स्वर्ग से सुन्दर आंगन (swarag se sundar aangan )
स्वर्ग से सुन्दर आंगन (swarag se sundar aangan ) : जहाँ मुस्कराती माँ मिले
उस घर का पानी है मीठा,
जिस घर में माँ के चेहरे पर मुस्कान मिले,
स्वर्ग से सुन्दर आँगन (swarag se sundar aangan ) है वो ,
जिस आंगन में माँ को भरपूर सम्मान मिले,
* * * * * *
हर रोज बिताते हैं जहाँ थोड़ा वक्त,
माँ का मन बहलाने के लिए,
जिस माँ ने दिया है पूरा जीवन,
इस घर को महकाने के लिए,
हर…
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जननी जन्मभूमि स्वर्ग से महान है Janani janmabhoomi swarg se mahan hai
जननी जन्मभूमि स्वर्ग से महान है Janani janmabhoomi swarg se mahan hai
किसी कवि की यह उक्ति बड़ी ही सारगर्भित है कि – ‘ जन्मदात्री माँ अपरिमित प्रेम में विख्यात है। किन्तु वह भी मातृभूमि के सामने बस मात है।। ‘
जननी और जन्मभूमि दोनों ही महान हैं। जननी को ईश्वर के सदृष और प्रथम गुरू कहा गया है – ईश्वर को सर्वप्रथम ‘त्वमेव माता ’ कहा गया है ओर ‘माता गुरूणां गुरू ’ कह करके माता की सर्वोपरि महिमा बताई गई हे। माता का महत्व हमारे धर्मग्रन्थों में बार – बार विविध रूपों…
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*#हिन्दू_साम्राज्य के जनक कि जन्मदात्री माँ #जीजाबाई एवं #समर्थगुरू जी और हिन्दू साम्राज्य के संस्थापक #श्रीछत्रपतीशिवाजीमहाराज को कोटि कोटि वन्दन* *माँ तो धन्य हैं ही जिन्होनें अपनें पुत्र को राष्ट्र और धर्मं कि स्थापना हेतु पल पल कसोटी पर कसा, वह पुत्र भी धन्य हैं जिन्होंने ने माँ के स्वप्न को स्थापित किया* 4 जून हिन्दू साम्राज्य दिवस कि हार्दिक शुभकामनायें और बधाई 🚩🚩🚩🚩 https://www.instagram.com/p/CBAKJhKj-Iq/?igshid=vl0kxiacs333
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माँ के बिना संसार की कल्पना भी नहीं की जा सकती मां का ओहदा स्वर्ग से भी ऊंचा है
श्रीमद भागवत गीता में कहा गया है कि माँ की सेवा से मिला आशीर्वाद सात जन्म के पापों को नष्ट करता है। यही माँ शब्द की महिमा है। असल में कहा जाए तो माँ ही बच्चे की पहली गुरु होती है एक माँ आधे संस्कार तो बच्चे को अपने गर्भ में ही दे देती है यही माँ शब्द की शक्ति को दशार्ता है, वह माँ ही होती है जो पीड़ा सहकर अपने शिशु को जन्म देती है। और जन्म देने के बाद भी माँ के चेहरे पर एक सन्तोषजनक मुस्कान होती है इसलिए माँ को सनातन धर्म में भगवान से भी ऊँचा दर्जा दिया गया है। संस्कृत भाषा में लिखे इस श्लोक का तात्पर्य है कि जननी और जन्मभूमि स्वर्ग से भी बढ़कर हैं। जननी यानी कि मां और जन्मभूमि यानी कि जिस जमीन पर आपने जन्म लिया जहां आपकी परवरिश हुई। संस्कृत में लिखा गया यह श्लोक वाल्मीकि द्वारा रचित रामायण की पांडूलिपियों में दो जगह मिलता है।
‘माँ’ शब्द एक ऐसा शब्द है जिसमे समस्त संसार का बोध होता है। जिसके उच्चारण मात्र से ही हर दुख दर्द का अंत हो जाता है। ‘माँ’ की ममता और उसके आँचल की महिमा को शब्दों में बयान नहीं किया जा सकता है, उसे सिर्फ महसूस किया जा सकता है। गीता में कहा गया है कि ‘‘जननी जन्मभूमिश्च स्वर्गदपि गरीयसी।’’ अर्थात, जननी और जन्मभूमि स्वर्ग से भी बढ़कर है। कहा जाए तो जननी और जन्मभूमि के बिना स्वर्ग भी बेकार है क्योंकि माँ कि ममता कि छाया ही स्वर्ग का एहसास कराती है। जिस घर में माँ का सम्मान नहीं किया जाता है वो घर नरक से भी बदतर होता है, भगवान श्रीराम माँ शब्द को स्वर्ग से बढ़कर मानते थे क्योंकि संसार में माँ नहीं होगी तो संतान भी नहीं होगी और संसार भी आगे नहीं बढ़ पाएगा।
यानी कि मित्र, धन्य, धान्य आदि का संसार में बहुत अधिक सम्मान है। (किन्तु) माता और मातृभूमि का स्थान स्वर्ग से भी ऊपर है। भारतीय वेदों और पुराणों में मां को देवी स्वरूपा माना गया है। वेद, पुराणों में मां के लिए अंबा, अम्बिका, दुर्गा, देवी, सरस्वती, शक्ति, ज्योति, पृथ्वी आदि नामों से पुकारा गया है। मां को मात, मातृ, अम्मा, जननी, जन्मदात्री, जीवनदायिनी, धात्री, प्रसू भी कहा जाता है।
महाभारत में भी मां की महिमा का जिक्र है। जब यक्ष धर्मराज युधिष्ठर से सवाल करते हैं कि ‘भूमि से भारी कौन?’ तब युधिष्ठर जवाब देते हुए कहते हैं-इसका तात्पर्य है कि , माता इस भूमि से कहीं अधिक भारी होती हैं।
महाभारत महाकाव्य के रचियता महर्षि वेदव्यास ने ‘मां’ की महिमा का बखान करते हुए लिखा है कि
इसका अर्थ है कि- मां के समान कोई छाया नहीं है, मां के समान कोई सहारा नहीं है। मां के समान कोई रक्षक नहीं है और मां के समान कोई प्रिय चीज नहीं है।तैतरीय उपनिषद में भी मां की महिमा का वर्णन इस तरह से मिलता है।इसका अर्थ है कि – माता देवताओं से भी बढ़कर होती है।
संसार में माँ के समान कोई छाया नहीं है। संसार में माँ के समान कोई सहारा नहीं है। संसार में माँ के समान कोई रक्षक नहीं है और माँ के समान कोई प्रिय चीज नहीं है। एक माँ अपने पुत्र के लिए छाया, सहारा, रक्षक का काम करती है। माँ के रहते कोई भी बुरी शक्ति उसके जीवित रहते उसकी संतान को छू नहीं सकती। इसलिए एक माँ ही अपनी संतान की सबसे बड़ी रक्षक है। दुनिया में अगर कहीं स्वर्ग मिलता है तो वो माँ के चरणों में मिलता है। जिस घर में माँ का अनादर किया जाता है, वहाँ कभी देवता वास नहीं करते। एक माँ ही होती है जो बच्चे कि हर गलती को माफ कर गले से लगा लेती है। यदि नारी नहीं होती तो सृष्टि की रचना नहीं हो सकती थी। स्वयं ब्रह्मा, विष्णु और महेश तक सृष्टि की रचना करने में असमर्थ बैठे थे। जब ब्रह्मा जी ने नारी की रचना की तभी से सृष्टि की शुरूआत हुई। बच्चे की रक्षा के लिए बड़ी से बड़ी चुनौती का डटकर सामना करना और बड़े होने पर भी वही मासूमियत और कोमलता भरा व्यवहार ये सब ही तो हर ‘माँ’ की मूल पहचान है।
दुनिया की हर नारी में मातृत्व वास करता है। बेशक उसने संतान को जन्म दिया हो या न दिया हो। नारी इस संसार और प्रकृति की ‘जननी’ है। नारी के बिना तो संसार की कल्पना भी नहीं की जा सकती। इस सृष्टि के हर जीव और जन्तु की मूल पहचान माँ होती है। अगर माँ न हो तो संतान भी नहीं होगी और न ही सृष्टि आगे बढ़ पाएगी। माँ एकदम से सहज रूप में होती हैं। वे अपनी संतानों पर शीघ्रता से प्रसन्न हो जाती हैं। वह अपनी समस्त खुशियां अपनी संतान के लिए त्याग देती हैं, क्योंकि पुत्र कुपुत्र हो सकता है, पुत्री कुपुत्री हो सकती है, लेकिन माता कुमाता नहीं हो सकती। एक संतान माँ को घर से निकाल सकती है लेकिन माँ हमेशा अपनी संतान को आश्रय देती है। एक माँ ही है जो अपनी संतान का पेट भरने के लिए खुद भूखी सो जाती है और उसका हर दुख दर्द खुद सहन करती है।
लेकिन आज के समय में बहुत सारे ऐसे लोग हैं जो अपने मात-पिता को बोझ समझते हैं और उन्हें वृध्दाआश्रम में रहने को मजबूर करते हैं। ऐसे लोगों को आज के दिन अपनी गलतियों का पश्चाताप कर अपने माता-पिताओं को जो वृध्द आश्रम में रह रहे हैं उनको घर लाने के लिए अपना कदम बढ़ाना चाहिए। क्योंकि माता-पिता से बढ़कर दुनिया में कोई नहीं होता। माता के बारे में कहा जाए तो जिस घर में माँ नहीं होती या माँ का सम्मान नहीं किया जाता वहाँ दुर्गा, लक्ष्मी और सरस्वती का वास नहीं होता। हम नदियों और अपनी भाषा को माता का दर्जा दे सकते हैं तो अपनी माँ से वो हक क्यों छीन रहे हैं। और उन्हें वृध्दाआश्रम भेजने को मजबूर कर रहे हैं। यह सोचने वाली बात है। माता के सम्मान का एक दिन नहीं होता। माता का सम्मान हमें 365 दिन करना चाहिए। लेकिन क्यों न हम इस मातृ दिवस से अपनी गलतियों का पश्चाताप कर उनसे माफी मांगें। और माता की आज्ञा का पालन करने और अपने दुराचरण से माता को कष्ट न देने का संकल्प लेकर मातृ दिवस को सार्थक बनाएं।
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नवरात्रों का वैज्ञानिक महत्त्व डॉ. ओमप्रकाश पांडेय : भारतीय अवधारणा में हिरण्यगर्भ जिसे पाश्चात्य विज्ञान बिग बैंग के रूप में देखता है, से अस्तित्व में आए इस दृष्यादृष्य जगत के सभी प्रपंच चाहे वह जड़ हों या चेतन, सभी निर्विवाद रूप से शक्ति के ही परिणाम हैं। हम सभी का श्वांस-प्रश्वांस प्रणाली, रक्त संचार, हृदय की धड़कन, नाड़ी गति, शरीर संचालन, सोचना समझना, सभी कुछ शक्ति के द्वारा ही संभव होता है। जो कुछ भी पदार्थ के रूप में हैं, उनके साथ-साथ हम सभी पंचतत्वों यानी क्षिति, जल, पावक, गगन, समीरा से बने हैं। उदाहरण के लिए जल में द्रव यानी गीला करने की शक्ति है, अग्नि में दाह यानी जलाने की शक्ति है, वायु में स्पर्श की शक्ति है, मिट्टी में गंध की शक्ति है और आकाश में शब्द की शक्ति है। प्रकाश और ध्वनि में तरंग की शक्ति है। सृष्टि में सृजन की शक्ति है और प्रलय में विसर्जन की शक्ति है। प्राण में जीवन शक्ति है। आईंस्टीन का इनर्जी-मैटर समीकरण ई = एमसी2 के अनुसार भी संसार के सभी द्रव्य ऊर्जा की संहति के ही परिणाम हैं। यहाँ तक कि पदार्थों का स्वरूप परिवर्तन भी ऊर्जा की विभिन्न गत्यात्मकता से ही संभव होता है। इन सभी क्रियाओं से ऊर्जा न तो खर्च होती है और न ही उसका ह्रास होता है, वह सदैव विद्यमान रहती है। यह सनातन है, यह अक्षत है। इसे न तो पैदा किया जा सकता है और न ही समाप्त किया जा सकता है। हमें जो जड़ प्रतीत होता है, वह भी ऊर्जा के प्रभाव से अपने नाभी की परिधि में विविध वेग से गतिमान है। इन अणुओं का स्वरूप भी प्लाज्मा, क्वाट्र्ज, पार्टिकल्स यानी कणों के गतिक्रम के अनुरूप ही अस्तित्व में आते हैं। यानी गत्यात्मकताओं के इन्हीं आधारों पर ही अणु-परमाणु आदि सूक्ष्म तत्व आपसी संयोजन करके सूर्य, चंद्र तथा पृथिवी जैसे विशाल पिंडों में परिवर्तित होकर आकाश में विचरण करने लगते हैं। ब्रह्मांड में सभी कुछ गतिमान है, स्थिर कुछ भी नहीं। अनंत ब्रह्मांडों वाली ये श्रृंखलाएं प्रकृति के प्रगट स्वरूप के चार प्रतिशत के क्षेत्र में हैं, 76 प्रतिशत क्षेत्र डार्क इनर्जी का है और 21 प्रतिशत क्षेत्र डार्क मैटर का है। इसे ऋग्वेद में कहा गया है आकृष्णेन रजसा वर्तमानो निवेशयन्नमृतं मत्र्यण्च। हिरण्यय़ेन सविता रथेन देवो याति भुवनानि पश्यन।। यह नक्षत्रों से परिपूर्ण ब्रह्मांड की ये अनंत श्रृंखलाएं किसी बल विशेष के प्रभाव से ही निरंतर गतिशील बनी हुई हैं। यह सर्वविदित है कि किसी भी प्रकार की गतिशीलता के लिए एक स्थिर आधार की आवश्यकता होती है। हम यदि चल पाते हैं तो इसलिए कि हमारी तुलना में पृथिवी स्थिर है। इसी प्रकार सृष्टि की गतिशीलता जिस आधार पर क्रियाशील है, उसे ही ऋषियों ने निष्कलंक, निष्क्रिय, शांत, निरंजन, निगूढ़ कहा है। इस अपरिमेय निरंजन निगूढ़ सत्ता में चेतना के प्रभाव से कामना का भाव जागृत होता है, तब उसे साकार करने के लिए मातृत्व गुणों से परिपूर्ण चिन्मयी शक्ति का प्राकट्य होता है। इस तरह आदि शक्ति के तीन स्वरूपों ज्ञान शक्ति, इच्छा शक्ति और क्रिया शक्ति के उपक्रमों से प्रकृति के सत्व, रज और तम तीन गुणों की उत्पत्ति होती है। इन्हें ही उनकी आभा के अनुसार श्वेत, रक्तिम और कृष्ण कहा गया है। अतिशय शुद्धता की स्थिति में कोई भी निर्माण नहीं हो सकता। जैसे कि 24 कैरेट शुद्ध सोने से आभूषण नहीं बनता, इसके लिए उसमें तांबा या चांदी का मिश्रण करना होता है। इसी प्रकार साम्यावस्था में प्रकृति से सृष्टि से संभव नहीं है। उसकी साम्यावस्था को भंग होकर आपसी मिश्रणों के परिणामस्वरूप उत्पन्न विकृतियों से ही सृष्टि की आकृतियां बनने लगती हैं। इसको ही सांख्य में कहा है – रागविराग योग: सृष्टि। प्रकृति, विकृति और आकृति ये तीन का क्रम होता है। इस प्रकार हम देखते हैं कि आदि शक्ति के तीनों रूपों, उनके तीनों गुणों और तीन क्रियात्मक वेगों के परस्पर संघात से समस्त सृष्टि होती है। तीन का तीन में संघात होने से नौ का यौगिक बन जाता है। यही सृष्टि का पहला गर्भ होता है। पदार्थों में निविष्ट इन गुणों को आज का विज्ञान न्यूट्रल, पॉजिटिव और निगेटिव गुणों के रूप में व्याख्यायित करता है। इन गुणों का आपसी गुणों के समिश्रण से उत्पन्न बल के कारण इषत्, स्पंदन तथा चलन नामक तीन प्रारंभिक स्वर उभरते हैं। ये गति के तीन रूप हैं। आधुनिक विज्ञान इन्हें ही, इक्वीलीबिरियम यानी संतुलन, पोटेंशियल यानी स्थिज और काइनेटिक यानी गतिज के नाम से गति या ऊर्जा के तीन मूल स्तरों के रूप में परिभाषित करता है। इस प्रकार हम देखते हैं कि आदि शक्ति के तीन रूप, तीन गुण और उनकी तीन क्रियात्मक वेग, इन सभी का योग नौ होता है। जैसा कि हम देखते और जानते हैं कि जैविक सृष्टि का जन्म मादा के ही कोख से होता है। अत: मूल प्रकृति और उससे प्रसूत त्रिगुणात्मक आधारों जिसके कारण सृष्टि अस्तित्व में आती है, को हमारे मनीषियों ने नारी के रूप में ही स्वीकार किया। इसलिए पौराणिक आख्यानों में शक्ति के क्रियात्मक मूल स्वरूपों को ही सरस्वती, लक्ष्मी और दूर्गा के मानवीय रूपों के माध्यम से उनके गुणों और क्रिया सहित व्यक्त करने का प्रयास किया। हम तीन देवों की भी कल्पना करते हैं – ब्रह्मा विष्णु और महेश जोकि सृष्टिकर्ता, पालनकर्ता और संहारकर्ता हैं। लेकिन ये तीनों आधार हैं आधेय नहीं। ये शक्तिमान हैं। इनमें से वह शक्ति निकल जाए तो वे कभी विशिष्ट कामों के पालन में असमर्थ हो जाते हैं। शक्ति ही इनमें व्याप्त देवत्व का आधार है। इसलिए देवताओं की आरतियों के अंत में लिखा होता है – जो कोई नर गावे। कहीं भी नारी नहीं लिखा, क्योंकि नारी देवताओं की स्तुति कैसे करेगी, वह तो स्वयं वंदनीया है, देवताओं की भी स्तुत्य है। समाज के सभी जैवसंबंध स्त्रियों पर ही टिका है। रिश्तों का सारा फैलाव, घर-परिवार की सारी संकल्पना स्त्रियों के कारण ही अस्तित्व में आती है। लेकिन पश्चिम की मानसिकता के भ्रमजाल के कारण स्वयं को केवल आधी आबादी मानने लगी हैं और पुरुषों से प्रतिद्वन्द्विता के चक्कर में पड़ गई हैं। नारी की पुरुष से प्रतिद्वन्द्विता कैसे संभव है, वह तो पुरुष को ज��्म देती हैं। वह आधी आबादी नहीं है, वह तो इस समस्त आबादी की जन्मदात्री है। इसलिए माता होना नारी की सार्थकता है और माँ कहलाना उसका सर्वोच्च संबोधन है। बंगाल में हम छोटी-छोटी बच्चियों को भी माँ कह कर बुलाते हैं। हरेक संबंध में माँ लगा कर संबोधित करते हैं, जैसे पीसीमाँ, मासीमाँ, बऊमाँ आदि। इसलिए ऋग्वेद में यह निर्देश पाया जाता है कि श्वसुर बहु को आशीर्वाद दे कि वह दस पुत्रों की माता बने और पति तुम्हारा ग्यारहवाँ पुत्र हो जाए। यह वास्तविकता भी है। विवाह नया हो तो बात अलग होती है, परंतु संतानों के जन्म के बाद स्त्री का ध्यान पति की बजाय संतानों की ओर अधिक होता है और जैसे-जैसे आयु बढ़ती जाती है, स्त्री संतान की भांति ही पति की भी वात्सल्यजनित चिंता करने लगती है। आदिशक्ति को जगज्जननी क्यों कहा गया, इसे हम ईशावास्योपनिषद के एक मंत्र से मिलता है। पहले मैं यह बता दूँ कि चूंकि वैदिक संकल्पना में ईश्वर अकल्पनीय, निराकार, निगूढ़ है, इसलिए उसकी कोई मूर्ति नहीं हो सकती, उसका आकार नहीं हो सकता। यदि कोई आकार होगा भी तो वह मनुष्य के समझ से परे होगा। हम मन, बुद्धि, कल्पना और ज्ञान के आधार पर सोचते हैं। परंतु ईश्वर तो इन सब से परे है। इसलिए हम उसकी आकृति नहीं गढ़ सकते। यजुर्वेद कहता है कि न तस्य प्रतिमा अस्ति। यह हमारी भारतीय परंपरा में बौद्धों के काल से पूर्व तक जीवंत रहा है। उससे पहले तक हम केवल शिवलिंग, शालीग्राम और पिंडी का पूजन करते थे। देवी के लिए पिंडी, क्योंकि वह गर्भ का स्वरूप है, विष्णु के लिए शालीग्राम, क्योंकि वह आकाशगंगा का स्वरूप है और शिव के लिंग, क्योंकि शिव अग्निसोमात्मक है तो दीपक के लौ के भांति लिंग। दीपक में लौ अग्नि है और तेल सोम। बुद्ध के बाद बौद्धों के तर्ज पर मूर्तियां गढ़ी गईं। ईशावास्योपनिषद में कहा है पूर्णमिद:…। इसका अर्थ है कि वह भी पूर्ण है और यह जगत् भी पूर्ण है। पूर्ण से पूर्ण प्रकट होता है और फिर भी पूर्ण शेष बच जाता है। पूर्ण से पूर्ण निकल जाए, फिर भी पूर्ण शेष बचे, वही ईश्वर है। यदि नौ पूर्णांक में से नौ पूर्णांक निकल जाए तो शून्य बचना चाहिए, परंतु ऋषि कहता है कि उसमें शून्य नहीं, नौ ही बचेगा। यह एक विशेष घटना है। यह भौतिक स्तर पर संसार में कहीं नहीं घटती है, इसका केवल एक अपवाद है। एक स्त्री गर्भ धारण करती है, संतान को जन्म देती है। जन्म लेने वाली संतान पूर्ण होती है और माँ भी पूर्ण शेष रहती है। इसलिए माँ ईश्वर का ही रूप है। संसार की सभी मादाएं ईश्वर का ही स्वरूप हैं। इसलिए हमने प्रकृति की कारणस्वरूपा त्रयात्मक शक्ति और फिर उसके त्रिगुणात्मक प्रभाव ���े उत्पन्न प्राकृतिक शक्ति के नौ स्वरूपों को जगज्जननी के श्रद्धात्मक भावों में ही अंगीकार किया। फिर दुर्गा के नौ स्वरूपों में प्रकृति के त्रिगुणात्मक शक्ति को देखा। वे हैं – शैलपुत्री, ब्रह्मचारिणी, चंद्रघंटा, कुष्मांडा, स्कंदमाता, कात्यायिनी, कालरात्रि, महागौरी और सिद्धिदात्री। ये नौ दुर्गाएं काल और समय के आयाम में नहीं हैं, उससे परे हैं। ये दिव्य शक्तियां हैं, काल और समय के परे हैं। इनका जो विकार निकलता है, वही काल और समय के आयाम में प्रवेश करता है और ऊर्जा का रूप ले लेता है। इस प्रकार ये नौ दूर्गा, उनके नौ प्रकार और उनके प्रकार की ही काल और समय में नौ ऊर्जाएं हैं। ऊर्जाएं भी नौ ही हैं क्योंकि यह उनका ही विकार है। यह तो भौतिक ऊर्जाओं की बात हुई, अब इन भौतिक ऊर्जाओं के आधार पर सृष्टि की जो आकृति बनती है, वह भी नौ प्रकार की ही है। पहला है, प्लाज्मा, दूसरा है क्वार्क, तीसरा है एंटीक्वार्क, चौथा है पार्टिकल, पाँचवां है एंटी पार्टिकल, छठा है एटम, सातवाँ है मालुक्यूल्स, आठवाँ है मास और उनसे नौवें प्रकार में नाना प्रकार के ग्रह-नक्षत्र। यदि हम जैविक सृष्टि की बात करें तो वहाँ भी नौ प्रकार ही हैं। छह प्रकार के उद्भिज हैं – औषधि, वनस्पति, लता, त्वक्सार, विरुद् और द्रमुक, सातवाँ स्वेदज, आठवाँ अंडज और नौवां जरायुज जिससे मानव पैदा होते हैं। ये नौ प्रकार की सृष्टि होती है। पृथिवी का स्वरूप भी नौ प्रकार का ही है। पहले यह जल रूप में थी, फिर फेन बनी, फिर कीचड़ (मृद) बना। और सूखने पर शुष्क बनी। फिर पयुष यानी ऊसर बनी। फिर सिक्ता यानी रेत बनी, फिर शर्करा यानी कंकड़ बनी, फिर अश्मा यानी पत्थर बनी और फिर लौह आदि धातु बने। फिर नौवें स्तर पर वनस्पति बनी। इसी प्रकार स्त्री की अवस्थाएं, उनके स्वभाव, नौ गुण, सभी कुछ नौ ही हैं। इसी प्रकार सभी महत्वपूर्ण संख्याएं भी नौ या उसके गुणक ही हैं। पूर्ण वृत्त 360 अंश और अर्धवृत्त 180 अंश का होता है। नक्षत्र 27 हैं, हरेक के चार चरण हैं, तो कुल चरण 108 होते हैं। कलियुग 432000 वर्ष, इसी क्रम में द्वापर, त्रेता और सत्युग हैं। ये सभी नौ के ही गुणक हैं। चतुर्युगी, कल्प और ब्रह्मा की आयु भी नौ का ही गुणक है। सृष्टि का पूरा काल भी नौ का ही गुणक है। मानव मन में भाव नौ हैं, रस नौ हैं, भक्ति भी नवधा है, रत्न भी नौ हैं, धान्य भी नौ हैं, रंग भी नौ हैं, निधियां भी नौ हैं। इसप्रकार नौ की संख्या का वैज्ञानिक और आध्यात्मिक महत्व है। इसलिए नौ दिनों के नवरात्र मनाने की परंपरा हमारे पूर्वज ऋषियों ने बनायी। नवरात्र में नया धान्य आता है। सामान्यत: वर्ष में 40 नवरात्र होते हैं, परंतु मुख्य फसलें दो हैं रबी और खरीफ, इसलिए दो नवरात्र महत्वपूर्ण हैं – चैत्र नवरात्र और शारदीय नवरात्र। एक में गेंहू कट कर आता है और एक में चावल कट कर आता है। नये धान्य में ऊष्मा काफी अधिक होती है क्योंकि उसमें धरती की गरमी होती है। इसलिए उस नवधान्य को खाने से पचाना कठिन होता है। इसलिए नौ दिन व्रत रह कर अपनी जठराग्नि अधिक तेज किया जाता है। तब उस धान्य को पचाना सरल हो जाता है। इसमें भी शारदीय नवरात्र अधिक महत्वपूर्ण है। शारदीय नवरात्र से पहले ही गुरू पूर्णिमा, रक्षा बंधन आदि सभी महत्वपूर्ण त्यौहार पड़ते हैं। वर्षा के चौमासे के बाद फिर से गतिविधियां प्रारंभ की जाती हैं, इसलिए शारदीय नवरात्र में शक्ति की आराधना की जाती है।
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*हर दिन पावन* 7 अगस्त/जन्म-दिवस *अंतिम सांस तक राष्ट्र-धर्म निभाया : भानुप्रताप शुक्ल* राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के प्रचारक और वरिष्ठ पत्रकार श्री भानुप्रताप शुक्ल का जन्म सात अगस्त, 1935 को ग्राम राजपुर बैरिहवाँ, जिला बस्ती( उ.प्र.) में हुआ था। वे अपने पिता पण्डित अभयनारायण शुक्ल की एकमात्र सन्तान थे। उनके जन्म के 12 दिन बाद ही उनकी जन्मदात्री माँ का देहान्त हो गया। इस कारण उनका लालन-पालन अपने नाना पण्डित जगदम्बा प्रसाद तिवारी के घर सुल्तानपुर, उत्तर प्रदेश में हुआ। https://m.facebook.com/lalwaniprp1969/photos/a.1603164689945520.1073741827.1602933196635336/1868478343414152/?type=3&source=48 (at AjmerCity.in The Smart City)
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संजीवनी बूटी (sanjivini booti) : माँ की ममता
अगले महीने आऊंगा मैं,
एक लंबी लेकर छुट्टी माँ,
तुम्हारी जादुई सूरत देखकर यूं लगे,
जैसे तुम हो मेरी संजीवनी बूटी (sanjivini booti) माँ,
* * * * *
हम सरहद पर तैनात खड़े हैं,
बिना थके बिना रूके दिन-रात खड़े हैं,
जन्मदात्री माँ और भारत माँ के,
हमारे जीवन पर एहसान बड़े हैं,
माँ घर से जब तुमने मुझे,
पहली बार रवाना किया था,
भारत माँ की गोद में जब से,
मेरा ठिकाना किया था,
मेरी…
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मां शब्द में संपूर्ण सृष्टि का बोध होता है
वेद प्रकाश शास्त्री
‘मां’-इस लघु शब्द में प्रेम की विराटता-समग्रता निहित है। अणु-परमाणुओं को संघटित करके अनगिनत नक्षत्रों, लोक-लोकान्तरों, देव-दनुज-मनुज तथा कोटि-कोटि जीव प्रजातियों को मां ने ही जन्म दिया है। मां के अंदर प्रेम की पराकाष्ठा है या यूं कहें कि मां ही प्रेम की पराकाष्ठा है। प्रेम की यह चरमता केवल माताओं में ही नहीं, वरन् सभी मादा जीवों में देखने को मिलती है।
संतान के लालन-पालन के लिए हर दुख का सामना बिना किसी शिकायत के करने वाली मां के साथ बिताये दिन सभी के मन में आजीवन सुखद व मधुर स्मृति के रूप में सुरक्षित रहते हैं। भारतीय संस्कृति में मां के प्रति लोगों में अगाध श्रद्धा रही हैं, लेकिन आज आधुनिक दौर में जिस तरह से मदर्स डे मनाया जा रहा है, उसका इतिहास भारत में बहुत पुराना नहीं है। इसके बावजूद दो-तीन दशक से भी कम समय में भारत में मदर्स डे काफी तेजी से लोकप्रिय हो रहा है।
मातृ दिवस-समाज में माताओं के प्रभाव व सम्मान का उत्सव है। मां शब्द में संपूर्ण सृष्टि का बोध होता है। मां के शब्द में वह आत्मीयता एवं मिठास छिपी हुई होती है, जो अन्य किसी शब्दों में नहीं होती। मां नाम है संवेदना, भावना और अहसास का। मां के आगे सभी रिश्ते बौने पड़ जाते हैं। मातृत्व की छाया में मां न केवल अपने बच्चों को सहेजती है बल्कि आवश्यकता पड़ने पर उसका सहारा बन जाती है। समाज में मां के ऐसे उदाहरणों की कमी नहीं है, जिन्होंने अकेले ही अपने बच्चों की जिम्मेदारी निभाई।
मातृ दिवस सभी माताओं का सम्मान करने के लिए मनाया जाता है। एक बच्चे की परवरिश करने में माताओं द्वारा सहन की जानें वालीं कठिनाइयों के लिये आभार व्यक्त करने के लिये यह दिन मनाया जाता है। कवि राॅबर्ट ब्राउनिंग ने मातृत्व को परिभाषित करते हुए कहा है- सभी प्रकार के प्रेम का आदि उद्गम स्थल मातृत्व है और प्रेम के सभी रूप इसी मातृत्व में समाहित हो जाते हैं। प्रेम गहन, अपूर्व अनुभूति है, पर शिशु के प्रति मां का प्रेम एक स्वर्गीय अनुभूति है।
अपने बच्चों के लिए भोजन न मिलने पर हवासिल (पेलिकन) नाम की जल-पक्षिनी अपना पेट चीर कर अपने बच्चों को अपना रक्त-मांस खिला-पिला देती है। कितनी दयनीय बात है कि देश ने स्त्री की शक्ति के रूप में अवधारणा दी, जिसने पुराणों के पृष्ठों में देवताओं को 4 या 8 हाथ दिये किन्तु देवियों को 108 हाथ दिये, उसी ने स्त्रियों को पुरुषों से नीचा स्थान दिया और उन्हें वेद पढ़ने के अधिकार से वंचित कर दिया और सबसे शोचनीय बात यह है कि उन्हें चारदिवारी में बंद कर दिया।’’‘मां’ को उसकी दैवी सम्मान दिलाना वर्तमान युग की सबसे बड़ी आवश्यकता में से एक है।
मां प्राण है, मां शक्ति है, मां ऊर्जा है, मां प्रेम, करुणा और ममता का पर्याय है। मां केवल जन्मदात्री ही नहीं जीवन निर्मात्री भी है। मां धरती पर जीवन के विकास का आधार है। मां ने ही अपने हाथों से इस दुनिया का ताना-बाना बुना है। सभ्यता के विकास क्रम में आदिमकाल से लेकर आधुनिककाल तक इंसानों के आकार-प्रकार में, रहन-सहन में, सोच-विचार, मस्तिष्क में लगातार बदलाव हुए। लेकिन मातृत्व के भाव में बदलाव नहीं आया। उस आदिमयुग में भी मां, मां ही थी। तब भी वह अपने बच्चों को जन्म देकर उनका पालन-पोषण करती थीं। उन्हें अपने अस्तित्व की रक्षा करना सिखाती थी। आज के इस आधुनिक युग में भी मां वैसी ही है। मां नहीं बदली। विक्टर ह्यूगो ने मां की महिमा इन शब्दों में व्यक्त की है कि एक माँ की गोद कोमलता से बनी रहती है और बच्चे उसमें आराम से सोते हैं।
मां को धरती पर विधाता की प्रतिनिधि कहा जाए तो अतिशयोक्ति नहीं होगी। सच तो यह है कि मां विधाता से कहीं कम नहीं है। क्योंकि मां ने ही इस दुनिया को सिरजा और पाला-पोशा है। कण-कण में व्याप्त परमात्मा किसी को नजर आये न आए मां हर किसी को हर जगह नजर आती है। कहीं अण्डे सेती, तो कहीं अपने शावक को, छोने को, बछड़े को, बच्चे को दुलारती हुई नजर आती है। मां एक भाव है मातृत्व का, प्रेम और वात्सल्य का, त्याग का और यही भाव उसे विधाता बनाता है।
मां विधाता की रची इस दुनिया को फिर से, अपने ढंग से रचने वाली विधाता है। मां सपने बुनती है और यह दुनिया उसी के सपनों को जीती है और भोगती है। मां जीना सिखाती है। पहली किलकारी से लेकर आखिरी सांस तक मां अपनी संतान का साथ नहीं छोड़ती। मां पास रहे या न रहे मां का प्यार दुलार, मां के दिये संस्कार जीवन भर साथ रहते हैं। मां ही अपनी संतानों के भविष्य का निर्माण करती हैं। इसीलिए मां को प्रथम गुरु कहा गया है। स्टीव वंडर ने सही कहा है कि मेरी माँ मेरी सबसे बड़ी अध्यापक थी, करुणा, प्रेम, निर्भयता की एक शिक्षक। अगर प्यार एक फुल के जितना मीठा है, तो मेरी माँ प्यार का मीठा फूल है।
प्रथम गुरु के रूप में अपनी संतानों के भविष्य निर्माण में मां की भूमिका अत्यंत महत्वपूर्ण होती है। मां कभी लोरियों में, कभी झिड़कियों में, कभी प्यार से तो कभी दुलार से बालमन में भावी जीवन के बीज बोती है। इसलिए यह आवश्यक है कि मातृत्व के भाव पर नारी मन के किसी दूसरे भाव का असर न आए। जैसाकि आज कन्याभ्रूणों की हत्या का जो सिलसिला बढ़ रहा है, वह नारी-शोषण का आधुनिक वैज्ञानिक रूप हैं तथा उसके लिए मातृत्व ही जिम्मेदार है। कन्याभू्रणों की बढ़ती हुई हत्या एक ओर मनुष्य को नृशंस करार दे रही है, तो दूसरी ओर स्त्रियों की संख्या में भारी कमी मानविकी पर्यावरण में भारी असंतुलन उत्पन्न कर रही है।’’ अन्तर्राष्ट्रीय मातृ-दिवस को मनाते हुए मातृ-महिमा पर छा रहे ऐसे अनेक धुंधलों को मिटाना जरूरी है, तभी इस दिवस की सार्थकता है।
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