नियम से अपरिचित हैं कि मैं कभी वास्तविक इस काल रूप में सबके सामने नहीं आता। अपनी योग माया से छुपा रहता हूँ (गीता अध्याय 7 श्लोक नं 24-25)
विचार करें:- अपने छुपे रहने वाले विधान को स्वयं अश्रेष्ठ (अनुत्तम) क्यों कह रहे हैं?
यदि पिता अपनी सन्तान को भी दर्शन नहीं देता तो उसमें कोई त्रुटि है जिस कारण से छुपा है तथा सुविधाएं भी प्रदान कर रहा है। काल (ब्रह्म) को शापवश एक लाख मानव शरीर धारी प्राणियों का आहार करना पड़ता है तथा 25 प्रतिशत प्रतिदिन जो ज्यादा उत्पन्न होते हैं उन्हें ठिकाने लगाने के लिए तथा कर्म भोग का दण्ड देने के लिए चौरासी लाख योनियों की रचना की हुई है। यदि सबके सामने बैठकर किसी की पुत्री, किसी की पत्नी, किसी के पुत्र, माता-पिता को खा गए तो सर्व को ब्रह्म से घृणा हो जाए तथा जब भी कभी पूर्ण परमात्मा कविरग्नि (कबीर परमेश्वर) स्वयं आए या अपना कोई संदेशवाहक (दूत) भेंजे तो सर्व प्राणी सत्यभक्ति करके काल के जाल से निकल जाएं।
इसलिए धोखा देकर रखता है तथा पवित्र गीता अध्याय 7 श्लोक 18, 24, 25 में अपनी साधना से होने वाली मुक्ति (गति) को भी (अनुत्तमाम्) अति अश्रेष्ठ कहा है तथा अपने विधान (नियम)को भी (अनुत्तम) अश्रेष्ठ कहा है।
प्रत्येक ब्रह्माण्ड में बने ब्रह्मलोक में एक महास्वर्ग बनाया है। महास्वर्ग में एक स्थान पर नकली सतलोक - नकली अलख लोक - नकली अगम लोक तथा नकली अनामी लोक की रचना प्राणियों को धोखा देने के लिए प्रकृति (दुर्गा/आदि माया) द्वारा करवा रखी है। कबीर साहेब का एक शब्द है ‘कर नैनों दीदार महल में प्यारा है‘ में वाणी है कि ‘काया भेद किया निरवारा, यह सब रचना पिण्ड मंझारा है। माया अविगत जाल पसारा, सो कारीगर भारा है। आदि माया किन्ही चतुराई, झूठी बाजी पिण्ड दिखाई, अविगत रचना रचि अण्ड माहि वाका प्रतिबिम्ब डारा है।‘
एक ब्रह्माण्ड में अन्य लोकों की भी रचना है, जैसे श्री ब्रह्मा जी का लोक, श्री विष्णु जी का लोक, श्री शिव जी का लोक। जहाँ पर बैठकर तीनों प्रभु नीचे के तीन लोकों (स्वर्गलोक अर्थात् इन्द्र का लोक - पृथ्वी लोक तथा पाताल लोक) पर एक- एक विभाग के मालिक बन कर प्रभुता करते हैं तथा अपने पिता काल के खाने के लिए प्राणियों की उत्पत्ति, स्थिति तथा संहार का कार्यभार संभालते हैं। तीनों प्रभुओं की भी जन्म व मृत्यु होती है। तब काल इन्हें भी खाता है। इसी ब्रह्माण्ड {इसे अण्ड भी कहते हैं क्योंकि ब्रह्माण्ड की बनावट अण्डाकार है, इसे पिण्ड भी कहते हैं क्योंकि शरीर (पिण्ड) में एक ब्रह्माण्ड की रचना कमलों में टी.वी. की तरह देखी जाती है} में एक मानसरोवर तथा धर्मराय (न्यायधीश) का भी लोक है तथा एक गुप्त स्थान पर पूर्ण परमात्मा अन्य रूप धारण करके रहता है जैसे प्रत्येक देश का राजदूत भवन होता है। वहाँ पर कोई नहीं जा सकता। वहाँ पर वे आत्माऐं रहती हैं जिनकी सत्यलोक की भक्ति अधूरी रहती है। जब भक्ति युग आता है तो उस समय परमेश्वर कबीर जी अपना प्रतिनिधी पूर्ण संत सतगुरु भेजते हैं। इन पुण्यात्माओं को पृथ्वी पर उस समय मानव शरीर प्राप्त होता है तथा ये शीघ्र ही सत भक्ति पर लग जाते हैं तथा सतगुरु से दीक्षा प्राप्त करके पूर्ण मोक्ष प्राप्त कर जाते हैं। उस स्थान पर रहने वाले हंस आत्माओं की निजी भक्ति कमाई खर्च नहीं होती। परमात्मा के भण्डार से सर्व सुविधाऐं उपलब्ध होती हैं। ब्रह्म (काल) के उपासकों की भक्ति कमाई स्वर्ग-महा स्वर्ग में समाप्त हो जाती है क्योंकि इस काल लोक (ब्रह्म लोक) तथा परब्रह्म लोक में प्राणियों को अपना किया कर्मफल ही मिलता है।
क्षर पुरुष (ब्रह्म) ने अपने 20 ब्रह्माण्डों को चार महाब्रह्माण्डों में विभाजित किया है। एक महाब्रह्माण्ड में पाँच ब्रह्माण्डों का समूह बनाया है तथा चारों ओर से अण्डाकार गोलाई (परिधि) में रोका है तथा चारों महाब्रह्माण्डों को भी फिर अण्डाकार गोलाई (परिधि) में रोका है। इक्कीसवें ब्रह्माण्ड की रचना एक महाब्रह्माण्ड जितना स्थान लेकर की है। इक्कीसवें ब्रह्माण्ड में प्रवेश होते ही तीन रास्ते बनाए हैं। इक्कीसवें ब्रह्माण्ड में भी बांई तरफ नकली सतलोक, नकली अलख लोक, नकली अगम लोक, नकली अनामी लोक की रचना प्राणियों को धोखे में रखने के लिए आदि माया (दुर्गा) से करवाई है तथा दांई तरफ बारह सर्व श्रेष्ठ ब्रह्म साधकों (भक्तों) को रखता है। फिर प्रत्येक युग में उन्हें अपने संदेश वाहक (सन्त सतगुरू) बनाकर पृथ्वी पर भेजता है, जो शास्त्रा विधि रहित साधना व ज्ञान बताते हैं तथा स्वयं भी भक्तिहीन हो जाते हैं तथा अनुयाइयों को भी काल जाल में फंसा जाते हैं। फिर वे गुरु जी तथा अनुयाई दोनों ही नरक में जाते हैं। फिर सामने एक ताला (कुलुफ) लगा रखा है। वह रास्ता काल (ब्रह्म) के निज लोक में जाता है। जहाँ पर यह ब्रह्म (काल) अपने वास्तविक मानव सदृश काल रूप में रहता है। इसी स्थान पर एक पत्थर की टुकड़ी तवे के आकार की (चपाती पकाने की लोहे की गोल प्लेट सी होती है) स्वतः गर्म रहती है। जिस पर एक लाख मानव शरीर धारी प्राणियों के सूक्ष्म शरीर को भूनकर उनमें से गंदगी निकाल कर खाता है। उस समय सर्व प्राणी बहुत पीड़ा अनुभव करते हैं तथा हाहाकार मच जाती है। फिर कुछ समय उपरान्त वे बेहोश हो जाते हैं। जीव मरता नहीं। फिर धर्मराय के लोक में जाकर कर्माधार से अन्य जन्म प्राप्त करते हैं तथा जन्म-मृत्यु का चक्कर बना रहता है। उपरोक्त सामने लगा ताला ब्रह्म (काल) केवल अपने आहार वाले प्राणियों के लिए कुछ क्षण के लिए खोलता है। पूर्ण परमात्मा के सत्यनाम व सारनाम से यह ताला स्वयं खुल जाता है। ऐसे काल का जाल पूर्ण परमात्मा कविर्देव (कबीर साहेब) ने स्वयं ही अपने निजी भक्त धर्मदास जी को समझाया।
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आध्यात्मिक जानकारी के लिए आप संत रामपाल जी महाराज जी के मंगलमय प्रवचन सुनिए Sant Rampal Ji Maharaj YOUTUBE चैनल पर प्रतिदिन 7:30-8.30 बजे।
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sujit-kumar · 1 year
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कबीर बड़ा या कृष्ण Part 110
संक्षिप्त सृष्टि रचना
सृष्टि रचना
(सूक्ष्मवेद से निष्कर्ष रूप सृष्टि रचना का वर्णन)
प्रभु प्रेमी आत्माऐं प्रथम बार निम्न सृष्टि रचना को पढ़ेंगे तो ऐसे लगेगा जैसे दन्त कथा हो, परंतु सर्व पवित्र सद्ग्रन्थों के प्रमाणों को पढ़कर दाँतों तले ऊंगली दबाऐंगे कि यह वास्तविक अमृत ज्ञान कहाँ छुपा था? कृप्या धैर्य के साथ पढ़ें तथा इस अमृत ज्ञान को सुरक्षित रखें। आपकी एक सौ एक पीढ़ी तक काम आएगा। पवित्रात्माऐं कृप्या सत्यनारायण (अविनाशी प्रभु/सतपुरूष) द्वारा रची सृष्टि रचना का वास्तविक ज्ञान पढ़ें।
पूर्ण ब्रह्म:- इस सृष्टि रचना में सतपुरुष-सतलोक का स्वामी (प्रभु), अलख पुरुष-अलख लोक का स्वामी (प्रभु), अगम पुरुष-अगम लोक का स्वामी (प्रभु) तथा अनामी पुरुष-अनामी अकह लोक का स्वामी (प्रभु) तो एक ही पूर्ण ब्रह्म है, जो वास्तव में अविनाशी प्रभु है जो भिन्न-2 रूप धारण करके अपने चारों लोकों में रहता है। जिसके अन्तर्गत असंख्य ब्रह्माण्ड आते हैं।
परब्रह्म:- यह केवल सात संख ब्रह्माण्ड का स्वामी (प्रभु) है। यह अक्षर पुरुष भी कहलाता है। परन्तु यह तथा इसके ब्रह्माण्ड भी वास्तव में अविनाशी नहीं है।
ब्रह्म:- यह केवल इक्कीस ब्रह्माण्ड का स्वामी (प्रभु) है। इसे क्षर पुरुष, ज्योति निरंजन, काल आदि उपमा से जाना जाता है। यह तथा इसके सर्व ब्रह्माण्ड नाशवान हैं। (उपरोक्त तीनों पुरूषों (प्रभुओं) का प्रमाण पवित्र श्री मद्भगवत गीता अध्याय 15 श्लोक 16-17 में भी है।)
ब्रह्मा:- ब्रह्मा इसी ब्रह्म का ज्येष्ठ पुत्र है, विष्णु मध्य वाला पुत्र है तथा शिव अंतिम तीसरा पुत्र है। ये तीनों ब्रह्म के पुत्र केवल एक ब्रह्माण्ड में एक विभाग (गुण) के स्वामी (प्रभु) हैं तथा नाशवान हैं। विस्तृत विवरण के लिए कृप्या पढ़ें निम्न लिखित सृष्टि रचना:-
{कविर्देव (कबीर परमेश्वर) ने सुक्ष्म वेद अर्थात् कबिर्बाणी में अपने द्वारा रची सृष्टि का ज्ञान स्वयं ही बताया है जो निम्नलिखित है}
सर्व प्रथम केवल एक स्थान ‘अनामी (अनामय) लोक‘ था। जिसे अकह लोक भी कहा जाता है, पूर्ण परमात्मा उस अनामी लोक में अकेला रहता था। उस परमात्मा का वास्तविक नाम कविर्देव अर्थात् कबीर परमेश्वर है। सभी आत्माऐं उस पूर्ण धनी के शरीर में समाई हुई थी। इसी कविर्देव का उपमात्मक (पदवी का) नाम अनामी पुरुष है। (पुरुष का अर्थ प्रभु होता है। प्रभु ने मनुष्य को अपने ही स्वरूप में बनाया है, इसलिए मानव का नाम भी पुरुष ही पड़ा है।) अनामी पुरूष के एक रोम (शरीर के बाल) का प्रकाश संख सूर्यों की रोशनी से भी अधिक है।
विशेष:- जैसे किसी देश के आदरणीय प्रधान मंत्री जी का शरीर का नाम तो अन्य होता है तथा पद का उपमात्मक (पदवी का) नाम प्रधानमंत्री होता है। कई बार प्रधानमंत्री जी अपने पास कई विभाग भी रख लेते हैं। तब जिस भी विभाग के दस्त्तावेजों पर हस्त्ताक्षर करते हैं तो उस समय उसी पद को लिखते हैं। जैसे गृह मंत्रालय के दस्तावेजों पर हस्ताक्षर करेगें तो अपने को गृह मंत्री लिखेगें। वहाँ उसी व्यक्ति के हस्त्ताक्षर की शक्ति कम होती है। इसी प्रकार कबीर परमेश्वर (कविर्देव) की रोशनी में अंतर भिन्न-2 लोकों में होता जाता है।
ठीक इसी प्रकार पूर्ण परमात्मा कविर्देव (कबीर परमेश्वर) ने नीचे के तीन और लोकों (अगमलोक, अलख लोक, सतलोक) की रचना शब्द(वचन) से की। यही पूर्णब्रह्म परमात्मा कविर्देव (कबीर परमेश्वर) ही अगम लोक में प्रकट हुआ तथा कविर्देव (कबीर परमेश्वर) अगम लोक का भी स्वामी है तथा वहाँ इनका उपमात्मक (पदवी का) नाम अगम पुरुष अर्थात् अगम प्रभु है। इसी अगम प्रभु का मानव सदृश शरीर बहुत तेजोमय है जिसके एक रोम (शरीर के बाल) की रोशनी खरब सूर्य की रोशनी से भी अधिक है।
यह पूर्ण परमात्मा कविर्देव (कबिर देव=कबीर परमेश्वर) अलख लोक में प्रकट हुआ तथा स्वयं ही अलख लोक का भी स्वामी है तथा उपमात्मक (पदवी का) नाम अलख पुरुष भी इसी परमेश्वर का है तथा इस पूर्ण प्रभु का मानव सदृश शरीर तेजोमय (स्वज्र्योति) स्वयं प्रकाशित है। एक रोम (शरीर के बाल) की रोशनी अरब सूर्यों के प्रकाश से भी ज्यादा है।
यही पूर्ण प्रभु सतलोक में प्रकट हुआ तथा सतलोक का भी अधिपति यही है। इसलिए इसी का उपमात्मक (पदवी का) नाम सतपुरुष (अविनाशी प्रभु)है। इसी का नाम अकालमूर्ति - शब्द स्वरूपी राम - पूर्ण ब्रह्म - परम अक्षर ब्रह्म आदि हैं। इसी सतपुरुष कविर्देव (कबीर प्रभु) का मानव सदृश शरीर तेजोमय है। जिसके एक रोम (शरीर के बाल) का प्रकाश करोड़ सूर्यों तथा इतने ही चन्द्रमाओं के प्रकाश से भी अधिक है।
इस कविर्देव (कबीर प्रभु) ने सतपुरुष रूप में प्रकट होकर सतलोक में विराजमान होकर प्रथम सतलोक में अन्य रचना की।
एक शब्द (वचन) से सोलह द्वीपों की रचना की। फिर सोलह शब्दों से सोलह पुत्रों की उत्पत्ति की। एक मानसरोवर की रचना की जिसमें अमृत भरा। सोलह पुत्रों के नाम हैं:-(1) ‘‘कूर्म’’, (2)‘‘ज्ञानी’’, (3) ‘‘विवेक’’, (4) ‘‘तेज’’, (5) ‘‘सहज’’, (6) ‘‘सन्तोष’’, (7)‘‘सुरति’’, (8) ‘‘आनन्द’’, (9) ‘‘क्षमा’’, (10) ‘‘निष्काम’’, (11) ‘जलरंगी‘ (12)‘‘अचिन्त’’, (13) ‘‘पे्रम’’, (14) ‘‘दयाल’’, (15) ‘‘धैर्य’’ (16) ‘‘योग संतायन’’ अर्थात् ‘‘योगजीत‘‘।
सतपुरुष कविर्देव ने अपने पुत्र अचिन्त को सत्यलोक की अन्य रचना का भार सौंपा तथा शक्ति प्रदान की। अचिन्त ने अक्षर पुरुष (परब्रह्म) की शब्द से उत्पत्ति की तथा कहा कि मेरी मदद करना। अक्षर पुरुष स्नान करने मानसरोवर पर गया, वहाँ आनन्द आया तथा सो गया। लम्बे समय तक बाहर नहीं आया। तब अचिन्त की प्रार्थना पर अक्षर पुरुष को नींद से जगाने के लिए कविर्देव (कबीर परमेश्वर) ने उसी मानसरोवर से कुछ अमृत जल लेकर एक अण्डा बनाया तथा उस अण्डे में एक आत्मा प्रवेश की तथा अण्डे को मानसरोवर के अमृत जल में छोड़ा। अण्डे की गड़गड़ाहट से अक्षर पुरुष की निंद्रा भंग हुई। उसने अण्डे को क्रोध से देखा जिस कारण से अण्डे के दो भाग हो गए। उसमें से ज्योति निंरजन (क्षर पुरुष) निकला जो आगे चलकर ‘काल‘ कहलाया। इसका वास्तविक नाम ‘‘कैल‘‘ है। तब सतपुरुष (कविर्देव) ने आकाशवाणी की कि आप दोनों बाहर आओ तथा अचिंत के द्वीप में रहो। आज्ञा पाकर अक्षर पुरुष तथा क्षर पुरुष (कैल) दोनों अचिंत के द्वीप में रहने लगे (बच्चों की नालायकी उन्हीं को दिखाई कि कहीं फिर प्रभुता की तड़फ न बन जाए, क्योंकि समर्थ बिन कार्य सफल नहीं होता) फिर पूर्ण धनी कविर्देव ने सर्व रचना स्वयं की। अपनी शब्द शक्ति से एक राजेश्वरी (राष्ट्री) शक्ति उत्पन्न की, जिससे सर्व ब्रह्माण्डों को स्थापित किया। इसी को पराशक्ति परानन्दनी भी कहते हैं। पूर्ण ब्रह्म ने सर्व आत्माओं को अपने ही अन्दर से अपनी वचन शक्ति से अपने मानव शरीर सदृश उत्पन्न किया। प्रत्येक हंस आत्मा का परमात्मा जैसा ही शरीर रचा जिसका तेज 16 (सोलह) सूर्यों जैसा मानव सदृश ही है। परन्तु परमेश्वर के शरीर के एक रोम (शरीर के बाल) का प्रकाश करोड़ों सूर्यों से भी ज्यादा है। बहुत समय उपरान्त क्षर पुरुष (ज्योति निरंजन) ने सोचा कि हम तीनों (अचिन्त अक्षर पुरुष - क्षर पुरुष) एक द्वीप में रह रहे हैं तथा अन्य एक-एक द्वीप में रह रहे हैं। मैं भी साधना करके अलग द्वीप प्राप्त करूँगा। उसने ऐसा विचार करके एक पै��� पर खड़ा होकर सत्तर (70) युग तक तप किया।
फिर सतपुरुष जी ने पूछा कि अब क्या चाहता है? क्षर पुरुष ने कहा कि सृष्टि रचना की सामग्री देने की कृपा करें। सतपुरुष जी ने उसको पाँच तत्व (जल, पृथ्वी, अग्नि, वायु तथा आकाश) तथा तीन गुण (रजगुण, सतगुण तथा तमगुण) दे दिये तथा कहा कि इनसे अपनी रचना कर।
क्षर पुरूष ने तीसरी बार फिर तप प्रारम्भ किया। जब 64 (चैंसठ) युग तप करते हो गए तो सत्य पुरूष जी ने पूछा कि आप और क्या चाहते हैं? क्षर पुरूष (ज्योति निरंजन) ने कहा कि मुझे कुछ आत्मा दे दो। मेरा अकेले का दिल नहीं लग रहा। क्षर पुरूष को आत्मा ऐसे मिली, आगे पढ़ेंः-
‘‘हम काल के लोक में कैसे आए ?’’
जिस समय क्षर पुरुष (ज्योति निरंजन) एक पैर पर खड़ा होकर तप कर रहा था। तब हम सभी आत्माऐं इस क्षर पुरुष पर आकर्षित हो गए। जैसे जवान बच्चे अभिनेता व अभिनेत्री पर आसक्त हो जाते हैं। लेना एक न देने दो। व्यर्थ में चाहने लग जाते हैं। वे अपनी कमाई करने के लिए नाचते-कूदते हैं। युवा-बच्चे उन्हें देखकर अपना धन नष्ट करते हैं। ठीक इसी प्रकार हम अपने परमपिता सतपुरुष को छोड़कर काल पुरुष (क्षर पुरुष) को हृदय से चाहने लग गए थे। जो परमेश्वर हमें सर्व सुख सुविधा दे रहा था। उससे मुँह मोड़कर इस नकली ड्रामा करने वाले काल ब्रह्म को चाहने लगे। सत पुरुष जी ने बीच-बीच में बहुत बार आकाशवाणी की कि बच्चो तुम इस काल की क्रिया को मत देखो, मस्त रहो। हम ऊपर से तो सावधान हो गए, परन्तु अन्दर से चाहते रहे। परमेश्वर तो अन्तर्यामी है। इन्होंने जान लिया कि ये यहाँ रखने के योग्य नहीं रहे। काल पुरुष (क्षर पुरुष = ज्योति निरंजन) ने जब दो बार तप करके फल प्राप्त कर लिया तब उसने सोचा कि अब कुछ जीवात्मा भी मेरे साथ रहनी चाहिए। मेरा अकेले का दिल नहीं लगेगा। इसलिए जीवात्मा प्राप्ति के लिए तप करना शुरु किया। 64 युग तक तप करने के पश्चात् परमेश्वर जी ने पूछा कि ज्योति निरंजन अब किसलिए तप कर रहा है? क्षर पुरुष ने कहा कि कुछ आत्माएं प्रदान करो, मेरा अकेले का दिल नहीं लगता। सतपुरुष ने कहा कि तेरे तप के बदले में और ब्रह्माण्ड दे सकता हूं, परन्तु अपनी आत्माएं नहीं दूँगा। ये मेरे शरीर से उत्पन्न हुई हैं। हाँ, यदि वे स्वयं जाना चाहते हैं तो वह जा सकते हैं। युवा कविर् (समर्थ कबीर) के वचन सुनकर ज्योति निरंजन हमारे पास आया। हम सभी हंस आत्मा पहले से ही उस पर आसक्त थे। हम उसे चारों तरफ से घेरकर खड़े हो गए। ज्योति निरंजन ने कहा कि मैंने पिता जी से अलग 21 ब्रह्माण्ड प्राप्त किए हैं। वहाँ नाना प्रकार के रमणीय स्थल बनाए हैं। क्या आप मेरे साथ चलोगे? हम सभी हंसों ने जो आज 21 ब्रह्माण्डों में परेशान हैं, कहा कि हम तैयार हैं। यदि पिता जी आज्ञा दें, तब क्षर पुरूष(काल), पूर्ण ब्रह्म महान् कविर् (समर्थ कबीर प्रभु) के पास गया तथा सर्व वार्ता कही। तब कविरग्नि (कबीर परमेश्वर) ने कहा कि मेरे सामने स्वीकृति देने वाले को आज्ञा दूँगा। क्षर पुरूष तथा परम अक्षर पुरूष (कविर्िमतौजा) दोनों हम सभी हंसात्माओं के पास आए। सत् कविर्देव ने कहा कि जो हंसात्मा ब्रह्म के साथ जाना चाहता हैं, हाथ ऊपर करके स्वीकृति दें। अपने पिता के सामने किसी की हिम्मत नहीं हुई। किसी ने स्वीकृति नहीं दी। बहुत समय तक सन्नाटा छाया रहा। तत्पश्चात् एक हंस आत्मा ने साहस किया तथा कहा कि पिता जी मैं जाना चाहता हूँ। फिर तो उसकी देखा-देखी (जो आज काल(ब्रह्म) के इक्कीस ब्रह्माण्डों में फँसी हैं) हम सभी आत्माओं ने स्वीकृति दे दी। परमेश्वर कबीर जी ने ज्योति निरंजन से कहा कि आप अपने स्थान पर जाओ। जिन्होंने तेरे साथ जाने की स्वीकृति दी है, मैं उन सर्व हंस आत्माओं को आपके पास भेज दूँगा। ज्योति निरंजन अपने 21 ब्रह्माण्डों में चला गया। उस समय तक यह इक्कीस ब्रह्माण्ड सतलोक में ही थे।
तत्पश्चात् पूर्ण ब्रह्म ने सर्व प्रथम स्वीकृति देने वाले हंस को लड़की का रूप दिया परन्तु स्त्राी इन्द्री नहीं रची तथा सर्व आत्माओं को (जिन्होंने ज्योति निरंजन (ब्रह्म) के साथ जाने की सहमति दी थी) उस लड़की के शरीर में प्रवेश कर दिया तथा उसका नाम आष्ट्रा (आदि माया/प्रकृति देवी/दुर्गा) पड़ा तथा सत्यपुरूष ने कहा कि पुत्री मैंने तेरे को शब्द शक्ति प्रदान कर दी है। जितने जीव ब्रह्म कहे आप उत्पन्न कर देना। पूर्ण ब्रह्म कर्विदेव (कबीर साहेब) ने अपने पुत्र सहज दास के द्वारा प्रकृति को क्षर पुरूष के पास भिजवा दिया। सहज दास जी ने ज्योति निरंजन को बताया कि पिता जी ने इस बहन के शरीर में उन सब आत्माओं को प्रवेश कर दिया है, जिन्होंने आपके साथ जाने की सहमति व्यक्त की थी। इसको वचन शक्ति प्रदान की है, आप जितने जीव चाहोगे प्रकृति अपने शब्द से उत्पन्न कर देगी। यह कहकर सहजदास वापिस अपने द्वीप में आ गया। युवा होने के कारण लड़की का रंग-रूप निखरा हुआ था। ब्रह्म के अन्दर विषय-वासना उत्पन्न हो गई तथा प्रकृति देवी के साथ अभद्र गतिविधि प्रारम्भ की। तब दुर्गा ने कहा कि ज्योति निरंजन मेरे पास पिता जी की प्रदान की हुई शब्द शक्ति है। आप जितने प्राणी कहोगे मैं वचन से उत्पन्न कर दूँगी। आप मैथुन परम्परा शुरू मत करो। आप भी उसी पिता के शब्द से अण्डे से उत्पन्न हुए हो तथा मैं भी उसी परमपिता के वचन से ही बाद में उत्पन्न हुई हूँ। आप मेरे बड़े भाई हो, बहन-भाई का यह योग महापाप का कारण बनेगा। परन्तु ज्योति निरंजन ने प्रकृति देवी की एक भी प्रार्थना नहीं सुनी तथा अपनी शब्द शक्ति द्वारा नाखुनों से स्त्राी इन्द्री (भग) प्रकृति को लगा दी तथा बलात्कार करने की ठानी। उसी समय दुर्गा ने अपनी इज्जत रक्षा के लिए कोई और चारा न देखकर सूक्ष्म रूप बनाया तथा ज्योति निरंजन के खुले मुख के द्वारा पेट में प्रवेश करके पूर्ण ब्रह्म कविर् देव से अपनी रक्षा के लिए याचना की। उसी समय कर्विदेव(कविर् देव) अपने पुत्र योग संतायन अर्थात् जोगजीत का रूप बनाकर वहाँ प्रकट हुए तथा कन्या को ब्रह्म के उदर से बाहर निकाला तथा कहा ज्योति निरंजन आज से तेरा नाम ‘काल‘ होगा। तेरे जन्म-मृत्यु होते रहेंगे। इसीलिए तेरा नाम क्षर पुरूष होगा तथा एक लाख मानव शरीर धारी प्रणियों को प्रतिदिन खाया करेगा व सवा लाख उत्पन्न किया करेगा। आप दोनों को इक्कीस ब्रह्माण्ड सहित निष्कासित किया जाता है। इतना कहते ही इक्कीस ब्रह्माण्ड विमान की तरह चल पड़े। सहज दास के द्वीप के पास से होते हुए सतलोक से सोलह शंख कोस (एक कोस लगभग 3 कि.मी. का होता है) की दूरी पर आकर रूक गए। विशेष विवरण:- अब तक तीन शक्तियों का विवरण आया है।
पूर्णब्रह्म जिसे अन्य उपमात्मक नामों से भी जाना जाता है, जैसे सतपुरूष, अकालपुरूष, शब्द स्वरूपी राम, परम अक्षर ब्रह्म/पुरूष आदि। यह पूर्णब्रह्म असंख्य ब्रह्माण्डों का स्वामी है तथा वास्तव में अविनाशी है।
परब्रह्म जिसे अक्षर पुरूष भी कहा जाता है। यह वास्तव में अविनाशी नहीं है। यह सात शंख ब्रह्माण्डों का स्वामी है।
ब्रह्म जिसे ज्योति निरंजन, काल, कैल, क्षर पुरूष तथा धर्मराय आदि नामों से जाना जाता है जो केवल इक्कीस ब्रह्माण्ड का स्वामी है। अब आगे इसी ब्रह्म (काल) की सृष्टि के एक ब्रह्माण्ड का परिचय दिया जाएगा जिसमें तीन और नाम आपके पढ़ने में आयेंगेः- ब्रह्मा, विष्णु तथा शिव। ब्रह्म तथा ब्रह्मा में भेद - एक ब्रह्माण्ड में बने सर्वोपरि स्थान पर ब्रह्म (क्षर पुरूष) स्वयं तीन गुप्त स्थानों की रचना करके ब्रह्मा, विष्णु तथा शिव रूप में रहता है तथा अपनी पत्नी प्रकृति (दुर्गा) के सहयोग से तीन पुत्रों की उत्पत्ति करता है। उनके नाम भी ब्रह्मा, विष्णु तथा शिव ही रखता है। जो ब्रह्म का पुत्र ब्रह्मा है, वह एक ब्रह्माण्ड में केवल तीन लोकों (पृथ्वी लोक, स्वर्ग लोक तथा पाताल लोक) में एक रजोगुण विभाग का मंत्री (स्वामी) है। इसे त्रिलोकिय ब्रह्मा कहा है तथा ब्रह्म जो ब्रह्मलोक में ब्रह्मा रूप में रहता है, उसे महाब्रह्मा व ब्रह्मलोकिय ब्रह्मा कहा है। इसी ब्रह्म (काल) को सदाशिव, महाशिव, महाविष्णु भी कहा है।
श्री विष्णु पुराण में प्रमाण:- चतुर्थ अंश अध्याय 1 पृष्ठ 230-231 पर श्री ब्रह्मा जी ने कहाः- जिस अजन्मा सर्वमय विधाता परमेश्वर का आदि, मध्य, अन्त, स्वरूप, स्वभाव और सार हम नहीं जान पाते। (श्लोक 83)
जो मेरा रूप धारण कर संसार की रचना करता है, स्थिति के समय जो पुरूष रूप है तथा जो रूद्र रूप से विश्व का ग्रास कर जाता है, अनन्त रूप से सम्पूर्ण जगत् को धारण करता है।(श्लोक 86)
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#गहरीनजरगीता_में_Part_44 के आगे पढिए.....)
📖📖📖
#गहरीनजरगीता_में_Part_45
हम पढ़ रहे है "पुस्तक गहरी नज़र गीता में"..........
(87-88)
”आदरणीय नानक साहेब जी की वाणी में सृष्टि रचना का संकेत“
श्री नानक साहेब जी की अमृतवाणी, महला 1, राग बिलावलु, अंश 1 (गु.ग्र. पृ. 839)
आपे सचु कीआ कर जोडि अंडज फोडि जोडि विछोड़।।
धरती आकाश कीए बैसण कउ थाउ। राति दिनंतु कीए भउ-भाउ।।
जिन कीए करि वेखणहारा। (3)
त्रितीआ ब्रह्मा-बिसनु-महेसा। देवी देव उपाए वेसा।। (4)
पउण पाणी अगनी बिसराउ। ताही निरंजन साचो नाउ।।
तिसु महि मनुआ रहिआ लिव लाई। प्रणवति नानकु कालु न खाई।। (10)
उपरोक्त अमृतवाणी का भावार्थ है कि सच्चे परमात्मा (सतपुरुष) ने स्वयं ही अपने हाथों से सर्व सृष्टि की रचना की है। उसी ने अण्डा बनाया फिर फोड़ा तथा उसमें से ज्योति निरंजन निकला। उसी पूर्ण परमात्मा ने सर्व प्राणियों के रहने के लिए धरती, आकाश, पवन, पानी आदि पाँच तत्व रचे। अपने द्वारा रची सृष्टि का स्वयं ही साक्षी है। दूसरा कोई सही जानकारी नहीं दे सकता। फिर अण्डे के फूटने से निकले निरंजन के बाद तीनों श्री ब्रह्मा जी, श्री विष्णु जी तथा श्री शिव जी की उत्पत्ति हुई तथा अन्य देवी-देवता उत्पन्न हुए तथा अनगिन जीवों की उत्पत्ति हुई। उसके बाद अन्य देवों के जीवन चरित्र तथा अन्य ऋषियों के अनुभव के छः शास्त्र
तथा अठारह पुराण बन गए। पूर्ण परमात्मा के सच्चे नाम (सत्यनाम) की साधना अनन्य मन से करने से तथा गुरु मर्यादा में रहने वाले (प्रणवति) को श्री नानक जी कह रहे हैं कि काल
नहीं खाता।
राग मारु (अंश) अमृतवाणी महला 1 (गु.ग्र.पृ. 1037)
सुनहु ब्रह्मा, बिसनु, महेसु उपाए। सुने वरते जुग सबाए।।
इसु पद बिचारे सो जनु पुरा। तिस मिलिए भरमु चुकाइदा।। (3)
साम वेदु, रुगु जुजरु अथरबणु। ब्रहमें मुख माइआ है त्रेगुण।।
ता की कीमत कहि न सकै। को तिउ बोले जिउ बुलाईदा।। (9)
उपरोक्त अमृतवाणी का सारांश है कि जो संत पूर्ण सृष्टि रचना सुना देगा तथा बताएगा कि अण्डे के दो भाग होकर कौन निकला, जिसने फिर ब्रह्म लोक की सुन्न में अर्थात् गुप्त स्थान पर ब्रह्मा-विष्णु-शिव जी की उत्पत्ति की तथा वह परमात्मा कौन है जिसने ब्रह्म (काल) के मुख से चारों वेदों (पवित्र ऋग्वेद, यजुर्वेद, सामवेद, अथर्ववेद) को उच्चारण करवाया, वह पूर्ण
परमात्मा जैसा चाहे वैसे ही प्रत्येक प्राणी को बुलवाता है। इस सर्व ज्ञान को पूर्ण बताने वाला सन्त मिल जाए तो उसके पास जाइए तथा जो सर्व शंकाओं का पूर्ण निवारण करता है, वही पूर्ण सन्त अर्थात् तत्वदर्शी है।
श्री गुरु ग्रन्थ साहेब पृष्ठ 929 अमृत वाणी श्री नानक साहेब जी की राग रामकली महला 1 दखणी ओअंकार
ओअंकारि ब्रह्मा उतपति। ओअंकारू कीआ जिनि चित। ओअंकारि सैल जुग भए। ओअंकारि बेद निरमए। ओअंकारि सबदि उधरे। ओअंकारि गुरुमुखि तरे। ओनम अखर सुणहू बीचारु। ओनम अखरु त्रिभवण
सारु।
उपरोक्त अमृतवाणी में श्री नानक साहेब जी कह रहे हैं कि ओंकार अर्थात् ज्योति निरंजन (काल) से ब्रह्मा जी की उत्पत्ति हुई। कई युगों मस्ती मार कर ओंकार (ब्रह्म) ने वेदों की उत्पत्ति की जो ब्रह्मा जी को प्राप्त हुए। तीन लोक की भक्ति का केवल एक ओउम् मं��्र ही वास्तव में जाप करने का है। इस ओउम् शब्द को पूरे संत से उपदेश लेकर मन्त्र जाप करने
से उद्धार होता है।
विशेष :- श्री नानक साहेब जी ने तीनों मंत्रों (ओउम् + तत् + सत्) का स्थान - स्थान पर रहस्यात्मक विवरण दिया है। उसको केवल पूर्ण संत (तत्वदर्शी संत) ही समझ सकता है तथा तीनों मंत्रों के जाप को उपदेशी को समझाया जाता है।
(पृ. 1038)
उत्तम सतिगुरु पुरुष निराले, सबदि रते हरि रस मतवाले।
रिधि, बुधि, सिधि, गिआन गुरु ते पाइए, पूरे भाग मिलाईदा।। (15)
सतिगुरु ते पाए बीचारा, सुन समाधि सचे घरबारा।
नानक निरमल नादु सबद धुनि, सचु रामैं नामि समाइदा (17)।।5।।17।।
उपरोक्त अमृतवाणी का भावार्थ है कि वास्तविक ज्ञान देने वाले सतगुरु तो निराले ही हैं, वे केवल नाम जाप को जपते हैं, अन्य हठयोग साधना नहीं बताते। यदि आप को धन दौलत, पद, बुद्धि या भक्ति शक्ति भी चाहिए तो वह भक्ति मार्ग का ज्ञान पूर्ण संत ही पूरा
प्रदान करेगा, ऐसा पूर्ण संत बडे़ भाग्य से ही मिलता है। वही पूर्ण संत विवरण बताएगा कि ऊपर सुन्न (आकाश) में अपना वास्तविक घर (सत्यलोक) परमेश्वर ने रच रखा है।
उसमें एक वास्तविक सार नाम की धुन (आवाज) हो रही है। उस आनन्द में अविनाशी परमेश्वर के सार शब्द से समाया जाता है अर्थात् उस वास्तविक सुखदाई स्थान में वास हो सकता है, अन्य नामों तथा अधूरे गुरुओं से नहीं हो सकता।
क्रमशः___________।
(अब आगे अलगे भाग में)
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kisturram · 5 days
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सृष्टी की रचना
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प्रभु प्रेमी आत्माएँ प्रथम बार निम्न सृष्टी की रचना को पढेगे तो ऐसे लगेगा जैसे दन्त कथा हो, पbरन्तु सर्व पवित्र सद्ग्रन्थों के प्रमाणों को पढ़कर दाँतों तले ऊँगली दबाएँगे कि यह वास्तविक अमृत ज्ञान कहाँ छुपा था? कृप्या धैर्य के साथ पढ़ते रहिए तथा इस अमृत ज्ञान को सुरक्षित रखिए। आप की एक सौ एक पीढ़ी तक काम आएगा।
पवित्रात्माएँ कृप्या सत्यनारायण(अविनाशी प्रभु/सतपुरुष) द्वारा रची सृष्टी रचना का वास्तविक ज्ञान पढ़े।
1. पूर्ण ब्रह्म :- इस सृष्टी रचना में सतपुरुष-सतलोक का स्वामी (प्रभु), अलख पुरुष अलख लोक का स्वामी (प्रभु), अगम पुरुष-अगम लोक का स्वामी (प्रभु) तथा अनामी पुरुष- अनामी अकह लोक का स्वामी (प्रभु) तो एक ही पूर्ण ब्रह्म है, जो वास्तव में अविनाशी प्रभु है जो भिन्न-२ रूप धारणकरके अपने चारों लोकों में रहता
है। जिसके अन्तर्गत असंख्य ब्रह्माण्ड आते हैं।
2. परब्रह्म :- यह केवल सात संख ब्रह्माण्ड का स्वामी (प्रभु) है। यह अक्षर पुरुष भी कहलाता है। परन्तु यह तथा इसके ब्रह्माण्ड भी वास्तव में अविनाशी नहीं है।
3. ब्रह्म :- यह केवल इक्कीस ब्रह्माण्ड का स्वामी (प्रभु) है। इसे क्षर पुरुष,ज्योति निरंजन, काल आदि उपमा से जाना जाता है। यह तथा इसके सर्व ब्रह्माण्ड नाशवान हैं।
(उपरोक्त तीनों पुरूषों (प्रभुओं) का प्रमाण पवित्र श्री मद्भगवत गीता अध्याय
15 श्लोक 16-17 में भी है।)
4. ब्रह्मा:- ब्रह्म का ज्येष्ठ पुत्र है, विष्णु मध्य वाला पुत्र है तथा शिव ब्रह्म का अंतिम तीसरा पुत्र है। ये तीनों ब्रह्म के पुत्र केवल एक ब्रह्माण्ड में एक विभाग (गुण) के स्वामी (प्रभु) हैं तथा नाशवान हैं। विस्तृत विवरण के लिए कृप्या पढ़े निम्न लिखित सृष्टी रचना-
{कविर्देव (कबीर परमेश्वर) ने सुक्ष्म वेद अर्��ात कबीर वाणी में अपने द्वारा रची सृष्टी का ज्ञान स्वयं ही बताया है जो निम्नलिखित है}
सर्व प्रथम केवल एक स्थान अनामी (अनामय) लोक' था। जिसे अकह लोक भी कहा जाता है, पूर्ण परमात्मा उस अनामी लोक में अकेला रहता था। उस परमात्मा का वास्तविक नाम कविर्देव अर्थात् कबीर परमेश्वर है। सभी आत्माएँ उस पूर्ण धनी के शरीर में समाई हुई थी। इसी कविर्देव का उपमात्मक (पदवी का) नाम अनामी पुरुष है (पुरुष का अर्थ प्रभु होता है। प्रभु ने मनुष्य को अपने ही स्वरूप में बनाया है, इसलिए मानव का नाम भी पुरुष ही पड़ा है।) अनामी पुरूष के एक रोम कूप का प्रकाश संख सूर्यों की रोशनी से भी अधिक है।
विशेष :- जैसे किसी देश के आदरणीय प्रधान मंत्री जी का शरीर का नाम तोअन्य होता है तथा पद का उपमात्मक (पदवी का) नाम प्रधानमंत्री होता है। कई बार प्रधानमंत्री जी अपने पास कई विभाग भी रख लेते हैं। तब जिस भी विभाग के दस्तावेजों पर हस्ताक्षर करते हैं तो उस समय उसी पद को लिखते हैं। जैसे गृह मंत्रालय के दस्तावेजों पर हस्ताक्षर करेगेंतो अपने को गृह मंत्री लिखेगें। वहाँ उसी व्यक्ति के हस्ताक्षर की शक्ति कम होती है। इसी प्रकार कबीर परमेश्वर (कविर्देव) की रोशनी में अंतर भिन्न-२ लोकों में होता जाता है।
ठीक इसी प्रकार पूर्ण परमात्मा कविर्देव (कबीर परमेश्वर) ने नीचे के तीन और लोकों (अगमलोक, अलख लोक, सतलोक) की रचना शब्द(वचन) से की।
यही पूर्णब्रह्म परमात्मा कविर्देव (कबीर परमेश्वर) ही अगम लोक में प्रकट हुआ तथा कविर्देव (कबीर परमेश्वर) अगम लोक का भी स्वामी है तथा वहाँ इनका उपमात्मक
(पदवी का) नाम अगम पुरुष अर्थात् अगम प्रभु है। इसी अगम प्रभु का मानव सदृश शरीर बहुत तेजोमय है जिसके एक रोम कूप की रोशनी खरब सूर्य की रोशनी से
भी अधिक है।
यह पूर्ण कविर्देव (कबिर देव=कबीर परमेश्वर) अलख लोक में प्रकट परमात्मा हुआ तथा स्वयं ही अलख लोक का भी स्वामी है तथा उपमात्मक (पदवी का) नाम अलख पुरुष भी इसी परमेश्वर का है तथा इस पूर्ण प्रभु का मानव सदृश शरीर तेजोमय (स्वज्योंति) स्वयं प्रकाशित है। एक रोम कूप की रोशनी अरब सूर्यों के प्रकाश से भी ज्यादा है। यही पूर्ण प्रभु सतलोक में प्रकट हुआ तथा सतलोक का भी अधिपति यही है। इसलिए इसी का उपमात्मक (पदवी का) नाम सतपुरुष (अविनाशी प्रभु)है। इसी
का नाम अकालमूर्ति - शब्द स्वरूपी राम - पूर्ण ब्रहम - परम अक्षर ब्रहम आदि हैं।
इसी सतपुरुष कविर्देव (कबीर प्रभु) का मानव सदृश शरीर तेजोमय है। जिसके एक रोमकूप का प्रकाश करोड़ सूयों तथा इतने ही चन्द्रमाओं के प्रकाश से भी अधिक है।
इस कविर्देव (कबीर प्रभु) ने सतपुरुष रूप में प्रकट होकर सतलोक में विराजमान होकर प्रथम सतलोक में अन्य रचना की।
एक शब्द (वचन) से सोलह द्वीपों की रचना की। फिर सोलह शब्दों से सोलह पुत्रों की उत्पत्ति की। एक मानसरोवर की रचना की जिसमें अमृत भरा।
सोलह पुत्रों
के नाम हैं :-
(1) “कूर्म',
(2)'ज्ञानी',
(3) 'विवेक',
(4) 'तेज',
(5) “सहज
(6) “सन्तोष',
(7)'सुरति”,
(8) “आनन्द',
(9) 'क्षमा',
(10) “निष्काम
(11) ‘जलरंगी'
(12)“अचिन्त',
(13) 'प्रेम',
(14) “दयाल',
(15) 'धैर्य'
(16) योग संतायन' अथति ''योगजीत
सतपुरुष कविर्देव ने अपने पुत्र अचिन्त को सतलोक की अन्य रचना का भार सौंपा तथा शक्ति प्रदान की। अचिन्त ने अक्षर पुरुष (परब्रह्म) की शब्द से उत्पत्ति की तथा कहा कि मेरी मदद करना। अक्षर पुरुष स्नान करने मानसरोवर पर गया वहाँ आनन्द आया तथा सो गया।
लम्बे समय तक बाहर नहीं आया। तब अचिन्त की प्रार्थना पर अक्षर पुरुष को नींद से जगाने के लिए कविर्देव (कबीर परमेश्वर) ने उसी मानसरोवर से कुछ अमृत जल लेकर एक अण्डा बनाया तथा उस अण्डे में एक आत्मा प्रवेश की तथा अण्डे को मानसरोवर के अमृत जल में छोड़ा। अण्डे
की गड़गड़ाहट से अक्षर पुरुष की निंद्रा भंग हुई। उसने अण्डे को क्रोध से देखा
जिस कारण से अण्डे के दो भाग हो गए। उसमें से ज्योति निंरजन (क्षर पुरुष)
निकला जो आगे चलकर ‘काल’ कहलाया। इसका वास्तविक नाम 'कैल' है।
तब सतपुरुष (कविर्देव) ने आकाशवाणी की कि आप दोनों बाहर आओ तथा अचिंत के द्वीप में रहो। आज्ञा पाकर अक्षर पुरुष तथा क्षर पुरुष (कैल) दोनों अचिंत के द्वीप
में रहने लगे (बच्चों की नालायकी उन्हीं को दिखाई कि कहीं फिर प्रभुता की तड़प न बन जाए, क्योंकि समर्थ बिन कार्य सफल नहीं होता) फिर पूर्ण धनी कविर्देव नेसर्व रचना स्वयं की। अपनी शब्द शक्ति से एक राजेश्वरी (राष्ट्री) शक्ति उत्पन्न की, जिससे सर्व ब्रह्माण्डों को स्थापित किया। इसी को पराशक्ति परानन्दनी भी कहते हैं। पूर्ण ब्रह्म ने सर्व आत्माओं को अपने ही अन्दर से अपनी वचन शक्ति से अपने मानव शरीर सदृश उत्पन्न किया। प्रत्येक हंस आत्मा का परमात्मा जैसा ही शरीर रचा जिसका तेज 16 (सोलह) सूर्या जैसा मानव सदृश ही है। परन्तु परमेश्वर के शरीर के एक रोम कूप का प्रकाश करोड़ों सूयों से भी ज्यादा है। बहुत समयउपरान्त क्षर पुरुष (ज्योति निरंजन) ने सोचा कि हम तीनों (अचिन्त - अक्षर पुरुष और क्षर पुरुष) एक द्वीप में रह रहे हैं तथा अन्य एक-एक द्वीप में रह रहे हैं। मैं भी साधना करके अलग द्वीप प्राप्त करूंगा। उसने ऐसा विचार करके एक पैर पर खड़ाहोकर सत्तर (70) युग तक तप किया।
आत्माएँ काल के जाल में कैसे फंसी
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विशेष :- जब ब्रह्म (ज्योति निरंजन) तप कर रहा था हम सभी आत्माएँ, जो आज ज्योति निरंजन के इक्कीस ब्रह्माण्डों में रहते हैं इसकी साधना पर आसक्त होगए तथा अन्तरात्मा से इसे चाहने लगे। अपने सुखदाई प्रभु सत्य पुरूष से विमुख हो गए। जिस कारण से पतिव्रता पद से गिर गए।
पूर्ण प्रभु के बार-बार सावधान करने पर भी हमारी आसक्ति क्षर पुरुष से नहीं हटी।{यही प्रभाव आज भी इस काल की स्रष्टी में विद्यमान है। जैसे नौजवान बच्चे फिल्म स्टारों(अभिनेताओं तथा अभिनेत्रियों) की बनावटी अदाओं तथा अपने रोजगार उद्देश्य से कर रहे भूमिका पर अति आसक्त
हो जाते हैं, रोकने से नहीं रूकते। यदि कोई अभिनेता या अभिनेत्री निकटवर्ती शहर
में आ जाए तो देखें उन नादान बच्चों की भीड़ केवल दर्शन करने के लिए बहु संख्या
में एकत्रित हो जाती हैं। 'लेना एक न देने दो' रोजी रोटी अभिनेता कमा रहे हैं, नौजवान
बच्चे लुट रहे हैं। माता-पिता कितना ही समझाएँ किन्तु बच्चे नहीं मानते। कहीं न कहीं कभी न कभी, लुक-छिप कर जाते ही रहते हैं।}
पूर्ण ब्रह्मा कविर्देव (कबीर प्रभु) ने क्षर पुरुष से पूछा कि बोलो क्या चाहते हो? उसने कहा कि पिता जी यह स्थान मेरे लिए कम है, मुझे अलग से द्वीप प्रदानकरने की कृपा करें। हक्का कबीर (सत्तू कबीर) ने उसे 21 (इक्कीस) ब्रह्मण्ड प्रदानकर दिए।
कुछ समय उपरान्त ज्योति निरंजन ने सोचा इस में कुछ रचना करनी चाहिए। खाली ब्रह्मण्ड(प्लाट) किस काम के। यह विचार कर 70 युग तप करके पूर्ण परमात्मा कविर्देव (कबीर प्रभु) से रचना सामग्री की याचना की। सतपुरुष ने उसे तीन गुण तथा पाँच तत्व प्रदान कर दिए, जिससे ब्रह्म (ज्योति निरंजन) ने अपने ब्रह्माण्डों में कुछ रचना की। फिर सोचा कि इसमें जीव भी होने चाहिए, अकेले का दिल नहीं लगता। यह विचार करके 64 (चौसठ) युग तक फिर तप किया। पूर्ण परमात्मा कविरदेव के पूछने पर बताया कि मुझे कुछ आत्मा दे दो, मेरा अकेले का दिल नहीं लग रहा। तब सतपुरुष कविरग्नि (कबीर परमेश्वर) ने कहा कि ब्रहम तेरे तप के प्रतिफल में मैं तुझे और ब्रह्मण्ड दे सकता हूँ, परन्तु मेरी आत्माओं को किसी भी जप-तप साधना के फल रूप में नहीं दे सकता। हाँ, यदि कोई स्वेच्छा से तेरे साथ जाना चाहे तो वह जा सकता है।
युवा कवि (समर्थ कबीर) के वचनसुन कर ज्योति निरंजन हमारे पास आया। हम सभी हंस आत्मा पहले से ही उसपर आसक्त थे। हम उसे चारों तरफ से घेर कर खड़े हो गए। ज्योति निंरजन ने कहा कि मैंने पिता जी से अलग 21 ब्रह्मण्ड प्राप्त किए हैं। वहाँ नाना प्रकार के रमणीय स्थल बनाए हैं। क्या आप मेरे साथ चलोगे? हम सभी हंसों ने जो आज21 ब्रह्यण्डों में परेशान हैं, कहा कि हम तैयार हैं। यदि पिता जी आज्ञा दें तब क्षरपुरुष पूर्ण ब्रह्म महान् कविर (समर्थ कबीर प्रभु) के पास गया तथा सर्व वात कही।
तब कविरग्नि (कबीर परमेश्वर) ने कहा कि मेरे सामने स्वीकृति देने वाले को आज्ञा
दूंगा। क्षर पुरुष तथा परम अक्षर पुरुष (कविरमितौजा) दोनों हम सभी हंसात्माओं
के पास आए। सत् कविर्देव ने कहा कि जो हंस आत्मा ब्रह्म के साथ जाना चाहता
है हाथ ऊपर करके स्वीकृति दे। अपने पिता के सामने किसी की हिम्मत नहीं हुई।किसी ने स्वीकृति नहीं दTI बहुत समय तक सन्नाटा छाया रहा। तत्पश्चात् एक हंस आत्मा ने साहस किया तथा कहा कि पिता जी मैं जाना चाहता हूँ। फिर तो उसकी देखा-देखी (जो आज काल (ब्रह्म) के इक्कीस ब्रह्मण्डों में फंसी हैं) हम सभी आत्माओं ने स्वीकति दे दी।
परमेश्वर कबीर जी ने ज्योति निरंजन से कहा कि आप अपने स्थान पर जाओ। जिन्होंने तेरे साथ जाने की स्वीकृति दी है। मैं उन सर्वहंस आत्माओं को आपके पास भेज दूंगा। ज्योति निरंजन अपने 21 ब्रह्मण्डों में चला गया। उस समय तक यह इक्कीस ब्रह्माण्ड सतलोक में ही थे। पूर्ण ब्रह्म ने सर्व प्रथम स्वीकृति देने वाले हंस को लड़की का रूपदिया परन्तु स्त्री इन्द्री नहीं रची तथा सर्व आत्माओं को (जिन्होंने ज्योति निरंजन (ब्रह्म) के साथ जाने की सहमति दी थी) उस लड़की के शरीर में प्रवेश कर दियातथा उसका नाम आष्ट्रा (आदि माया/ प्रकृति देवी/ दुर्गा) पड़ा तथा सत्य पुरूष ने कहा कि पुत्री मैंने तेरे को शब्द शक्ति प्रदान कर दी है जितने जीव ब्रह्म कहे आप उत्पन्न कर देना। पूर्ण ब्रह्म कविर्देव (कबीर साहेब) अपने पुत्र सहज दास के द्वारा प्रकृति को क्षर पुरुष के पास भिजवा दिया। सहज दास जी ने ज्योति निरंजन को बताया कि पिता जी ने इस बहन के शरीर में उन सर्व आत्माओं को प्रवेश कर दिया है जिन्होंने आपके साथ जाने की सहमति व्यक्त की थी तथा इसको पिता जी ने वचन शक्ति प्रदान की है, आप जितने जीव चाहोगे प्रकति अपने शब्द से उत्पन्न कर देगी। यह कह कर सहजदास वापिस अपने द्वीप में आ गया।
युवा होने के कारण लड़की का रंग-रूप निखरा हुआ था। ब्रह्म के अन्दर विषय-वासना उत्पन्न हो गई तथा प्रक्रति ( कालान्तर में दुर्गा देवी इसी का नाम पडा) देवी के साथ अभद्र गति विधि प्रारम्भ की। तब दुर्गा ने कहा कि ज्योति निरंजन मेरे पास पिता जी की प्रदान की हुई शब्द शक्ति है। आप जितने प्राणी कहोगे मैं वचन से उत्पन्न कर दूंगी। आप मैथुन परम्परा शुरु मत करो। आप भी उसी पिता के शब्द से अण्डे से उत्पन्न हुए हो तथा मैं भी उसी परमपिता के वचन से ही बाद में उत्पन्न हुई हूँ। आप मेरे बड़े भाई हो, बहन-भाई का यह योग महापाप का कारण बनेगा। परन्तु ज्योति निरंजन ने प्रकृति देवी की एक भी प्रार्थना नहीं सुनी तथा अपनी शब्द शक्ति द्वारा नाखुनों से स्त्री इन्द्री (भग) प्रकृति को लगा दी तथा बलात्कार करने की ठानी।
उसी समय दुर्गा ने अपनी इज्जत रक्षा के लिए कोई और चारा न देख सुक्ष्म रूप बनाया तथा ज्योति निरंजन के खुले मुख के द्वारा पेट में प्रवेश करके पूर्णब्रह्म कविरदेव से अपनी रक्षा के लिए याचना की। उसी समय कविर्देव (कवि देव) अपने पुत्र योग
संतायन अर्थात् जोगजीत का रूप बनाकर वहाँ प्रकट हुए तथा कन्या को ब्रह्म के उदर से बाहर निकाला तथा कहा कि ज्योति निरंजन आज से तेरा नाम 'काल' होगा। तेरे जन्म-मृत्यु होते रहेंगे। इसीलिए तेरा नाम क्षर पुरुष होगा तथा एक लाख मानव शरीर धारी प्राणियों को प्रतिदिन खाया करेगा व सवा लाख उत्पन्न किया करेगा। आप दोनों को इक्कीस ब्रह्माण्ड सहित निष्कासित किया जाता है।
इतना कहते ही इक्कीस ब्रह्माण्ड विमान की तरह चल पड़े। सहज दास के द्वीप के पास से होते हुए सतलोक से सोलह संख कोस (एक कोस लगभग 3 कि. मी. का होता है) की दूरी पर आकर रूक गए।
विशेष विवरण - अब तक तीन शक्तियों का विवरण आया है।
1. पूर्णब्रह्म - जिससे अन्य उपमात्मक नामों से भी जाना जाता है, जैसे सतपुरुष अकालपुरुष, शब्द स्वरूपी राम, परम अक्षर ब्रह्म/पुरुष आदि। यह पूर्णब्रह्म असंख्यब्रह्मण्डों का स्वामी है तथा वास्तव में अविनाशी है।
2. परब्रह्म - जिसे अक्षर पुरुष भी कहा जाता है। यह वास्तव में अविनाशी नहीं है। यह सात शंख ब्रह्माण्डों का स्वामी है।
3. ब्रह्म - जिसे ज्योति निरंजन, काल, कैल, क्षर पुरुष तथा धर्मराय आदि नामों
से जाना जाता है, जो केवल इक्कीस ब्रह्माण्ड का स्वामी है। अब आगे इसी ब्रह्मा
(काल) की सृष्टी के एक ब्रह्माण्ड का परिचय दिया जाएगा, जिसमें तीन और नाम आपके पढ़ने में आयेंगे - ब्रह्मा, विष्णु तथा शिव।
ब्रह्म तथा ब्रह्मा में भेद - एक ब्रह्माण्ड में बने सर्वोपरि स्थान पर ब्रहम (क्षर पुरुष) स्वयं तीन गुप्त स्थानों की रचना करके ब्रह्मा, विष्णु तथा शिव रूप में रहता है तथा अपनी पत्नी प्रकृति (दुर्गा) के सहयोग से तीन पुत्रों की उत्पत्ति करता है। उनके नाम भी ब्रह्मा, विष्णु तथा शिव ही रखता है।
जो ब्रह्म का पुत्र ब्रह्मा है वह एक ब्रह्माण्ड में केवल तीन लोकों (पृथ्वी लोक, स्वर्ग लोक तथा पाताल लोक) में एक रजोगुण विभाग का मंत्री (स्वामी) है। इसे त्रिलोकीय ब्रह्मा कहा है तथा ब्रह्म जो ब्रह्मलोक में ब्रह्म रूप में रहता है उसे महाब्रह्मा व ब्रह्मलोकीय ब्रह्मा कहा है।
इसी ब्रह्म (काल) को सदाशिव, महाशिव, महाविष्णु भी कहा है.
श्री विष्णु पुराण में प्रमाण :- चतुर्थ अंश अध्याय 1 पृष्ठ 230-231 पर श्री ब्रह्माजी ने कहा :- जिस अजन्मा, सर्वमय विधाता परमेश्वर का आदि, मध्य, अन्त,स्वरूप, स्वभाव और सार हम नहीं जान पाते (श्लोक 83)
जो मेरा रूप धारण कर संसार की रचना करता है, स्थिति के समय जो पुरूष रूप है तथा जो रूद्र रूप से विश्व का ग्रास कर जाता है, अनन्त रूप से सम्पूर्ण जगत् को धारण करता है। (श्लोक 86 )
"श्री ब्रह्मा जी, श्री विष्णु जी व श्री शिव जी की उत्पत्ति ”
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काल (ब्रह्म) ने प्रकृति (दुर्गा) से कहा कि अब मेरा कौन क्या बिगाडेगा? मनमानी करूंगा प्रक्रति ने फिर प्रार्थना की कि आप कुछ तो शर्म करो । प्रथम तो आप मेरे बड़े भाई हो, क्योंकि उसी पूर्ण परमात्मा (कविर्देव) की वचन शक्ति से आप की (ब्रह्म की) अण्डे से उत्पत्ति हुई तथा बाद में मेरी उत्पत्ति उसी परमेश्वर के वचन से हुई है। दूसरे मैं आपके पेट से बाहर नि��ली हूँ, मैं आपकी बेटी हुई तथा आप मेरे पिता हुए। इन पवित्र नातों में बिगाड़ करना महापाप होगा। मेरे पास पिता की प्रदान की हुई शब्द शक्ति है, जितने प्राणी आप कहोगे मैं वचन से उत्पन्न कर दूंगी।
ज्योति निरंजन ने दुर्गा की एक भी विनय नहीं सुनी तथा कहा कि मुझे जो सजा मिलनी थी मिल गई, मुझे सतलोक से निष्कासित कर दिया। अब मनमानी करूंगा। यह कह कर काल पुरूष (क्षर पुरूष) ने प्रकृति के साथ जबरदस्ती शादी
की तथा तीन पुत्रों (रजगुण युक्त - ब्रह्मा जी, सतगुण युक्त - विष्णु जी तथा तमगुण युक्त - शिव शंकर जी) की उत्पत्ति की.
जवान होने तक तीनों पुत्रों को दुर्गा के द्वारा अचेत करवा देता है, फिर युवा होने पर श्री ब्रह्मा जी को कमल के फूल पर, श्री विष्णु जी को शेष नाग की शैय्या पर तथा श्री शिव जी को कैलाश पर्वत पर सचेत करके इक्ट्ठे कर देता है। तत्पश्चात् प्रकृति (दुर्गा) द्वारा इन तीनों का विवाह कर दिया जाता है तथा एक ब्रह्माण्ड में तीन लोकों (स्वर्ग लोक, पृथ्वी लोक तथा पाताल लोक) में एक-एक विभाग के मंत्री (प्रभु) नियुक्त कर देता है।
जैसे श्री ब्रह्मा जी को रजोगुण विभाग का तथा विष्णु जी को सत्तोगुण विभाग का
तथा श्री शिव शंकर जी को तमोगुण विभाग का तथा स्वयं गुप्त (महाब्रह्मा
महाविष्णु - महाशिव) रूप से मुख्य मंत्री पद को संभालता है।
एक ब्रह्माण्ड में एक ब्रह्मलोक की रचना की है। उसी में तीन गुप्त स्थान बनाए हैं। एक रजोगुण प्रधान स्थान है जहाँ पर यह ब्रह्म (काल) स्वयं महाब्रह्मा (मुख्यमंत्री) रूप में रहता है तथा अपनी पत्नी दुर्गा को महासावित्री रूप में रखता है। इन दोनों के संयोग से जो पुत्र इस स्थान पर उत्पन्न होता है वह स्वत: ही रजोगुणी बन जाता है। दूसरा स्थान सतोगुण प्रधान स्थान बनाया है। वहाँ पर यह क्षर पुरुष स्वयं महाविष्णु रूप बना कर रहता है तथा अपनी पत्नी दुर्गा को महालक्ष्मी रूप में रख कर जो पुत्र उत्पन्न करता है उसका नाम विष्णु रखता है, वह बालक सतोगुण युक्त होता है तथा
तीसरा इसी काल ने वहीं पर एक तमोगुण प्रधान क्षेत्र बनाया है। उसमें यह स्वयं
सदाशिव रूप बनाकर रहता है तथा अपनी पत्नी दुर्गा को महापार्वती रूप में रखता
है। इन दोनों के पति-पत्नी व्यवहार से जो पुत्र उत्पन्न होता है उसका नाम शिव रख देते हैं तथा तमोगुण युक्त कर देते हैं।
(प्रमाण के लिए देखें पवित्र श्री शिव
महापुराण, विद्यवेश्वर संहिता पृष्ठ 24-26 जिस में ब्रहमा, विष्णु, रूद्र तथा महेश्वर
से अन्य सदाशिव है तथा रूद्र संहिता अध्याय 6 तथा 7, 9 पृष्ठ नं. 100 से, 105
तथा 110 पर अनुवाद कर्ता श्री हनुमान प्रसाद पोद्दार, गीता प्रैस गोरख पुर से
प्रकाशित तथा पवित्र श्रीमद्देवीमहापुराण तीसरा स्कद पृष्ठ नं. 14 से 123 तक,गीता प्रेस गोरखपुर से प्रकाशित, जिसके अनुवाद कर्ता हैं श्री हनुमान प्रसाद पोद्दार
चिमन लाल गोस्वामी)
फिर इन्हीं को धोखे में रख कर अपने खाने के लिए जीवों की उत्पत्ति श्री ब्रहमा जी द्वारा तथा स्थिति (एक-दूसरे को मोह-ममता में रख कर काल जाल में रखना) श्री विष्णु जी से तथा संहार (क्योंकि काल पुरुष को शापवश एक लाख मानव शरीर धारी प्राणियों के सूक्ष्म शरीर से मैल निकाल कर खानाहोता है उसके लिए इक्कीसवें ब्रह्माण्ड में एक तप्तशिला है जो स्वत: गर्मी रहती है, उस पर गर्म करके मैल पिंघला कर खाता है, जीव मरते नहीं परन्तु कष्ट असहनीय होता है, फिर प्राणियों को कर्म आधार पर अन्य शरीर प्रदान करता है) श्री शिवजी द्वारा करवाता है। जैसे किसी मकान में तीन कमरे बने हों। एक कमरे में अश्लील चित्र लगे हों। उस कमरे में जाते ही मन में वैसे ही मलिन विचार उत्पन्न हो जाते हैं। दूसरे कमरे में साधु-सन्तों, भक्तों के चित्र लगे हों तो मन में अच्छे विचार, प्रभु का चिन्तन ही बना रहता है। तीसरे कमरे में देश भक्तों व शहीदों के चित्र लगे हों तो मन में वैरसे ही जोशीले विचार उत्पन्न हो जाते हैं। ठीक इसी प्रकार ब्रह्म (काल) ने अपनी सूझ-बूझ से उपरोक्त तीनों गुण प्रधान स्थानों की रचना की हुई है।
*ब्रह्म (काल) की अव्यक्त रहने की प्रतिज्ञा*
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*सुक्ष्म वेद से शेष सृष्टि रचना* -------
तीनों पुत्रों की उत्पत्ति के पश्चात् ब्रह्म ने अपनी पत्नी दुर्गा (प्रकृति) से कहा मैं
प्रतिज्ञा करता हूँ कि भविष्य में मैं किसी को अपने वास्तविक रूप में दर्शन नहीं दूंगा।
जिस कारण से मैं अव्यक्त माना जाऊँगा। दुर्गा से कहा कि आप मेरा भेद किसी को मत देना। मैं गुप्त रहूँगा। दुर्गा ने पूछा कि क्या आप अपने पुत्रों को भी दर्शन नहीं दोगे ?
ब्रह्म ने कहा मैं अपने पुत्रों को तथा अन्य को किसी भी साधना से दर्शन नहीं दूंगा, यह मेरा अटल नियम रहेगा। दुर्गा ने कहा यह तो आपका उत्तम नियम नहीं है
जो आप अपनी संतान से भी छुपे रहोगे। तब काल ने कहा दुर्गा मेरी विवशता है। मुझे एक लाख मानव शरीर धारी प्राणियों का आहार करने का शाप लगा है। यदि मेरे पुत्रों (ब्रह्मा, विष्णु, महेश) को पता लग गया तो ये उत्पत्ति, स्थिति तथा संहार का कार्य नहीं करेंगे। इसलिए यह मेरा अनुत्तम नियम सदा रहेगा। जब ये तीनों कुछ बड़े हो जाएँ तो इन्हें अचेत कर देना। मेरे विषय में नहीं बताना, नहीं तो मैं तुझे भी दण्ड दूंगा, दुर्गा इस डर के मारे वास्तविकता नहीं बताती। इसीलिए गीता अध्याय 7 श्लोक 24 में कहा है कि यह बुद्धिहीन जन समुदाय मेरे अनुत्तम नियम से अपिरिचत हैं कि मैं कभी भी किसी के सामने प्रकट नहीं होता अपनी योग माया से छुपा रहता हूँ। इसलिए मुझ अव्यक्त को मनुष्य रूप में आया हुआ अथर्थात् कृष्ण मानते हैं। (अबुद्धय:) बुद्धि हीन (मम्) मेरे (अनुत्तमम्) अनुत्तम अर्थात् घटिया (अव्ययम्) अविनाशी
(परम् भावम्) विशेष भाव को (अजानन्तः) न जानते हुए (माम् अव्यक्तम्) मुझ अव्यक्त को
(व्यक्तिम्) मनुष्य रूप में (आपन्नम) आया (मन्यन्ते) मानते हैं अर्थात् मैं कृष्ण नहीं हूँ। (गीता अध्याय 7 श्लोक 24)
गीता अध्याय 11 श्लोक 47 तथा 48 में कहा है कि यह मेरा वास्तविक काल रूप
है। इसके दर्शन अथर्थात् ब्रह्म प्राप्ति न वेदों में वर्णित विधि से, न जप से, न तप से तथा न किसी क्रिया से हो सकती है।
जब तीनों बच्चे युवा हो गए तब माता भवानी (प्रकृति, अष्टगी) ने कहा कि तुम
सागर मन्थन करो। प्रथम बार सागर मन्थन किया तो (ज्योति निरंजन ने अपने
श्वांसों द्वारा चार वेद उत्पन्न किए। उनको गुप्त वाणी द्वारा आज्ञा दी कि सागर में
निवास करो) चारों वेद निकले वह ब्रह्मा ने लिए। वस्तु लेकर तीनों बच्चे माता के पास
आए तब माता ने कहा कि चारों वेदों को ब्रह्मा रखे व पढ़े।
नोट :- वास्तव में पूर्णब्रह्मा ने, ब्रहम अर्थात काल को पाँच वेद प्रदान किए थे।
लेकिन ब्रह्म ने केवल चार वेदों को प्रकट किया। पाँचवां वेद छुपा दिया। जो पूर्ण
परमात्मा ने प्रकट होकर कविगिंभीं:
रवय अर्थात् कविर्वाणी (कबीर वाणी) द्वारा
लोकोक्तियों व दोहों के माध्यम से प्रकट किया है।
दूसरी बार सागर मन्थन किया तो तीन कन्याएँ मिली। माता ने तीनों को बांट
दिया। प्रकृति (दुर्गा) ने अपने ही अन्य तीन रूप (सावित्री, लक्ष्मी तथा पार्वती) धारण
किए तथा समुन्द्र में छुपा दी। सागर मन्थन के ��मय बाहर आ गई। वही प्रकृति तीन
रूप हुई तथा भगवान ब्रह्ममा को सावित्री, भगवान विष्णु को लक्ष्मी, भगवान शंकर को
पार्वती पत्नी रूप में दी। तीनों ने भोग विलास किया, सुर तथा असुर दोनों पैदा हुए।
{जब तीसरी बार सागर मन्थन किया तो चौदह रत्न ब्रहमा को तथा अमृत विष्णु
को व देवताओं को, मद्य(शराब) असुरों को तथा विष परमार्थ शिव ने अपने कट में
ठहराया। यह तो बहुत बाद की बात है।} जब ब्रह्मा वेद पढ़ने लगा तो पता चला कि
कोई सर्व ब्रह्माण्डों की रचना करने वाला कुल का मालिक पुरूष (प्रभु) और है।
ब्रह्मा जी ने विष्णु जी व शंकर जी को बताया कि वेदों में वर्णन है कि सृजनहार कोई और प्रभु है परन्तु वेद कहते हैं कि भेद हम भी नहीं जानते, उसके लिए संकेत है कि
किसी तत्वदर्शी संत से पूछो। तब ब्रह्मा माता के पास आया और सब वृतांत कह
सुनाया। माता कहा करती थी कि मेरे अतिरिक्त और कोई नहीं है। मैं ही कर्ता हूँ। मैं
ही सर्वशक्तिमान हूँ परन्तु ब्रह्मा ने कहा कि वेद ईश्वर कृत हैं यह झूठ नहीं हो सकते।
दुर्गा ने कहा कि तेरा पिता तुझे दर्शन नहीं देगा, उसने प्रतिज्ञा की हुई है। तब ब्रह्मा ने
कहा माता जी अब आप की बात पर अविश्वास हो गया है। मैं उस पुरूष (प्रभु) का
पता लगाकर ही रहूँगा। दुर्गा ने कहा कि यदि वह तुझे दर्शन नहीं देगा तो तुम क्या
करोगे? ब्रह्मा ने कहा कि मैं आपको शक्ल नहीं दिखाऊँगा। दूसरी तरफ ज्योति
निरंजन ने कसम खाई है कि मैं अव्यक्त रहूँगा किसी को दर्शन नहीं दूंगा अथर्थात् 21
ब्रह्माण्ड में कभी भी अपने वास्तविक काल रूप में आकार में नहीं आऊँगा।
गीता अध्याय नं. 7 का श्लोक नं. 24
अव्यक्तम्, व्यक्तितम्, आपन्नम्, मन्यन्ते, माम्, अबुद्धय: ।
परम्, भावम्, अजानन्त:, मम, अव्ययम्, अनुत्तमम् | 124 ||
अनुवाद : (अबुद्धय) बुद्धिहीन लोग (मम्) मेरे (अनुतमम्) अश्रेष्ठ (अव्य म्) अटल
(परम्) परम (भावम्) भावको (अजानन्तः) न जानते हुए (अव्यक्तम्) अदृश्यमान (माम्) मुझ
कालको (व्यक्तितम) आकार में कृष्ण अवतार (आपन्नम्) प्राप्त हुआ (मन्यन्ते) मानते हैं।
गीता अध्याय नं. 7 का शलाक नं. 25
न, अहम्, प्रकाश:, सर्वस्य, यागमायारसमावत: ।
मूढ: अयम्, न, अभिजानाति, लोक:, माम्, अजम्, अव्य म् ||25 ||
अनुवाद : (अहम्) मैं (योगमाया समावृत) योगमायासे छिपा हुआ (सर्वस्य) सबके
(प्रकाश) प्रत्यक्ष (न) नहीं होता अर्थात् अदृश्य अर्थात् अव्यक्त रहता हूँ इसलिये (अजम्)
जन्म न लेने वाले (अव्य म्) अविनाशी अटल भावको (अयम्) यह (मूढ:) अज्ञानी (लोक)
जनसमुदाय संसार (माम्) मुझे (न) नहीं (अभिजानाति) जानता अर्थात् मुझको अवतार रूप
में आया समझता है | क्योंकि ब्रह्म अ��नी शब्द शक्ति से अपने नाना रूप बना ले��ा है, यह
दुर्गा का पति है इसलिए इस मंत्र में कह रहा है कि कृष्ण आदि की तरह दुर्गा से जन्म नहीं लेता।
*ब्रह्मा का अपने पिता (काल/ब्रह्म) की प्राप्ति के लिए प्रयत्न*
तब दुर्गा ने ब्रह्मा जी से कहा कि अलख निंरजन तुम्हारा पिता है परन्तु वह तुम्हें
दर्शन नहीं देगा। ब्रह्मा ने कहा कि मैं दर्शन करके ही लौटूगा। माता ने पूछा कि यदि
तुझे दर्शन नहीं हुए तो क्या करेगा ? ब्रह्मा ने कहा मैं प्रतिज्ञा करता हूँ। यदि पिता के
दर्शन नहीं हुए तो मैं आपके समक्ष नहीं आऊंगा। यह कह कर ब्रह्मा जी व्याकुल होकर
उत्तर दिशा की तरफ चल दिया जहाँ अन्धेरा ही अन्धेरा है। वहाँ ब्रह्मा ने चार युग तक
ध्यान लगाया परन्तु कुछ भी प्राप्ति नहीं हुई। काल ने आकाशवाणी की कि दुर्गा सृष्टी
रचना क्यों नहीं की ? भवानी ने कहा कि आप का ज्येष्ठ पुत्र ब्रह्मा जिद्द करके आप की
तलाश में गया है। ब्रह्म (काल) ने कहा उसे वापिस बुला लो। मैं उसे दर्शन नहीं दूंगा।
ब्रह्मा के बिना जीव उत्पति का सब कार्य असम्भव है। तब दुर्गा (प्रकृति) ने अपनी
शब्द शक्ति से गायत्री नाम की लड़की उत्पन्न की तथा उसे ब्रह्मा को लौटा लाने को
कहा। गायत्री ब्रह्मा जी के पास गई परंतु ब्रह्मा जी समाधि लगाए हुए थे उन्हें कोई
आभास ही नहीं था कि कोई आया है। तब आदि कुमारी (प्रकृति) ने गायत्री को ध्यान
द्वारा बताया कि इस के चरण स्पर्श कर। तब गायत्री ने ऐसा ही किया। ब्रह्मा जी का
ध्यान भंग हुआ तो क्रोध वश बोले कि कौन पापिन है जिसने मेरा ध्यान भंग किया है।
मैं तुझे शाप दूंगा। गायत्री कहने लगी कि मेरा दोष नहीं है। पहले मेरी बात सुनो तब
शाप देना। मेरे को माता ने तुम्हें लौटा लाने को कहा है क्योंकि आपके बिना जीव
उत्पत्ति नहीं हो सकती। ब्रह्मा ने कहा कि मैं कैसे जाऊँ? पिता जी के दर्शन हुए नहीं
ऐसे जाऊँ तो मेरा उपहास होगा। यदि आप माता जी के समक्ष यह कह दें कि ब्रह्मा ने
पिता (ज्योति निरंजन) के दर्शन हुए हैं, मैंने अपनी आँखो से देखा है तो मैं आपके
साथ चलू। तब गायत्री ने कहा कि आप मेरे साथ संभोग (सैक्स) करोगे तो मैं आपकी
झूठी साक्षी (गवाही) भरूंगी। तब ब्रह्मा ने सोचा कि पिता के दर्शन हुए नहीं, वैसे जाऊँ
तो माता के सामने शर्म लगेगी और चारा नहीं दिखाई दिया, फिर गायत्री से राति
क्रिया (संभोग) की।
तब गायत्री ने कहा कि क्यों न एक गवाह और तैयार किया जाए। ब्रह्मा ने कहा
बहुत ही अच्छा है। तब गायत्री ने शब्द शक्ति से एक लड़की (पुहपवति नाम की) पैदा
की तथा उससे दोनों ने कहा कि आप गवाही देना कि ब्रह्मा ने पिता के दर्शन किए हैं।
तब पुहपवति ने कहा कि मैं क्यों झूठी गवाही दूं ? हाँ, यदि ब्रह्मा मेरे से रति क्रिया
(संभोग) करे तो गवाही दे सकती हूँ। गायत्री ने ब्रह्मा को समझाया (उकसाया) कि
और कोई चारा नहीं है तब ब्रह्मा ने पुहपवति से संभोग किया तो तीनों मिलकर आदि
माया (प्रकृति) के पास आए। दोनों देवियों ने उपरोक्त शत इसलिए रखी थी कि
यदि ब्रह्मा माता के सामने हमारी झूठी गवाही को बता देगा तो माता हमें शाप दे
देगी। इसलिए उसे भी दोषी बना लिया।
(यहाँ महाराज गरीबदास जी कहते हैं कि –“दास गरीब यह चूक धुरों धुर')
*"माता (दुर्गा) द्वारा ब्रह्मा को शाप देना*
तब माता ने ब्रह्मा से पूछा क्या तुझे तेरे पिता के दर्शन हुए? ब्रह्मा ने कहा हाँ मुझे
पिता के दर्शन हुए हैं। दुर्गा ने कहा साक्षी बता। तब ब्रह्मा ने कहा इन दोनों के समक्ष
साक्षात्कार हुआ है। देवी ने उन दोनों लड़कियों से पूछा क्या तुम्हारे सामने ब्रह्म का
साक्षात्कार हुआ है तब दानों ने कहा कि हाँ, हमने अपनी आँखों से देखा है। फिर
भवानी (प्रकृति) को संशय हुआ कि मुझे तो ब्रह्म ने कहा था कि मैं किसी को दर्शन
नहीं दूंगा, परन्तु ये कहते हैं कि दर्शन हुए हैं। तब अष्टगी ने ध्यान लगाया और
काल/ज्योति निरंजन से पूछा कि यह क्या कहानी है? ज्योति निंरजन जी ने कहा कि
ये तीनों झूठ बोल रहे हैं। तब माता ने कहा तुम झूठ बोल रहे हो। आकाशवाणी हुई है
कि इन्हें कोई दर्शन नहीं हुए। यह बात सुनकर ब्रहमा ने कहा कि माता जी मैं सौगंध
खाकर पिता की तलाश करने गया था। परन्तु पिता (ब्रह्म) के दर्शन हुए नहीं। आप
के पास आने में शर्म लग रही थी। इसलिए हमने झूठ बोल दिया। तब माता (दुर्गा) ने
कि अब मैं तुम्हें शाप देती हूँ।
ब्रह्मा को शाप : - तेरी पूजा जग में नहीं होगी। आगे तेरे वंशज होंगे वे बहुत
पाखण्ड करेंगे। झूठी बात बना कर जग को दजगांग । ऊपर से तो कर्म काण्ड करते
दिखाई देंगे अन्दर से विकार करेंगे। कथा पुराणों को पढ़कर सुनाया करेंगे, स्वयं को
ज्ञान नहीं होगा कि सद्ग्रन्थों में वास्तविकता क्या है, फिर भी मान वश तथा धन
प्राप्ति के लिए गुरु बन कर अनुयाइयों को लोकवेद (शास्त्र विरुद्ध दंत कथा) सुनाया
करेंगे। देवी-देवों की पूजा करके तथा करवाके, दूसरों की निन्दा करके कष्ट पर कष्ट
उठायेंगे। जो उनके अनुयाई होंगे उनको परमार्थ नहीं बताएंगे। दक्षिणा के लिए जगत
को गुमराह करते रहेंगे। अपने आपको सबसे अच्छा मानेंगे, दूसरों को नीचा समझेगे।
जब माता के मुख से यह सुना तो ब्रह्मा मुछित होकर जमीन पर गिर गया। बहुत
समय उपरान्त होश में आया।
गायत्री को शाप : - तेरे कई सांड पति होंगे। तू मृतलोक में गाय बनेगी।
पुहपवति को शाप : - तेरी जगह गंदगी में होगी। तेरे फूलों को कोई पूजा में नहीं
लाएगा। इस झूठी गवाही के कारण तुझे यह नरक भोगना होगा। तेरा नाम केवड़ा
केतकी होगा। (हरियाणा में कुसोंधी कहते हैं। यह गंदगी (कुरड़ियों) वाली जगह पर
होती है।)
इस प्रकार तीनों को शाप देकर माता भवानी बहुत पछताई। {इस प्रकार पहले तो
जीव बिना सोचे मन (काल निरंजन) के प्रभाव से गलत कार्य कर देता है परन्तु जब
आत्मा (सतपुरूष अंश) के प्रभाव से उसे ज्ञान होता है तो पीछे पछताना पड़ता है।
जिस प्रकार माता-पिता अपने बच्चों को छोटी सी गलती के कारण ताड़ते हैं (क्रोधवश
होकर) परन्तु बाद में बहुत पछताते हैं। यही प्रक्रिया मन (काल-निंरजन) के प्रभाव से
सर्व जीवों में क्रियावान हो रही है।)} हाँ, यहाँ एक बात विशेष है कि निरंजन
(काल-ब्रह्म) ने भी अपना कानून बना रखा है कि यदि कोई जीव किसी दुर्बल जीव को
सताएगा तो उसे उसका बदला देना पड़ेगा। जब आदि भवानी (प्रकृति, अष्टगी) ने
ब्रहमा, गायत्री व पुहपवति को शाप दिया तो अलख निंरजन (ब्रह्म-काल) ने कहा कि हे
भवानी (प्रकृति/अष्टगी) यह आपने अच्छा नहीं किया। अब मैं (निरंजन) आपको शाप
देता हूँ कि द्वापर युग में तेरे भी पाँच पति होंगे। (द्रोपदी ही आदिमाया का अवतार
हुई है।) जब यह आकाश वाणी सुनी तो आदि माया ने कहा कि हे ज्योति निंरजन
(काल) मैं तेरे वश पड़ी हूँ जो चाहे सो कर ले।
*विष्णु का अपने पिता (काल/ब्रहम ) की प्राप्ति के लिए प्रस्थान*
व माता का आशीर्वाद पाना
इसके बाद विष्णु से प्रकृति ने कहा कि पुत्र तू भी अपने पिता का पता लगा ले।
तब विष्णु अपने पिता जी काल (ब्रह्म) का पता करते-करते पाताल लोक में चले गए,
जहाँ शेषनाग था। उसने विष्णु को अपनी सीमा में प्रविष्ट होते देख कर क्रोधित हो
कर जहर भरा फटकारा मारा। उसके विष के प्रभाव से विष्ण जी का रंग सांवला हो
गया, जैसे स्प्रे पेंट हो जाता है। तब विष्णु ने चाहा कि इस नाग को मजा चखाना
चाहिए। तब ज्योति निरंजन (काल) ने देखा कि अब विष्णु को शांत करना चाहिए।
तब आकाशवाणी हुई कि विष्णु अब तू अपनी माता जी के पास जा और सत्य-सत्य
सारा विवरण बता देना तथा जो कष्ट आपको शेषनाग से हुआ है, इसका प्रतिशोध
द्वापर युग में लेना। द्वापर युग में आप (विष्णु) तो कृष्ण अवतार धारण करोगे और
कालीदह में कालिन्दी नामक नाग, शेष नाग का अवतार होगा।
ऊँच होई के नीच सतावै, ताकर ओएल (बदला) मोही सों पावै।
जो जीव देई पीर पुनी कॉहु, हम पुनि ओएल दिवावें ताहूँ।
तब विष्णु जी माता जी के पास आए तथा सत्य-सत्य कह दिया कि मुझे पिता के
दर्शन नहीं हुए। इस बात से माता (प्रकृति) बहुत प्रसन्न हुई और कहा कि पुत्र तू
सत्यवादी है। अब मैं अपनी शक्ति से आपको तेरे पिता से मिलाती हूँ तथा तेरे मन का
संशय खत्म करती हूँ।
कबीर देख पुत्र तोहि पिता भीटाऊँ, तौरे मन का धोखा मिटाऊँ।
मन स्वरूप कर्ता कह जानों, मन ते दूजा और न मानो।
स्वर्ग पाताल दौर मन केरा, मन अस्थीर मन अहै । अनेरा।
निंरकार मन ही को कहिए, मन की आस निश दिन रहिए।
देख हूँ पलटि सुन्य मह ज्योति, जहाँ पर झिलमिल झालर होती।
इस प्रकार माता (अष्टगी, प्रकृति) ने विष्णु से कहा कि मन ही जग का कर्ता है,
यही ज्योति निरंजन है। ध्यान में जो एक हजार ज्योतियाँ नजर आती हैं वहीं उसका
रूप है। जो शंख, घण्टा आदि का बाजा सुना, यह महास्वर्ग में निरंजन का ही बज
रहा है। तब माता (अष्टगी, प्रकृति) ने कहा कि हे पुत्र तुम सब देवों के सरताज हो
और तेरी हर कामना व कार्य मैं पूर्ण करूंगी। तेरी पूजा सर्व जग में होगी। आपने मुझे
सच-सच बताया है। काल के इक्कीस ब्रह्मण्ड़ों के प्राणियों की विशेष आदत है कि
अपनी व्यर्थ महिमा बनाता है। जैसे दुर्गा जी श्री विष्णु जी को कह रही है कि तेरी पूजा
जग में होगी। मैंने तुझे तेरे पिता के दर्शन करा दिए। दुर्गा ने केवल प्रकाश दिखा कर
श्री विष्णु जी को बहका दिया। श्री विष्णु जी भी प्रभु की यही स्थिति अपने अनुयाइयों
को समझाने लगे कि परमात्मा का केवल प्रकाश दिखाई देता है। परमात्मा निराकार
है। इसके बाद आदि भवानी रूद्र (महेश जी) के पास गई तथा कहा कि महेश तू भी
कर ले अपने पिता की खोज तेरे दोनों भाइयों को तो तुम्हारे पिता के दर्शन नहीं हुए
उनको जो देना था वह प्रदान कर दिया है। अब आप माँगो जो माँगना है। तब महेश ने
कहा कि हे जननी ! मेरे दोनों बड़े भाईयों को पिता के दर्शन नहीं हुए फिर प्रयत्न
करना व्यर्थ है। कृपा मुझे ऐसा वर दो कि मैं अमर (मृत्युजय) हो जाऊँ। तब माता ने
कहा कि यह मैं नहीं कर सकती। हाँ युक्ति बता सकती हूँ, जिससे तेरी आयु सबसे अधिक होगी. तब दुर्गा ने शिवजी को योग समाधि बिधि बताई कि बेटा अपनी श्वासौ को 10 वे द्वार में स्थित करो जिससे तेरी श्वास की गति कम हो जायेगी.क्युकी श्वासौं से सभी की उम्र निर्धारित होती है.
आपने इसको पूरा पढा.
आपका धन्यवाद
अब अपने दोस्तो को भी शेयर किजिये.
आगे पूरी सृष्टी रचना पढने के लिए पोस्ट क्रप्या ज्ञान गंगा पुस्तक फ्री मे मँगायैं.
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lakshyadewangan · 8 days
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संत रामपाल जी महाराज के विशेष संदेश - Jagat Guru Rampal Ji
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jyotis-things · 24 days
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( #Muktibodh_Part278 के आगे पढिए.....)
📖📖📖
#MuktiBodh_Part279
हम पढ़ रहे है पुस्तक "मुक्तिबोध"
पेज नंबर 532
“विष्णु का अपने पिता (काल/ब्रह्म) की प्राप्ति के लिए प्रस्थान व माता का आशीर्वाद पाना”
इसके बाद विष्णु से प्रकृति ने कहा कि पुत्र तू भी अपने पिता का पता लगा ले। तब विष्णु अपने पिता जी काल (ब्रह्म) का पता करते-करते पाताल लोक में चले गए, जहाँ शेषनाग था।
उसने विष्णु को अपनी सीमा में प्रविष्ट होते देख कर क्रोधित हो कर जहर भरा फुंकारा मारा।
उसके विष के प्रभाव से विष्णु जी का रंग सांवला हो गया, जैसे स्प्रे पेंट हो जाता है। तब विष्णु ने चाहा कि इस नाग को मजा चखाना चाहिए। तब ज्योति निरंजन (काल) ने देखा कि अब विष्णु को शांत करना चाहिए। तब आकाशवाणी हुई कि विष्णु अब तू अपनी माता जी के पास जा और
सत्य-सत्य सारा विवरण बता देना तथा जो कष्ट आपको शेषनाग से हुआ है, इसका प्रतिशोध द्वापर युग में लेना। द्वापर युग में आप (विष्णु) तो कृष्ण अवतार धारण करोगे और कालीदह में
कालिन्द्री नामक नाग, शेष नाग का अवतार होगा।
ऊँच होई के नीच सतावै, ताकर ओएल (बदला) मोही सों पावै।
जो जीव देई पीर पुनी काँहु, हम पुनि ओएल दिवावें ताहूँ।।
तब विष्णु जी माता जी के पास आए तथा सत्य-सत्य कह दिया कि मुझे पिता के दर्शन नहीं हुए। इस बात से माता (प्रकृति) बहुत प्रसन्न हुई और कहा कि पुत्र तू सत्यवादी है। अब मैं
अपनी शक्ति से तेरे पिता से मिलाती हूँ तथा तेरे मन का संशय खत्म करती हूँ।
कबीर, देख पुत्र तोहि पिता भीटाऊँ, तौरे मन का धोखा मिटाऊँ।
मन स्वरूप कर्ता कह जानों, मन ते दूजा और न मानो।
स्वर्ग पाताल दौर मन केरा, मन अस्थीर मन अहै अनेरा।
निंरकार मन ही को कहिए, मन की आस निश दिन रहिए।
देख हूँ पलटि सुन्य मह ज्योति, जहाँ पर झिलमिल झालर होती।।
इस प्रकार माता (अष्टंगी, प्रकृति) ने विष्णु से कहा कि मन ही जगत का कर्ता है, यही ज्योति निरंजन है। ध्यान में जो एक हजार ज्योतियाँ नजर आती हैं वही उसका रूप है। जो शंख, घण्टा आदि का बाजा सुना, यह महास्वर्ग में निरंजन का ही बज रहा है। तब माता
(अष्टंगी, प्रकृति) ने कहा कि हे पुत्रा तुम सब देवों के सरताज हो और तेरी हर कामना व कार्य मैं पूर्ण करूंगी। तेरी पूजा सर्व जगत में होगी। आपने मुझे सच-सच बताया है। काल के इक्कीस ब्रह्माण्ड़ों के प्राणियों की विशेष आदत है कि अपनी व्यर्थ महिमा बनाता है। जैसे दुर्गा जी श्री
विष्णु जी को कह रही है कि तेरी पूजा जगत में होगी। मैंने तुझे तेरे पिता के दर्शन करा दिए।
दुर्गा ने केवल प्रकाश दिखा कर श्री विष्णु जी को बहका दिया। श्री विष्णु जी भी प्रभु की यही स्थिति अपने अनुयाइयों को समझाने लगे कि परमात्मा का केवल प्रकाश दिखाई देता है।
परमात्मा निराकार है। इसके बाद आदि भवानी रूद्र(महेश जी) के पास गई तथा कहा कि महेश तू भी कर ले अपने पिता की खोज तेरे दोनों भाइयों को तो तुम्हारे पिता के दर्शन नहीं हुए
उनको जो देना था वह प्रदान कर दिया है अब आप माँगो जो माँगना है। तब महेश ने कहा कि हे जननी ! मेरे दोनों बड़े भाईयों को पिता के दर्शन नहीं हुए फिर प्रयत्न करना व्यर्थ है। कृपा मुझे ऐसा वर दो कि मैं अमर (मृत्युंजय) हो जाऊँ। तब माता ने कहा कि यह मैं नहीं कर सकती। हाँ युक्ति बता सकती हूँ, जिससे तेरी आयु सबसे लम्बी बनी रहेगी। विधि योग समाधि है (इसलिए महादेव जी ज्यादातर समाधि में ही रहते हैं)। इस प्रकार माता (अष्टंगी, प्रकृति) ने तीनों पुत्रों को विभाग बांट दिए :-
भगवान ब्रह्मा जी को काल लोक में लख चौरासी के चोले (शरीर) रचने (बनाने) का अर्थात् रजोगुण प्रभावित करके संतान उत्पत्ति के लिए विवश करके जीव उत्पत्ति कराने का विभाग प्रदान किया। भगवान विष्णु जी को इन जीवों के पालन पोषण (कर्मानुसार) करने, तथा मोह-ममता उत्पन्न करके स्थिति बनाए रखने का विभाग दिया।
भगवान शिव शंकर (महादेव) को संहार करने का विभाग प्रदान किया क्योंकि इनके पिता निरंजन को एक लाख मानव शरीर धारी जीव प्रतिदिन खाने पड़ते हैं।
यहां पर मन में एक प्रश्न उत्पन्न होगा कि ब्रह्मा, विष्णु तथा शंकर जी से उत्पत्ति, स्थिति और संहार कैसे होता है। ये तीनों अपने-2 लोक में रहते हैं। जैसे आजकल संचार प्रणाली को
चलाने के लिए उपग्रहों को ऊपर आसमान में छोड़ा जाता है और वे नीचे पृथ्वी पर संचार प्रणाली को चलाते हैं। ठीक इसी प्रकार ये तीनों देव जहां भी रहते हैं इनके शरीर से निकलने वाले सूक्ष्म गुण की तरंगें तीनों लोकों में अपने आप हर प्राणी पर प्रभाव बनाए रहती है।
उपरोक्त विवरण एक ब्रह्माण्ड में ब्रह्म (काल) की रचना का है। ऐसे-ऐसे क्षर पुरुष (काल) के इक्कीस ब्रह्माण्ड हैं।
क्रमशः_____
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आध्यात्मिक जानकारी के लिए आप संत रामपाल जी महाराज जी के मंगलमय प्रवचन सुनिए। संत रामपाल जी महाराज YOUTUBE चैनल पर प्रतिद��न 7:30-8.30 बजे। संत रामपाल जी महाराज जी इस विश्व में एकमात्र पूर्ण संत हैं। आप सभी से विनम्र निवेदन है अविलंब संत रामपाल जी महाराज जी से नि:शुल्क नाम दीक्षा लें और अपना जीवन सफल बनाएं।
https://online.jagatgururampalji.org/naam-diksha-inquiry
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shivrajrajpoot · 28 days
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Episode : 36 | विशेष संदेश | मोक्ष प्राप्ति का तभी खुलेगा रास्ता, जब इंस...
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पूर्ण परमात्मा कविर्देव चारों युगों में आए हैं। सृष्टी व वेदों की रचना से पूर्व भी अनामी लोक में मानव सदृश कविर्देव नाम से विद्यमान थे। कबीर परमात्मा ने फिर सतलोक की रचना की, बाद में परब्रह्म, ब्रह्म के लोकों व वेदों की रचना की इसलिए वेदों में कविर्देव का विवरण है।
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5gdiginews · 29 days
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Snapdragon 8 Gen 4 benchmark leaks and launch projections unveiled: All you need to know
आगामी क्वालकॉम चिपसेट, स्नैपड्रैगन 8 जेन 4 के बारे में अफवाहें प्रत्याशा के साथ फैल रही हैं। इस साल के अंत में, संभवतः अक्टूबर के आसपास शुरू होने की उम्मीद है, SoC ने ध्यान आकर्षित किया है, विशेष रूप से हाल ही में बेंचमार्क लीक और टिपस्टर DigitalChatStation की अंतर्दृष्टि के साथ। बेंचमार्क अंतर्दृष्टि और वास्तुकला विवरण DigitalChatStation के अनुसार, स्नैपड्रैगन 8 जेन 4 के लीक हुए बेंचमार्क चिपसेट…
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naveensarohasblog · 1 year
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#ज्ञानगंगा_Part25
आदरणीय नानक साहेब जी की अमृतवाणी में सृष्टि रचना का प्रमाण
श्री नानक साहेब जी की अमृतवाणी, महला 1, राग बिलावलु, अंश 1 (गु.ग्र. पृ. 839)
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आपे सचु कीआ कर जोड़ि। अंडज फोड़ि जोडि विछोड़।।
धरती आकाश कीए बैसण कउ थाउ। राति दिनंतु कीए भउ-भाउ।।
जिन कीए करि वेखणहारा।(3)
त्रितीआ ब्रह्मा-बिसनु-महेसा। देवी देव उपाए वेसा।।(4)
पउण पाणी अगनी बिसराउ। ताही निरंजन साचो नाउ।।
तिसु महि मनुआ रहिआ लिव लाई। प्रणवति नानकु कालु न खाई।।(10)
उपरोक्त अमृतवाणी का भावार्थ है कि सच्चे परमात्मा (सतपुरुष) ने स्वयं ही अपने हाथों से सर्व सृष्टि की रचना की है। उसी ने अण्डा बनाया फिर फोड़ा तथा उसमें से ज्योति निरंजन निकला। उसी पूर्ण परमात्मा ने सर्व प्राणियों के रहने के लिए धरती, आकाश, पवन, पानी आदि पाँच तत्व रचे। अपने द्वारा रची सृष्टि का स्वयं ही साक्षी है। दूसरा कोई सही जानकारी नहीं दे सकता। फिर अण्डे के फूटने से निकले निरंजन के बाद तीनों श्री ब्रह्मा जी, श्री विष्णु जी तथा श्री शिव जी की उत्पत्ति हुई तथा अन्य देवी-देवता उत्पन्न हुए तथा अनगिनत जीवों की उत्पत्ति हुई। उसके बाद अन्य देवों के जीवन चरित्र तथा अन्य ऋषियों के अनुभव के छः शास्त्र तथा अठारह पुराण बन गए। पूर्ण परमात्मा के सच्चे नाम (सत्यनाम) की साधना अनन्य मन से करने से तथा गुरु मर्यादा में रहने वाले (प्रणवति) को श्री नानक जी कह रहे हैं कि काल नहीं खाता।
राग मारु(अंश) अमृतवाणी महला 1(गु.ग्र.पृ. 1037)
सुनहु ब्रह्मा, बिसनु, महेसु उपाए। सुने वरते जुग सबाए।।
इसु पद बिचारे सो ज��ु पुरा। तिस मिलिए भरमु चुकाइदा।।(3)
साम वेदु, रुगु जुजरु अथरबणु। ब्रहमें मुख माइआ है त्रैगुण।।
ता की कीमत कहि न सकै। को तिउ बोले जिउ बुलाईदा।।(9)
उपरोक्त अमृतवाणी का सारांश है कि जो संत पूर्ण सृष्टि रचना सुना देगा तथा बताएगा कि अण्डे के दो भाग होकर कौन निकला, जिसने फिर ब्रह्मलोक की सुन्न में अर्थात् गुप्त स्थान पर ब्रह्मा-विष्णु-शिव जी की उत्पत्ति की तथा वह परमात्मा कौन है जिसने ब्रह्म (काल) के मुख से चारों वेदों (पवित्र ऋग्वेद, यजुर्वेद, सामवेद, अथर्ववेद) को उच्चारण करवाया, वह पूर्ण परमात्मा जैसा चाहे वैसे ही प्रत्येक प्राणी को बुलवाता है। इस सर्व ज्ञान को पूर्ण बताने वाला सन्त मिल जाए तो उसके पास जाइए तथा जो सभी शंकाओं का पूर्ण निवारण करता है, वही पूर्ण सन्त अर्थात् तत्वदर्शी है।
श्री गुरु ग्रन्थ साहेब पृष्ठ 929 अमृत वाणी श्री नानक साहेब जी की राग रामकली महला 1 दखणी ओअंकार
ओअंकारि ब्रह्मा उतपति। ओअंकारू कीआ जिनि चित। ओअंकारि सैल जुग भए। ओअंकारि बेद निरमए। ओअंकारि सबदि उधरे। ओअंकारि गुरुमुखि तरे। ओनम अखर सुणहू बीचारु। ओनम अखरु त्रिभवण सारु।
उपरोक्त अमृतवाणी में श्री नानक साहेब जी कह रहे हैं कि ओंकार अर्थात् ज्योति निरंजन (काल) से ब्रह्मा जी की उत्पत्ति हुई। कई युगों मस्ती मार कर ओंकार (ब्रह्म) ने वेदों की उत्पत्ति की जो ब्रह्मा जी को प्राप्त हुए। तीन लोक की भक्ति का केवल एक ओउम् मंत्र ही वास्तव में जाप करने का है। इस ओउम् शब्द को पूरे संत से उपदेश लेकर अर्थात् गुरू धारण करके जाप करने से उद्धार होता है।
विशेष:- श्री नानक साहेब जी ने तीनों मंत्रों (ओउम् + तत् + सत्) का स्थान-स्थान पर रहस्यात्मक विवरण दिया है। उसको केवल पूर्ण संत (तत्वदर्शी संत) ही समझ सकता है तथा तीनों मंत्रों के जाप को उपदेशी को समझाया जाता है।
(पृ. 1038) उत्तम सतिगुरु पुरुष निराले, सबदि रते हरि रस मतवाले।
रिधि, बुधि, सिधि, गिआन गुरु ते पाइए, पूरे भाग मिलाईदा।।(15)
सतिगुरु ते पाए बीचारा, सुन समाधि सचे घरबारा।
नानक निरमल नादु सबद धुनि, सचु रामैं नामि समाइदा (17)
उपरोक्त अमृतवाणी का भावार्थ है कि वास्तविक ज्ञान देने वाले सतगुरु तो निराले ही हैं, वे केवल नाम जाप को जपते हैं, अन्य हठयोग साधना नहीं बताते। यदि आप को धन दौलत, पद, बुद्धि या भक्ति शक्ति भी चाहिए तो वह भक्ति मार्ग का ज्ञान पूर्ण संत ही पूरा प्रदान करेगा, ऐसा पूर्ण संत बडे़ भाग्य से ही मिलता है। वही पूर्ण संत विवरण बताएगा कि ऊपर सुन्न (आकाश) में अपना वास्तविक घर (सत्यलोक) परमेश्वर ने रच रखा है।
उसमें एक वास्तविक सार नाम की धुन (आवाज) हो रही है। उस आनन्द में अविनाशी परमेश्वर के सार शब्द से समाया जाता है अर्थात् उस वास्तविक सुखदाई स्थान में वास हो सकता है, अन्य नामों तथा अधूरे गुरुओं से नहीं हो सकता।
आंशिक अमृतवाणी महला पहला (श्री गु. ग्र. पृ. 359-360)
सिव नगरी महि आसणि बैसउ कलप त्यागी वादं। (1)
सिंडी सबद सदा धुनि सोहै अहिनिसि पूरै नादं। (2)
हरि कीरति रह रासि हमारी गुरु मुख पंथ अतीतं (3)
सगली जोति हमारी संमिआ नाना वरण अनेकं।
कह नानक सुणि भरथरी जोगी पारब्रह्म लिव एकं।(4)
उपरोक्त अमृतवाणी का भावार्थ है कि श्री नानक साहेब जी कह रहे हैं कि हे भरथरी योगी जी आप की साधना भगवान शिव तक है, उससे आप को शिव नगरी (लोक) में स्थान मिला है और शरीर में जो सिंगी शब्द आदि हो रहा है वह इन्हीं कमलों का है तथा टेलीविजन की तरह प्रत्येक देव के लोक से शरीर में सुनाई दे रहा है।
हम तो एक परमात्मा पारब्रह्म अर्थात् सर्व से पार जो पूर्ण परमात्मा है अन्य किसी और एक परमात्मा में लौ (अनन्य मन से लग्न) लगाते हैं।
हम ऊपरी दिखावा (भस्म लग���ना, हाथ में दंडा रखना) नहीं करते। मैं तो सर्व प्राणियों को एक पूर्ण परमात्मा (सतपुरुष) की सन्तान समझता हूँ। सर्व उसी शक्ति से चलायमान हैं। हमारी मुद्रा तो सच्चा नाम जाप गुरु से प्राप्त करके करना है तथा क्षमा करना हमारा बाणा (वेशभूषा) है। मैं तो पूर्ण परमात्मा का उपासक हूँ तथा पूर्ण सतगुरु का भक्ति मार्ग इससे भिन्न है।
अमृतवाणी राग आसा महला 1 (श्री गु. ग्र. पृ. 420)
।।आसा महला 1।। जिनी नामु विसारिआ दूजै भरमि भुलाई। मूलु छोड़ि डाली लगे किआ पावहि छाई।।1।। साहिबु मेरा एकु है अवरु नहीं भाई। किरपा ते सुखु पाइआ साचे परथाई।।3।। गुर की सेवा सो करे जिसु आपि कराए। नानक सिरु दे छूटीऐ दरगह पति पाए।।8।।18।।
उपरोक्त वाणी का भावार्थ है कि श्री नानक साहेब जी कह रहे हैं कि जो पूर्ण परमात्मा का वास्तविक नाम भूल कर अन्य भगवानों के नामों के जाप में भ्रम रहे हैं वे तो ऐसा कर रहे हैं कि मूल (पूर्ण परमात्मा) को छोड़ कर डालियों (तीनों गुण रूप रजगुण-ब्रह्मा, सतगुण-विष्णु, तमगुण-शिवजी) की सिंचाई (पूजा) कर रहे हैं। उस साधना से कोई सुख नहीं हो सकता अर्थात् पौधा सूख जाएगा तो छाया में नहीं बैठ पाओगे। भावार्थ है कि शास्त्र विधि रहित साधना करने से व्यर्थ प्रयत्न है। कोई लाभ नहीं। इसी का प्रमाण पवित्र गीता अध्याय 16 श्लोक 23-24 में भी है। उस पूर्ण परमात्मा को प्राप्त करने के लिए मनमुखी (मनमानी) साधना त्याग कर पूर्ण गुरुदेव को समर्पण करने से तथा सच्चे नाम के जाप से ही मोक्ष संभव है, नहीं तो मृत्यु के उपरांत नरक जाएगा।
(श्री गुरु ग्रन्थ साहेब पृष्ठ नं. 843-844)
।।बिलावलु महला 1।। मैं मन चाहु घणा साचि विगासी राम। मोही प्रेम पिरे प्रभु अबिनासी राम।। अविगतो हरि नाथु नाथह तिसै भावै सो थीऐ। किरपालु सदा दइआलु दाता जीआ अंदरि तूं जीऐ। मैं आधारु तेरा तू खसमु मेरा मै ताणु तकीआ तेरओ। साचि सूचा सदा नानक गुरसबदि झगरु निबेरओ।।4।।2।।
उपरोक्त अमृतवाणी में श्री नानक साहेब जी कह रहे हैं कि अविनाशी पूर्ण परमात्मा नाथों का भी नाथ है अर्थात् देवों का भी देव है (सर्व प्रभुओं श्री ब्रह्मा जी, श्री विष्णु जी, श्री शिव जी तथा ब्रह्म व परब्रह्म पर भी नाथ है अर्थात् स्वामी है) मैं तो सच्चे नाम को हृदय में समा चुका हूँ। हे परमात्मा ! सर्व प्राणी का जीवन आधार भी आप ही हो। मैं आपके आश्रित हूँ आप मेरे मालिक हो। आपने ही गुरु रूप में आकर सत्यभक्ति का निर्णायक ज्ञान देकर सर्व झगड़ा निपटा दिया अर्थात् सर्व शंका का समाधान कर दिया।
(श्री गुरु ग्रन्थ साहेब पृष्ठ नं. 721, राग तिलंग महला 1)
यक अर्ज गुफतम् पेश तो दर कून करतार।
हक्का कबीर करीम तू बेअब परवरदिगार।
नानक बुगोयद जन तुरा तेरे चाकरां पाखाक।
उपरोक्त अमृतवाणी में स्पष्ट कर दिया कि हे (हक्का कबीर) आप सत्कबीर (कून करतार) शब्द शक्ति से रचना करने वाले शब्द स्वरूपी प्रभु अर्थात् सर्व सृष्टि के रचन हार हो, आप ही बेएब निर्विकार (परवरदिगार) सर्व के पालन कर्ता दयालु प्रभु हो, मैं आपके दासों का भी दास हूँ।
(श्री गुरु ग्रन्थ साहेब पृष्ठ नं. 24, राग सीरी महला 1)
तेरा एक नाम तारे संसार, मैं ऐहा आस ऐहो आधार।
नानक नीच कहै बिचार, धाणक रूप रहा करतार।।
उपरोक्त अमृतवाणी में प्रमाण किया है कि जो काशी में धाणक (जुलाहा) है यही (करतार) कुल का सृजनहार है। अति आधीन होकर श्री नानक साहेब जी कह रहे हैं कि मैं सत कह रहा हूँ कि यह धाणक अर्थात् कबीर जुलाहा ही पूर्ण ब्रह्म (सतपुरुष) है।
विशेष:- उपरोक्त प्रमाणों के सांकेतिक ज्ञान से प्रमाणित हुआ सृष्टि रचना कैसे हुई? पूर्ण परमात्मा की प्राप्ति करनी चाहिए जो पूर्ण संत से नाम लेकर ही संभव है।
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सृष्टी की रचना
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प्रभु प्रेमी आत्माए प्रथम बार निम्न सृष्टी की रचना को पढेगे तो ऐसे लगेगा जैसे दन्त कथा हो, परन्तु सर्व पवित्र सद्ग्रन्थों के प्रमाणों को पढ़कर दाँतों तले ऊँगली दबाएँगे कि यह वास्तविक अमृत ज्ञान कहाँ छुपा था? कृप्या धैर्य के साथ पढ़ते रहिए तथा इस अमृत ज्ञान को सुरक्षित रखिए। आप की एक सौ एक पीढ़ी तक काम आएगा।
पवित्रात्माएँ कृप्या सत्यनारायण(अविनाशी प्रभु/सतपुरुष) द्वारा रची सृष्टी रचना का वास्तविक ज्ञान पढ़े।
1. पूर्ण ब्रह्म :- इस सृष्टी रचना में सतपुरुष-सतलोक का स्वामी (प्रभु), अलख पुरुष अलख लोक का स्वामी (प्रभु), अगम पुरुष-अगम लोक का स्वामी (प्रभु) तथा अनामी पुरुष- अनामी अकह लोक का स्वामी (प्रभु) तो एक ही पूर्ण ब्रह्म है, जो वास्तव में अविनाशी प्रभु है जो भिन्न-२ रूप धारणकरके अपने चारों लोकों में रहता
है। जिसके अन्तर्गत असंख्य ब्रह्माण्ड आते हैं।
2. परब्रह्म :- यह केवल सात संख ब्रह्माण्ड का स्वामी (प्रभु) है। यह अक्षर पुरुष भी कहलाता है। परन्तु यह तथा इसके ब्रह्माण्ड भी वास्तव में अविनाशी नहीं है।
3. ब्रह्म :- यह केवल इक्कीस ब्रह्माण्ड का स्वामी (प्रभु) है। इसे क्षर पुरुष,ज्योति निरंजन, काल आदि उपमा से जाना जाता है। यह तथा इसके सर्व ब्रह्माण्ड नाशवान हैं।
(उपरोक्त तीनों पुरूषों (प्रभुओं) का प्रमाण पवित्र श्री मद्भगवत गीता अध्याय
15 श्लोक 16-17 में भी है।)
4. ब्रह्मा:- ब्रह्म का ज्येष्ठ पुत्र है, विष्णु मध्य वाला पुत्र है तथा शिव ब्रह्म का अंतिम तीसरा पुत्र है। ये तीनों ब्रह्म के पुत्र केवल एक ब्रह्माण्ड में एक विभाग (गुण) के स्वामी (प्रभु) हैं तथा नाशवान हैं। विस्तृत विवरण के लिए कृप्या पढ़े निम्न लिखित सृष्टी रचना-
{कविर्देव (कबीर परमेश्वर) ने सुक्ष्म वेद अर्थात कबीर वाणी में अपने द्वारा रची सृष्टी का ज्ञान स्वयं ही बताया है जो निम्नलिखित है}
सर्व प्रथम केवल एक स्थान अनामी (अनामय) लोक' था। जिसे अकह लोक भी कहा जाता है, पूर्ण परमात्मा उस अनामी लोक में अकेला रहता था। उस परमात्मा का वास्तविक नाम कविर्देव अर्थात् कबीर परमेश्वर है। सभी आत्माएँ उस पूर्ण धनी के शरीर में समाई हुई थी। इसी कविर्देव का उपमात्मक (पदवी का) नाम अनामी पुरुष है (पुरुष का अर्थ प्रभु होता है। प्रभु ने मनुष्य को अपने ही स्वरूप में बनाया है, इसलिए मानव का नाम भी पुरुष ही पड़ा है।) अनामी पुरूष के एक रोम कूप का प्रकाश संख सूर्यों की रोशनी से भी अधिक है।
विशेष :- जैसे किसी देश के आदरणीय प्रधान मंत्री जी का शरीर का नाम तोअन्य होता है तथा पद का उपमात्मक (पदवी का) नाम प्रधानमंत्री होता है। कई बार प्रधानमंत्री जी अपने पास कई विभाग भी रख लेते हैं। तब जिस भी विभाग के दस्तावेजों पर हस्ताक्षर करते हैं तो उस समय उसी पद को लिखते हैं। जैसे गृह मंत्रालय के दस्तावेजों पर हस्ताक्षर करेगेंतो अपने को गृह मंत्री लिखेगें। वहाँ उसी व्यक्ति के हस्ताक्षर की शक्ति कम होती है। इसी प्रकार कबीर परमेश्वर (कविर्देव) की रोशनी में अंतर भिन्न-२ लोकों में होता जाता है।
ठीक इसी प्रकार पूर्ण परमात्मा कविर्देव (कबीर परमेश्वर) ने नीचे के तीन और लोकों (अगमलोक, अलख लोक, सतलोक) की रचना शब्द(वचन) से की।
यही पूर्णब्रह्म परमात्मा कविर्देव (कबीर परमेश्वर) ही अगम लोक में प्रकट हुआ तथा कविर्देव (कबीर परमेश्वर) अगम लोक का भी स्वामी है तथा वहाँ इनका उपमात्मक
(पदवी का) नाम अगम पुरुष अर्थात् अगम प्रभु है। इसी अगम प्रभु का मानव सदृश शरीर बहुत तेजोमय है जिसके एक रोम कूप की रोशनी खरब सूर्य की रोशनी से
भी अधिक है।
यह पूर्ण कविर्देव (कबिर देव=कबीर परमेश्वर) अलख लोक में प्रकट परमात्मा हुआ तथा स्वयं ही अलख लोक का भी स्वामी है तथा उपमात्मक (पदवी का) नाम अलख पुरुष भी इसी परमेश्वर का है तथा इस पूर्ण प्रभु का मानव सदृश शरीर तेजोमय (स्वज्योंति) स्वयं प्रकाशित है। एक रोम कूप की रोशनी अरब सूर्यों के प्रकाश से भी ज्यादा है। यही पूर्ण प्रभु सतलोक में प्रकट हुआ तथा सतलोक का भी अधिपति यही ��ै। इसलिए इसी का उपमात्मक (पदवी का) नाम सतपुरुष (अविनाशी प्रभु)है। इसी
का नाम अकालमूर्ति - शब्द स्वरूपी राम - पूर्ण ब्रहम - परम अक्षर ब्रहम आदि हैं।
इसी सतपुरुष कविर्देव (कबीर प्रभु) का मानव सदृश शरीर तेजोमय है। जिसके एक रोमकूप का प्रकाश करोड़ सूयों तथा इतने ही चन्द्रमाओं के प्रकाश से भी अधिक है।
इस कविर्देव (कबीर प्रभु) ने सतपुरुष रूप में प्रकट होकर सतलोक में विराजमान होकर प्रथम सतलोक में अन्य रचना की।
एक शब्द (वचन) से सोलह द्वीपों की रचना की। फिर सोलह शब्दों से सोलह पुत्रों की उत्पत्ति की। एक मानसरोवर की रचना की जिसमें अमृत भरा।
सोलह पुत्रों
के नाम हैं :-
(1) “कूर्म',
(2)'ज्ञानी',
(3) 'विवेक',
(4) 'तेज',
(5) “सहज
(6) “सन्तोष',
(7)'सुरति”,
(8) “आनन्द',
(9) 'क्षमा',
(10) “निष्काम
(11) ‘जलरंगी'
(12)“अचिन्त',
(13) 'प्रेम',
(14) “दयाल',
(15) 'धैर्य'
(16) योग संतायन' अथति ''योगजीत
सतपुरुष कविर्देव ने अपने पुत्र अचिन्त को सतलोक की अन्य रचना का भार सौंपा तथा शक्ति प्रदान की। अचिन्त ने अक्षर पुरुष (परब्रह्म) की शब्द से उत्पत्ति की तथा कहा कि मेरी मदद करना। अक्षर पुरुष स्नान करने मानसरोवर पर गया वहाँ आनन्द आया तथा सो गया।
लम्बे समय तक बाहर नहीं आया। तब अचिन्त की प्रार्थना पर अक्षर पुरुष को नींद से जगाने के लिए कविर्देव (कबीर परमेश्वर) ने उसी मानसरोवर से कुछ अमृत जल लेकर एक अण्डा बनाया तथा उस अण्डे में एक आत्मा प्रवेश की तथा अण्डे को मानसरोवर के अमृत जल में छोड़ा। अण्डे
की गड़गड़ाहट से अक्षर पुरुष की निंद्रा भंग हुई। उसने अण्डे को क्रोध से देखा
जिस कारण से अण्डे के दो भाग हो गए। उसमें से ज्योति निंरजन (क्षर पुरुष)
निकला जो आगे चलकर ‘काल’ कहलाया। इसका वास्तविक नाम 'कैल' है।
तब सतपुरुष (कविर्देव) ने आकाशवाणी की कि आप दोनों बाहर आओ तथा अचिंत के द्वीप में रहो। आज्ञा पाकर अक्षर पुरुष तथा क्षर पुरुष (कैल) दोनों अचिंत के द्वीप
में रहने लगे (बच्चों की नालायकी उन्हीं को दिखाई कि कहीं फिर प्रभुता की तड़प न बन जाए, क्योंकि समर्थ बिन कार्य सफल नहीं होता) फिर पूर्ण धनी कविर्देव नेसर्व रचना स्वयं की। अपनी शब्द शक्ति से एक राजेश्वरी (राष्ट्री) शक्ति उत्पन्न की, जिससे सर्व ब्रह्माण्डों को स्थापित किया। इसी को पराशक्ति परानन्दनी भी कहते हैं। पूर्ण ब्रह्म ने सर्व आत्माओं को अपने ही अन्दर से अपनी वचन शक्ति से अपने मानव शरीर सदृश उत्पन्न किया। प्रत्येक हंस आत्मा का परमात्मा जैसा ही शरीर रचा जिसका तेज 16 (सोलह) सूर्या जैसा मानव सदृश ही है। परन्तु परमेश्वर के शरीर के एक रोम कूप का प्रकाश करोड़ों सूयों से भी ज्यादा है। बहुत समयउपरान्त क्षर पुरुष (ज्योति निरंजन) ने सोचा कि हम तीनों (अचिन्त - अक��षर पुरुष और क्षर पुरुष) एक द्वीप में रह रहे हैं तथा अन्य एक-एक द्वीप में रह रहे हैं। मैं भी साधना करके अलग द्वीप प्राप्त करूंगा। उसने ऐसा विचार करके एक पैर पर खड़ाहोकर सत्तर (70) युग तक तप किया।
आत्माएँ काल के जाल में कैसे फंसी
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विशेष :- जब ब्रह्म (ज्योति निरंजन) तप कर रहा था हम सभी आत्माएँ, जो आज ज्योति निरंजन के इक्कीस ब्रह्माण्डों में रहते हैं इसकी साधना पर आसक्त होगए तथा अन्तरात्मा से इसे चाहने लगे। अपने सुखदाई प्रभु सत्य पुरूष से विमुख हो गए। जिस कारण से पतिव्रता पद से गिर गए।
पूर्ण प्रभु के बार-बार सावधान करने पर भी हमारी आसक्ति क्षर पुरुष से नहीं हटी।{यही प्रभाव आज भी इस काल की स्रष्टी में विद्यमान है। जैसे नौजवान बच्चे फिल्म स्टारों(अभिनेताओं तथा अभिनेत्रियों) की बनावटी अदाओं तथा अपने रोजगार उद्देश्य से कर रहे भूमिका पर अति आसक्त
हो जाते हैं, रोकने से नहीं रूकते। यदि कोई अभिनेता या अभिनेत्री निकटवर्ती शहर
में आ जाए तो देखें उन नादान बच्चों की भीड़ केवल दर्शन करने के लिए बहु संख्या
में एकत्रित हो जाती हैं। 'लेना एक न देने दो' रोजी रोटी अभिनेता कमा रहे हैं, नौजवान
बच्चे लुट रहे हैं। माता-पिता कितना ही समझाएँ किन्तु बच्चे नहीं मानते। कहीं न कहीं कभी न कभी, लुक-छिप कर जाते ही रहते हैं।}
पूर्ण ब्रह्मा कविर्देव (कबीर प्रभु) ने क्षर पुरुष से पूछा कि बोलो क्या चाहते हो? उसने कहा कि पिता जी यह स्थान मेरे लिए कम है, मुझे अलग से द्वीप प्रदानकरने की कृपा करें। हक्का कबीर (सत्तू कबीर) ने उसे 21 (इक्कीस) ब्रह्मण्ड प्रदानकर दिए।
कुछ समय उपरान्त ज्योति निरंजन ने सोचा इस में कुछ रचना करनी चाहिए। खाली ब्रह्मण्ड(प्लाट) किस काम के। यह विचार कर 70 युग तप करके पूर्ण परमात्मा कविर्देव (कबीर प्रभु) से रचना सामग्री की याचना की। सतपुरुष ने उसे तीन गुण तथा पाँच तत्व प्रदान कर दिए, जिससे ब्रह्म (ज्योति निरंजन) ने अपने ब्रह्माण्डों में कुछ रचना की। फिर सोचा कि इसमें जीव भी होने चाहिए, अकेले का दिल नहीं लगता। यह विचार करके 64 (चौसठ) युग तक फिर तप किया। पूर्ण परमात्मा कविरदेव के पूछने पर बताया कि मुझे कुछ आत्मा दे दो, मेरा अकेले का दिल नहीं लग रहा। तब सतपुरुष कविरग्नि (कबीर परमेश्वर) ने कहा कि ब्रहम तेरे तप के प्रतिफल में मैं तुझे और ब्रह्मण्ड दे सकता हूँ, परन्तु मेरी आत्माओं को किसी भी जप-तप साधना के फल रूप में नहीं दे सकता। हाँ, यदि कोई स्वेच्छा से तेरे साथ जाना चाहे तो वह जा सकता है।
युवा कवि (समर्थ कबीर) के वचनसुन कर ज्योति निरंजन हमारे पास आया। हम सभी हंस आत्मा पहले से ही उसपर आसक्त थे। हम उसे चारों तरफ से घेर कर खड़े हो गए। ज्योति निंरजन ने कहा कि मैंने पिता जी से अलग 21 ब्रह्मण्ड प्राप्त किए हैं। वहाँ नाना प्रकार के रमणीय स्थल बनाए हैं। क्या आप मेरे साथ चलोगे? हम सभी हंसों ने जो आज21 ब्रह्यण्डों में परेशान हैं, कहा कि हम तैयार हैं। यदि पिता जी आज्ञा दें तब क्षरपुरुष पूर्ण ब्रह्म महान् कविर (समर्थ कबीर प्रभु) के पास गया तथा सर्व वात कही।
तब कविरग्नि (कबीर परमेश्वर) ने कहा कि मेरे सामने स्वीकृति देने वाले को आज्ञा
दूंगा। क्षर पुरुष तथा परम अक्षर पुरुष (कविरमितौजा) दोनों हम सभी हंसात्माओं
के पास आए। सत् कविर्देव ने कहा कि जो हंस आत्मा ब्रह्म के साथ जाना चाहता
है हाथ ऊपर करके स्वीकृति दे। अपने पिता के सामने किसी की हिम्मत नहीं हुई।किसी ने स्वीकृति नहीं दTI बहुत समय तक सन्नाटा छाया रहा। तत्पश्चात् एक हंस आत्मा ने साहस किया तथा कहा कि पिता जी मैं जाना चाहता हूँ। फिर तो उसकी देखा-देखी (जो आज काल (ब्रह्म) के इक्कीस ब्रह्मण्डों में फंसी हैं) हम सभी आत्माओं ने स्वीकति दे दी।
परमेश्वर कबीर जी ने ज्योति निरंजन से कहा कि आप अपने स्थान पर जाओ। जिन्होंने तेरे साथ जाने की स्वीकृति दी है। मैं उन सर्वहंस आत्माओं को आपके पास भेज दूंगा। ज्योति निरंजन अपने 21 ब्रह्मण्डों में चला गया। उस समय तक यह इक्कीस ब्रह्माण्ड सतलोक में ही थे। पूर्ण ब्रह्म ने सर्व प्रथम स्वीकृति देने वाले हंस को लड़की का रूपदिया परन्तु स्त्री इन्द्री नहीं रची तथा सर्व आत्माओं को (जिन्होंने ज्योति निरंजन (ब्रह्म) के साथ जाने की सहमति दी थी) उस लड़की के शरीर में प्रवेश कर दियातथा उसका नाम आष्ट्रा (आदि माया/ प्रकृति देवी/ दुर्गा) पड़ा तथा सत्य पुरूष ने कहा कि पुत्री मैंने तेरे को शब्द शक्ति प्रदान कर दी है जितने जीव ब्रह्म कहे आप उत्पन्न कर देना। पूर्ण ब्रह्म कविर्देव (कबीर साहेब) अपने पुत्र सहज दास के द्वारा प्रकृति को क्षर पुरुष के पास भिजवा दिया। सहज दास जी ने ज्योति निरंजन को बताया कि पिता जी ने इस बहन के शरीर में उन सर्व आत्माओं को प्रवेश कर दिया है जिन्होंने आपके साथ जाने की सहमति व्यक्त की थी तथा इसको पिता जी ने वचन शक्ति प्रदान की है, आप जितने जीव चाहोगे प्रकति अपने शब्द से उत्पन्न कर देगी। यह कह कर सहजदास वापिस अपने द्वीप में आ गया।
युवा होने के कारण लड़की का रंग-रूप निखरा हुआ था। ब्रह्म के अन्दर विषय-वासना उत्पन्न हो गई तथा प्रक्रति ( कालान्तर में दुर्गा देवी इसी का नाम पडा) देवी के साथ अभद्र गति विधि प्रारम्भ की। तब दुर्गा ने कहा कि ज्योति निरंजन मेरे पास पिता जी की प्रदान की हुई शब्द शक्ति है। आप जितने प्राणी कहोगे मैं वचन से उत्पन्न कर दूंगी। आप मैथुन परम्परा शुरु मत करो। आप भी उसी पिता के शब्द से अण्डे से उत्पन्न हुए हो तथा मैं भी उसी परमपिता के वचन से ही बाद में उत्पन्न हुई हूँ। आप मेरे बड़े भाई हो, बहन-भाई का यह योग महापाप का कारण बनेगा। परन्तु ज्योति निरंजन ने प्रकृति देवी की एक भी प्रार्थना नहीं सुनी तथा अपनी शब्द शक्ति द्वारा नाखुनों से स्त्री इन्द्री (भग) प्रकृति को लगा दी तथा बलात्कार करने की ठानी।
उसी समय दुर्गा ने अपनी इज्जत रक्षा के लिए कोई और चारा न देख सुक्ष्म रूप बनाया तथा ज्योति निरंजन के खुले मुख के द्वारा पेट में प्रवेश करके पूर्णब्रह्म कविरदेव से अपनी रक्षा के लिए याचना की। उसी समय कविर्देव (कवि देव) अपने पुत्र योग
संतायन अर्थात् जोगजीत का रूप बनाकर वहाँ प्रकट हुए तथा कन्या को ब्रह्म के उदर से बाहर निकाला तथा कहा कि ज्योति निरंजन आज से तेरा नाम 'काल' होगा। तेरे जन्म-मृत्यु होते रहेंगे। इसीलिए तेरा नाम क्षर पुरुष होगा तथा एक लाख मानव शरीर धारी प्राणियों को प्रतिदिन खाया करेगा व सवा लाख उत्पन्न किया करेगा। आप दोनों को इक्कीस ब्रह्माण्ड सहित निष्कासित किया जाता है।
इतना कहते ही इक्कीस ब्रह्माण्ड विमान की तरह चल पड़े। सहज दास के द्वीप के पास से होते हुए सतलोक से सोलह संख कोस (एक कोस लगभग 3 कि. मी. का होता है) की दूरी पर आकर रूक गए।
विशेष विवरण - अब तक तीन शक्तियों का विवरण आया है।
1. पूर्णब्रह्म - जिससे अन्य उपमात्मक नामों से भी जाना जाता है, जैसे सतपुरुष अकालपुरुष, शब्द स्वरूपी राम, परम अक्षर ब्रह्म/पुरुष आदि। यह पूर्णब्रह्म असंख्यब्रह्मण्डों का स्वामी है तथा वास्तव में अविनाशी है।
2. परब्रह्म - जिसे अक्षर पुरुष भी कहा जाता है। यह वास्तव में अविनाशी नहीं है। यह सात शंख ब्रह्माण्डों का स्वामी है।
3. ब्रह्म - जिसे ज्योति निरंजन, काल, कैल, क्षर पुरुष तथा धर्मराय आदि नामों
से जाना जाता है, जो केवल इक्कीस ब्रह्माण्ड का स्वामी है। अब आगे इसी ब्रह्मा
(काल) की सृष्टी के एक ब्रह्माण्ड का परिचय दिया जाएगा, जिसमें तीन और नाम आपके पढ़ने में आयेंगे - ब्रह्मा, विष्णु तथा शिव।
ब्रह्म तथा ब्रह्मा में भेद - एक ब्रह्माण्ड में बने सर्वोपरि स्थान पर ब्रहम (क्षर पुरुष) स्वयं तीन गुप्त स्थानों की रचना करके ब्रह्मा, विष्णु तथा शिव रूप में रहता है तथा अपनी पत्नी प्रकृति (दुर्गा) के सहयोग से तीन पुत्रों की उत्पत्ति करता है। उनके नाम भी ब्रह्मा, विष्णु तथा शिव ही रखता है।
जो ब्रह्म का पुत्र ब्रह्मा है वह एक ब्रह्माण्ड में केवल तीन लोकों (पृथ्वी लोक, स्वर्ग लोक तथा पाताल लोक) में एक रजोगुण विभाग का मंत्री (स्वामी) है। इसे त्रिलोकीय ब्रह्मा कहा है तथा ब्रह्म जो ब्रह्मलोक में ब्रह्म रूप में रहता है उसे महाब्रह्मा व ब्रह्मलोकीय ब्रह्मा कहा है।
इसी ब्रह्म (काल) को सदाशिव, महाशिव, महाविष्णु भी कहा है.
श्री विष्णु पुराण में प्रमाण :- चतुर्थ अंश अध्याय 1 पृष्ठ 230-231 पर श्री ब्रह्माजी ने कहा :- जिस अजन्मा, सर्वमय विधाता परमेश्वर का आदि, मध्य, अन्त,स्वरूप, स्वभाव और सार हम नहीं जान पाते (श्लोक 83)
जो मेरा रूप धारण कर संसार की रचना करता है, स्थिति के समय जो पुरूष रूप है तथा जो रूद्र रूप से विश्व का ग्रास कर जाता है, अनन्त रूप से सम्पूर्ण जगत् को धारण करता है। (श्लोक 86 )
"श्री ब्रह्मा जी, श्री विष्णु जी व श्री शिव जी की उत्पत्ति ”
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काल (ब्रह्म) ने प्रकृति (दुर्गा) से कहा कि अब मेरा कौन क्या बिगाडेगा? मनमानी करूंगा प्रक्रति ने फिर प्रार्थना की कि आप कुछ तो शर्म करो । प्रथम तो आप मेरे बड़े भाई हो, क्योंकि उसी पूर्ण परमात्मा (कविर्देव) की वचन शक्ति से आप की (ब्रह्म की) अण्डे से उत्पत्ति हुई तथा बाद में मेरी उत्पत्ति उसी परमेश्वर के वचन से हुई है। दूसरे मैं आपके पेट से बाहर निकली हूँ, मैं आपकी बेटी हुई तथा आप मेरे पिता हुए। इन पवित्र नातों में बिगाड़ करना महापाप होगा। मेरे पास पिता की प्रदान की हुई शब्द शक्ति है, जितने प्राणी आप कहोगे मैं वचन से उत्पन्न कर दूंगी।
ज्योति निरंजन ने दुर्गा की एक भी विनय नहीं सुनी तथा कहा कि मुझे जो सजा मिलनी थी मिल गई, मुझे सतलोक से निष्कासित कर दिया। अब मनमानी करूंगा। यह कह कर काल पुरूष (क्षर पुरूष) ने प्रकृति के साथ जबरदस्ती शादी
की तथा तीन पुत्रों (रजगुण युक्त - ब्रह्मा जी, सतगुण युक्त - विष्णु जी तथा तमगुण युक्त - शिव शंकर जी) की उत्पत्ति की.
जवान होने तक तीनों पुत्रों को दुर्गा के द्वारा अचेत करवा देता है, फिर युवा होने पर श्री ब्रह्मा जी को कमल के फूल पर, श्री विष्णु जी को शेष नाग की शैय्या पर तथा श्री शिव जी को कैलाश पर्वत पर सचेत करके इक्ट्ठे कर देता है। तत्पश्चात् प्रकृति (दुर्गा) द्वारा इन तीनों का विवाह कर दिया जाता है तथा एक ब्रह्माण्ड में तीन लोकों (स्वर्ग लोक, पृथ्वी लोक तथा पाताल लोक) में एक-एक विभाग के मंत्री (प्रभु) नियुक्त कर देता है।
जैसे श्री ब्रह्मा जी को रजोगुण विभाग का तथा विष्णु जी को सत्तोगुण विभाग का
तथा श्री शिव शंकर जी को तमोगुण विभाग का तथा स्वयं गुप्त (महाब्रह्मा
महाविष्णु - महाशिव) रूप से मुख्य मंत्री पद को संभालता है।
एक ब्रह्माण्ड में एक ब्रह्मलोक की रचना की है। उसी में तीन गुप्त स्थान बनाए हैं। एक रजोगुण प्रधान स्थान है जहाँ पर यह ब्रह्म (काल) स्वयं महाब्रह्मा (मुख्यमंत्री) रूप में रहता है तथा अपनी पत्नी दुर्गा को महासावित्री रूप में रखता है। इन दोनों के संयोग से जो पुत्र इस स्थान पर उत्पन्न होता है वह स्वत: ही रजोगुणी बन जाता है। दूसरा स्थान सतोगुण प्रधान स्थान बनाया है। वहाँ पर यह क्षर पुरुष स्वयं महाविष्णु रूप बना कर रहता है तथा अपनी पत्नी दुर्गा को महालक्ष्मी रूप में रख कर जो पुत्र उत्पन्न करता है उसका नाम विष्णु रखता है, वह बालक सतोगुण युक्त होता है तथा
तीसरा इसी काल ने वहीं पर एक तमोगुण प्रधान क्षेत्र बनाया है। उसमें यह स्वयं
सदाशिव रूप बनाकर रहता है तथा अपनी पत्नी दुर्गा को महापार्वती रूप में रखता
है। इन दोनों के पति-पत्नी व्यवहार से जो पुत्र उत्पन्न होता है उसका नाम शिव रख देते हैं तथा तमोगुण युक्त कर देते हैं।
(प्रमाण के लिए देखें पवित्र श्री शिव
महापुराण, विद्यवेश्वर संहिता पृष्ठ 24-26 जिस में ब्रहमा, विष्णु, रूद्र तथा महेश्वर
से अन्य सदाशिव है तथा रूद्र संहिता अध्याय 6 तथा 7, 9 पृष्ठ नं. 100 से, 105
तथा 110 पर अनुवाद कर्ता श्री हनुमान प्रसाद पोद्दार, गीता प्रैस गोरख पुर से
प्रकाशित तथा पवित्र श्रीमद्देवीमहापुराण तीसरा स्कद पृष्ठ नं. 14 से 123 तक,गीता प्रेस गोरखपुर से प्रकाशित, जिसके अनुवाद कर्ता हैं श्री हनुमान प्रसाद पोद्दार
चिमन लाल गोस्वामी)
फिर इन्हीं को धोखे में रख कर अपने खाने के लिए जीवों की उत्पत्ति श्री ब्रहमा जी द्वारा तथा स्थिति (एक-दूसरे को मोह-ममता में रख कर काल जाल में रखना) श्री विष्णु जी से तथा संहार (क्योंकि काल पुरुष को शापवश एक लाख मानव शरीर धारी प्राणियों के सूक्ष्म शरीर से मैल निकाल कर खानाहोता है उसके लिए इक्कीसवें ब्रह्माण्ड में एक तप्तशिला है जो स्वत: गर्मी रहती है, उस पर गर्म करके मैल पिंघला कर खाता है, जीव मरते नहीं परन्तु कष्ट असहनीय होता है, फिर प्राणियों को कर्म आधार पर अन्य शरीर प्रदान करता है) श्री शिवजी द्वारा करवाता है। जैसे किसी मकान में तीन कमरे बने हों। एक कमरे में अश्लील चित्र लगे हों। उस कमरे में जाते ही मन में वैसे ही मलिन विचार उत्पन्न हो जाते हैं। दूसरे कमरे में साधु-सन्तों, भक्तों के चित्र लगे हों तो मन में अच्छे विचार, प्रभु का चिन्तन ही बना रहता है। तीसरे कमरे में देश भक्तों व शहीदों के चित्र लगे हों तो मन में वैरसे ही जोशीले विचार उत्पन्न हो जाते हैं। ठीक इसी प्रकार ब्रह्म (काल) ने अपनी सूझ-बूझ से उपरोक्त तीनों गुण प्रधान स्थानों की रचना की हुई है।
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jyotishwithakshayg · 9 months
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🚩🚩🚩*व्रत पर्व विवरण - गणेश चतुर्थी, शिवा चतुर्थी, मंगलवारी चतुर्थी* 🚩🚩🚩
⛅विशेष - चतुर्थी को मूली खाने से धन का नाश होता है । पंचमी को बेल खाने से कलंक लगता है ।(ब्रह्मवैवर्त पुराण, ब्रह्म खंडः 27.29-34)
🌹मंगलवारी चतुर्थी - 19 सितम्बर 2023🌹
🔸 पुण्यकाल : सूर्योदय से दोपहर 01:43 तक
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🌹जैसे सूर्य ग्रहण को दस लाख गुना फल होता है, वैसे ही मंगलवारी चतुर्थी को होता है । बहुत मुश्किल से ऐसा योग आता है । मत्स्य पुराण, नारद पुराण आदि शास्त्र में इसकी भारी महिमा है । 
🌹इस दिन अगर कोई जप, दान, ध्यान, संयम करता है तो वह दस लाख गुना प्रभावशाली होता है, ऐसा वेदव्यास जी ने कहा है ।
🔹 कर्जे से छुटकारा के लिए🔹
🔹मंगलवार चतुर्थी को सब काम छोड़ कर जप-ध्यान करना । जप, ध्यान, तप सूर्य-ग्रहण जितना फलदायी है । बिना नमक का भोजन करें, मंगल देव का मानसिक आह्वान करें । चन्द्रमा में गणपति की भावना करके अर्घ्य दें । कितना भी कर्जदार हो... काम धंधे से बेरोजगार हो... रोजी रोटी तो मिलेगी और कर्जे से छुटकारा मिलेगा ।
🌹विघ्न निवारण हेतु🌹
🌹गणेश चतुर्थी के दिन 'ॐ गं गणपतये नमः ।' का जप करने और गुड़मिश्रित जल से गणेशजी को स्नान कराने एवं दूर्वा व सिंदूर की आहुति देने से विघ्नों का निवारण होता है तथा मेधाशक्ति बढ़ती है ।
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singhmanojdasworld · 11 months
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🍃 *ज्ञान गंगा* 🍃
*(Part - 43)*
*यथार्थ ज्ञान प्रकाश विषय*
*परमेश्वर के विषय में शास्त्र क्या बताते हैं ?*
प्रभु - स्वामी - ईश - राम - खुदा - अल्लाह - रब - मालिक - साहेब - देव - भगवान
गौड। यह सर्व शक्ति बोधक शब्द हैं जो भिन्न-भिन्न भाषाओं में उच्चारण किए व लिखे जाते हैं।
‘‘प्रभु‘‘ की महिमा से प्रत्येक प्राणी प्रभावित है कि कोई शक्ति है जो परम सुखदायक व कष्ट निवारक है। वह कौन है? कैसा है? कहाँ है? कैसे मिलता है? यह प्रश्नवाचक चिन्ह अभी तक पूर्ण रूप से नहीं हट पाया। यह शंका इस पुस्तक से पूर्ण रूप से समाप्त हो जाएगी।
जो शक्ति अन्धे को आँखें प्रदान करे, गूंगे को आवाज, बहरे को कानों से श्रवण करवा दे, बाँझ को पुत्र दे, निर्धन को धनवान बना दे, रोगी को स्वस्थ करे, जिस के यदि दर्शन हो जायें तो अति आनन्द हो, जो सर्व ब्रह्मण्डों का रचनहार, पूर्ण शान्तिदायक जगत गुरु तथा सर्वज्ञ है, जिसकी आज्ञा बिना पत्ता भी नहीं हिल सकता अर्थात् सर्वशक्तिमान जिसके सामने कुछ भी असम्भव नहीं है। ऐसे गुण जिसमें है वह वास्तव में प्रभु (स्वामी, ईश, राम, भगवान, खुदा, अल्लाह, रहीम, मालिक, रब, गौड) कहलाता है।
यहाँ पर एक बात विशेष विचारणीय है कि किसी भी शक्ति का ज्ञान किसी शास्त्र से ही होता है। उसी शास्त्र के आधार पर गुरुजन अपने अनुयाइयों को मार्गदर्शन करते हैं। वह शास्त्र (धार्मिक पुस्तकें) हैं चारों वेद (ऋग्वेद, सामवेद, यजुर्वेद, अथर्ववेद), श्री मद्भागवत गीता, श्री मद्भागवत सुधासागर, अठारह पुराण, महाभारत, बाईबल, कुरान आदि प्रमाणित पवित्र शास्त्र हैं। चारों वेद स्वयं पूर्ण परमात्मा के आदेश से ज्योति निरंजन (काल) ने समुद्र के अन्दर अपने स्वांसों के द्वारा गुप्त छिपा दिया तथा प्रथम बार सागर मन्थन के समय यह चारों वेद श्री ब्रह्मा जी को प्राप्त हुए। जो ब्रह्मा जी (क्षर पुरुष के ज्येष्ठ पुत्र) ने पढे़ तथा जैसा समझ सका उसी आधार पर संसार में ज्ञान का प्रचार अपने वंशजों (ऋषियों) के द्वारा करवाया। पूर्ण परमात्मा ने पाँचवां ‘‘स्वसम‘‘ (सूक्ष्म) वेद भी ब्रह्म (काल) को दिया था जो इस ज्योति निरंजन ने अपने पास गुप्त रखा तथा उसे समाप्त कर दिया।
कुछ समय उपरान्त अर्थात् एक कल्प (एक हजार चतुर्युग) के बाद तीन लोक (पृथ्वी लोक, स्वर्गलोक, पाताललोक) के सर्व प्राणी प्रलय (विनाश) हो जाते हैं। फिर ज्योति निरंजन (काल) के निर्देश से ब्रह्मा अपनी रात्री समाप्त होने पर (ब्रह्मा की रात्री एक हजार चतुर्युग की होती है तथा इतना ही दिन) जब दिन प्रारम्भ होता है, रजोगुण से प्रभावित करके प्राणियों की उत्पत्ति तीनों लोकों में शुरू करता है।
तब सतयुग की शुरुआत में वही चारों वेद काल (ब्रह्म) स्वयं ब्रह्मा को फिर प्रदान करता है तथा फिर प्राकृतिक उथल-पुथल के कारण चारों पवित्र वेदों का ज्ञान समाप्त हो जाता है। उसके पश्चात् फिर समय अनुसार अन्य ऋषियों में प्रवेश करके दोबारा लिखवाता है। फिर भी समय अनुसार प्राकृतिक उथल-पुथल के बाद स्वार्थी लोगों के द्वारा वेदों में बदलाव करके वास्तविक ज्ञान संसार से लुप्त कर दिया जाता है। वही काल (ब्रह्म-ज्योति निरंजन) महाभारत युद्ध के समय श्री कृष्ण में प्रवेश करके चारों वेदों का संक्षिप्त विवरण श्रीमद्भागवत गीता के रूप में दिया तथा कहा कि अर्जुन यही ज���ञान मैंने पहले सूर्य से कहा था। उसने अपने पुत्र वैवश्वत् अर्थात् मनु से तथा वैवश्वत् अर्थात् मनु ने अपने पुत्र इक्ष्वाकु से कहा था। परन्तु बीच में यह उत्तम ज्ञान प्राय समाप्त हो गया था।
इस काल (ब्रह्म-ज्योति निरंजन) ने श्री वेदव्यास ऋषि के शरीर में प्रवेश करके चारों वेद, महाभारत, अठारह पुराण, श्रीमद्भागवतगीता, श्री सुधासागर को पुनः लिपिबद्ध (संस्कृत भाषा में) करवाया जो आज सभी को उपलब्ध हैं। ये सर्व शास्त्र श्रेष्ठ हैं। अब इन शास्त्रों को कलयुगी ऋषियों ने भाषा-भाष्य अर्थात् हिन्दी अनुवाद करके अपने विचार मिलाने की कोशिश की है, जो स्पष्ट गलत दिखाई देते हैं और व्याख्या से मेल नहीं खाते हैं। यह सर्व शास्त्र महर्षि व्यास जी द्वारा लगभग 5300 (पाँच हजार तीन सौ) वर्ष पूर्व दोबारा लिखे गए थे। उस समय हिन्दु धर्म, इसाई धर्म, मुसलमान धर्म व सिक्ख धर्म आदि कुछ भी नहीं थे। एक वेदों के मानने वाले आर्य ही हुआ करते थे। कर्म आधार पर जाति होती थी तथा केवल चार वर्ण (क्षत्रि-वैश्य-ब्राह्मण तथा शुद्र) ही थे।
इससे एक तो यह प्रमाणित हो जाता है कि यह सर्व शास्त्र किसी धर्म या व्यक्ति विशेष के लिए नहीं है। यह केवल मानव मात्र के कल्याण हेतु हैं। दूसरे यह प्रमाणित होता है कि हमारे पूर्वज एक थे। जिनके संस्कार आपस में मिले जुले हैं।
सर्व प्रथम पवित्र शास्त्र गीता जी पर विचार करते हैं।
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