Tumgik
#प्रजातियों की लक्षण
socialworks-blog · 11 months
Text
प्रजाति किसे कहते हैं? प्रजाति का अर्थ एवं परिभाषा (Race)
प्रजाति की अवधारणा :- प्रजाति एक जैविक अवधारणा है। यह मनुष्यों के एक समूह से है जिनके पास समान शारीरिक और मानसिक गुण होते हैं और इन लक्षणों को उनकी विरासत के आधार पर प्राप्त करते हैं। शरीर के रंग, खोपड़ी और नासिका की संरचना और अन्य अंगों की बनावट को देखकर विभिन्न प्रजातियों के समूहों की पहचान की जा सकती है। जातीय दृष्टि से भी भारतीय समाज कई वर्गों में बंटा हुआ है। भारत में विश्व की सभी प्रमुख…
View On WordPress
0 notes
currenthunt · 4 months
Text
वैज्ञानिकों ने पेरिस, फ्राँस में पाए जाने वाले एक पुष्पी पौधे में तेज़ी से विकास के साक्ष्य का खुलासा किया
वैज्ञानिकों ने पेरिस, फ्राँस में पाए जाने वाले एक पुष्पी पौधे में तेज़ी से विकास के साक्ष्य का खुलासा किया है। फील्ड पैंसी (वियोला अर्वेन्सिस) के रूप में पहचाने जाने वाला यह पौधा स्व-परागण में सक्षम है जो बाह्य परागणक पर पारंपरिक निर्भरता के विपरीत है। फील्ड पैंसी से संबंधित मुख्य तथ्य - फील्ड पैंसी (वियोला अर्वेन्सिस), एक सामान्य वन्य पुष्प है जो यूरोप, एशिया तथा उत्तरी अमेरिका के कई हिस्सों में पाया जा सकता है। - यह आवृतबीजियों (Angiosperms) नामक पौधों के समूह से संबंधित है, जो फल नामक एक सुरक्षात्मक संरचना के भीतर बीज पैदा करते हैं। - आवृतबीजी पादप अपने परागण तथा प्रजनन में सहायता के लिये कीटों एवं अन्य जीवों पर निर्भर रहते हैं। परागण - परागण वह प्रक्रिया है जिसके द्वारा पराग कण, जिनमें पौधों की नर प्रजनन कोशिकाएँ होती हैं, एक पुष्प से दूसरे पुष्प में स्थानांतरित होते हैं। यह प्रक्रिया  अमूमन कीटों  द्वारा मकरंद/पराग की खोज में की जाती है। - मकरंद/पराग (Nectar) एक शर्करायुक्त तरल है जिसे पौधे परागणकों को आकर्षित करने के लिये तैयार करते हैं। - परागण कई पौधों की प्रजातियों की आनुवंशिक विविधता तथा अस्तित्व के लिये आवश्यक है और साथ ही यह पौधों व जीव-जंतुओं के बीच 100 मिलियन वर्षों के सह-विकास से विकसित हुआ है। - परागण परागणकों (वेक्टर/कारक जो पराग को पुष्प के भीतर तथा एक पुष्प से दूसरे पुष्प तक ले जाते हैं) के माध्यम से किया जाता है। - हालाँकि, कुछ पौधे किसी बाह्य कारकों/परागणकों की सहायता के बिना भी स्वयं परागण कर सकते हैं। इसे स्व-परागण कहा जाता है और यह पौधों के लिये अपने प्रजनन को सुनिश्चित करने का एक तरीका है यदि आसपास कोई उपयुक्त परागणक नहीं हैं। - स्व-परागण से पौधों के लिये ऊर्जा और संसाधनों की भी बचत हो सकती है, क्योंकि परागणकों को आकर्षित करने के लिये उन्हें अधिक मात्रा में रस/पराग एवं पुष्प उत्पन्न करने की आवश्यकता नहीं होती है। अध्ययन के मुख्य तथ्य तीव्र विकास - यह अध्ययन पौधों में तेज़ी से विकास के पहले साक्ष्य को चिह्नित करता है, जिसमें फील्ड पैंसी के साथ अपेक्षाकृत कम अवधि में पराग उत्पादन और पुष्पों के आकार में महत्त्वपूर्ण बदलाव दिखाई देते हैं। - अध्ययन में पाया गया कि जंगली पैंसी किस्म के पुष्प 20% कम पराग उत्पादन करते हैं और 10% छोटे होते हैं। स्व-परागण - कीटों की घटती उपलब्धता के कारण, मैदानी पैंसी स्व-परागण के लिये विकसित हुई है, जिससे परागणकों पर इसकी निर्भरता कम हो गई है। - यह व्यवहार एंजियोस्पर्म (angiosperms) में परागण के लिये कीटों पर परंपरागत निर्भरता के विपरीत है, जो पौधों की स्थापित प्रजनन रणनीतियों से एक महत्त्वपूर्ण विचलन को दर्शाता है। अभिसरण विकास - अध्ययन से संख्या में अभिसरण विकास का पता चलता है, जिसमें परागणकों के लिये लाभकारी गुणों और आकर्षण में कमी आई है। - यह अभिसरण विभिन्न पौधों की संख्या में पर्यावरणीय दबावों के प्रति लगातार विकासवादी अनुक्रिया का संकेत देता है। पुनरुत्थान पारिस्थितिकी विधि - शोधकर्ताओं ने "पुनरुत्थान पारिस्थितिकी" विधि का उपयोग किया, समय के साथ परिवर्तनों का निरीक्षण करने के लिये 2021 से अपने समकालीन वंशजों के प्रतिकूल 1990 और 2000 के दशक से बीज लगाए। - इस पद्धति ने उन्हें विभिन्न अवधियों में पौधों के लक्षणों और व्यवहार में परिवर्तनों को ट्रैक करने व तुलना करने की अनुमति दी। पर्यावरणीय प्रभाव - सेल्फिंग की दिशा में कदम उठाने से अल्पावधि में पौधों को लाभ हो सकता है, लेकिन विशेष रूप से जलवायु परिवर्तन और अन्य पर्यावरणीय परिवर्तनों के कारण उनके दीर्घकालिक अस्तित्व के लिये खतरा उत्पन्न हो सकता है। - स्व-परागण पौधे की आनुवंशिक विविधता और अनुकूलन क्षमता को कम कर देता है, जिससे यह बीमारियों एवं पर्यावरणीय तनावों के प्रति अधिक संवेदनशील हो जाता है। परागणकर्ता का पतन - यह अध्ययन संभावित प्रतिक्रिया चक्र की चेतावनी देता है जो पौधे-परागणक नेटवर्क को प्रभावित करने वाले पौधों के लक्षण विकास के परिणामस्वरूप परागणकों में और अधिक कमी ला सकता ह���। अत्यावश्यक विश्लेषण - अध्ययन यह विश्लेषण करने की आवश्यकता पर ज़ोर देता है कि क्या ये परिणाम एंज़ियोस्पर्म और उनके परागणकों के बीच संबंधों में व्यापक व्यवहारिक परिवर्तनों के लक्षण हैं। - शोधकर्त्ताओं का लक्ष्य पौधे-परागण संजाल की सुरक्षा के लिये प्रक्रिया को उलटने और पर्यावरण-विकासवादी-सकारात्मक प्रतिक्रिया चक्र को तोड़ने की संभावना को पूरी तरह से समझना है। Read the full article
0 notes
Text
गाय में लम्पी स्किन डिजीज से जुड़ी सारी बातें
Tumblr media
लंपी स्किन डिज़ीज़ के लक्षण
बुखार, लार, आंखों और नाक से स्रवण, वजन घटना, दूध उत्पादन में गिरावट, पूरे शरीर पर कुछ या कई कठोर और दर्दनाक नोड्यूल दिखाई देते हैं। त्वचा के घाव कई दिनों या महीनों तक बने रह सकते हैं। क्षेत्रीय लिम्फ नोड्स सूज जाते हैं और कभी-कभी एडिमा उदर और ब्रिस्केट क्षेत्रों के आसपास विकसित हो सकती है। कुछ मामलों में यह नर और मादा में लंगड़ापन, निमोनिया, गर्भपात और बाँझपन का कारण बन सकता है।
इस बीमारी में शरीर पर गांठें बनने लगती हैं. खासकर सिर, गर्दन, और जननांगों के आसपास.
इसके बाद धीरे-धीरे गांठे बड़ी होने लगती हैं और फिर ये घाव में बदल जाती हैं.
इस बीमारी में गाय को तेज़ बुखार आने लगता है.
गाय दूध देना कम कर देती है.
मादा पशुओं का गर्भपात हो जाता है.
कई बार गाय की मौत भी हो जाती है.
यह पूरे शरीर में विशेष रूप से सिर, गर्दन, अंगों, थन (मादा मवेशी की स्तन ग्रंथि) और जननांगों के आसपास दो से पाँच सेंटीमीटर व्यास की गाँठ के रूप में प्रकट ��ोता है।
इसके अन्य लक्षणों में सामान्य अस्वस्थता, आँख और नाक से पानी आना, बुखार तथा दूध के उत्पादन में अचानक कमी आदि शामिल है।
संक्रमण का कारण:
मवेशियों या जंगली भैंसों में यह रोग ‘गाँठदार त्वचा रोग वायरस’ (LSDV) के संक्रमण के कारण होता है।
यह वायरस ‘कैप्रिपॉक्स वायरस’ (Capripoxvirus) जीनस के भीतर तीन निकट संबंधी प्रजातियों में से एक है, इसमें अन्य दो प्रजातियाँ शीपपॉक्स वायरस (Sheeppox Virus) और गोटपॉक्स वायरस (Goatpox Virus) हैं।
गाय में लंपी रोग का इलाज
होमिओनेस्ट मैरीगोल्ड ऐल एस डी 25 किट
लुम्पी स्किन डिजीज ( लम्पी त्वचा रोग ) की होम्योपैथिक पशु औषधि
होमेओनेस्ट वी ड्रॉप्स 25 + मैरीगोल्ड एंटीसेप्टिक स्प्रे
होमिओनेस्ट मैरीगोल्ड ऐल एस डी 25 किट - लुम्पी स्किन डिजीज ( लम्पी त्वचा रोग ) तथा अन्य वायरल बिमारियों के प्रति रोग प्रतिरोधक क्षमता बढ़ाने हेतु एक बेहतरीन व् कारगर होम्योपैथिक पशु औषधि है | जिसमे पिलाने हेतु होमेओनेस्ट वी ड्रॉप न 25 तथा घाव पैर स्प्रे करने हेतु मैरीगोल्ड एंटीसेप्टिक स्प्रे है ​|
इस दवा को पिलाने से 10 से 15 दिन में पशु के घाव ठीक होने लगते हैं तथा मेरीगोल्ड एंटीसेप्टिक स्प्रे पशु के घाव में पस नहीं पड़ने देता है | यदि किसी कारण से पस पड़ जाये तो इस दवा से घाव जल्दी ठीक होने लगते हैं |
0 notes
merikheti · 2 years
Text
देसी और जर्सी गाय में अंतर (Difference between desi cow and jersey cow in Hindi)
Tumblr media
2021-22 के आर्थिक सर्वेक्षण के अनुसार विश्व के कुल दुग्ध उत्पादन में भारत की हिस्सेदारी 23% है और वर्तमान में भारत में 209 मिलियन टन दूध का उत्पादन किया जाता है, जो कि प्रतिवर्ष 6% की वृद्धि दर से बढ़ रहा है। भारतीय किसानों के लिए खेती के साथ ही दुग्ध उत्पादन से प्राप्त आय जीवन यापन का एक महत्वपूर्ण स्रोत है।
भारत को विश्व दुग्ध उत्पादन में पहले स्थान तक पहुंचाने में गायों की अलग-अलग प्रजातियों का महत्वपूर्ण योगदान रहा है। हालांकि, उत्तरी भारतीय राज्यों में भैंस से प्राप्त होने वाली दूध की उत्पादकता गाय की तुलना में अधिक है, परंतु मध्य भारत वाले राज्यों में भैंस की तुलना में गाय का पालन अधिक किया जाता है।
भारत में पाई जाने वाली गायों की सभी नस्लों को दो मुख्य भागों में बांटा जा सकता है, जिन्हें देसी गाय (देशी गाय – Desi or deshi cow – Indegenous or Native cow variety of India) और जर्सी गाय (Jersey Cow / jarsee gaay) की कैटेगरी में वर्गीकृत किया जा सकता है।ये भी पढ़ें: भेड़, बकरी, सुअर और मुर्गी पालन के लिए मिलेगी 50% सब्सिडी, जानिए पूरी जानकारी
क्या है देसी और जर्सी गाय में अंतर ?
(Difference between desi cow and jersey cow)
वैसे तो सभी गायों की श्रेणी को अलग-अलग नस्लों में बांटे, तो इन में अंतर करना बहुत ही आसान होता है।
देसी गाय की विशेषताएं एवं पहचान के लक्षण :
भारत में पाई जाने वाली देसी गायें मुख्यतः बीटा केसीन (Beta Casein) वाले दूध का उत्पादन करती है, इस दूध में A2-बीटा प्रोटीन पाया जाता है।
देसी गायों में एक बड़ा कूबड़ होता है, साथ ही इनकी गर्दन लंबी होती है और इनके सींग मुड़े हुए रहते है।
एक देसी गाय से एक दिन में, दस से बीस लीटर दूध प्राप्त किया जा सकता है।
प्राचीन काल से ग्रामीण किसानों के द्वारा देसी गायों का इस्तेमाल कई स्वास्थ्यवर्धक फायदों को मद्देनजर रखते हुए किया जा रहा है, क्योंकि देसी गाय के दूध में बेहतरीन गुणवत्ता वाले विटामिन के साथ ही शारीरिक लाभ प्रदान करने वाला गुड कोलेस्ट्रोल (Good cholesterol) और दूसरे कई सूक्ष्म पोषक तत्व पाए जाते हैं।
देसी गायों की एक और खास बात यह है कि इन की रोग प्रतिरोधक क्षमता जर्सी गायों की तुलना में अधिक होती है और नई पशुजन्य बीमारियों का संक्रमण देसी गायों में बहुत ही कम देखने को मिलता है।
देसी गायें किसी भी गंदगी वाली जगह पर बैठने से परहेज करती हैं और खुद को पूरी तरीके से स्वच्छ रखने की कोशिश करती हैं।
इसके अलावा इनके दूध में हल्का पीलापन पाया जाता है और इनका दूध बहुत ही गाढ़ा होता है, जिससे इस दूध से अधिक घी और अधिक दही प्राप्त किया जा सकता है।
देसी गाय से प्राप्त होने वाले घी से हमारे शरीर में ऊर्जा स्तर बढ़ने के अलावा आंखों की देखने की क्षमता बेहतर होती है, साथ ही शरीर में आई विटामिन A, D, E और K की कमी की पूर्ति की जा सकती है। पशु विज्ञान के अनुसार देसी गाय के घी से मानसिक सेहत पर भी सकारात्मक प्रभाव पड़ता है।
हालांकि पिछले कुछ समय से किसान भाई, देसी गायों के पालन में होने वाले अधिक खर्चे से बचने के लिए दूसरी प्रजाति की गायों की तरह फोकस कर रहे है।
यदि बात करें देसी गाय की अलग-अलग नस्लों की, तो इनमें मुख्यतया गिर, राठी, रेड सिंधी और साहिवाल नस्ल को शामिल किया जाता है।ये भी पढ़ें: गो-पालकों के लिए अच्छी खबर, देसी गाय खरीदने पर इस राज्य में मिलेंगे 25000 रुपए
जर्सी या हाइब्रिड गायों की विशेषता और पहचान के लक्षण :
कई साधारण विदेशी नस्लों और सर्वश्रेष्ठ वैज्ञानिक विधि की मदद से की गई ब्रीडिंग से तैयार, हाइब्रिड या विदेशी गायों को भारत में जर्सी श्रेणी की गाय से ज्यादा पहचान मिली है।
जर्सी गाय से प्राप्त होने वाले दूध में A1 और A2 दोनों प्रकार के बीटा केसीन प्राप्त होते है, जो कि हमारे शरीर में विटामिन और एंजाइम की कमी को दूर करने में मददगार साबित होते है।
हाइब्रिड गायों को आसानी से पहचानने के कुछ लक्षण होते है, जैसे कि इनमें किसी प्रकार का कोई कूबड़ नहीं होता है और इनकी गर्दन देसी गायों की तुलना में छोटी होती है, साथ ही इनके सिर पर उगने वाले सींग या तो होते ही नहीं या फिर उनका आकर बहुत छोटा होती है।
किसान भाइयों की नजर में जर्सी गायों का महत्व इस बात से है कि एक जर्सी गाय एक दिन में 30 से 35 लीटर तक दूध दे सकती है, हालांकि इस नस्ल की गायों से प्राप्त होने वाला दूध, पोषक तत्वों की मात्रा में देसी गायों की तुलना में कम गुणवत्ता वाला होता है और इसके स्वास्थ्य लाभ भी कम होते हैं।
न्यूजीलैंड में काम कर रही पशु विज्ञान से जुड़ी एक संस्थान के अनुसार, हाइब्रिड नस्ल की गाय से प्राप्त होने वाले उत्पादों के इ���्तेमाल से उच्च रक्तचाप और डायबिटीज ऐसी समस्या होने के अलावा, बुढ़ापे में मानसिक अशांति जैसी बीमारियां होने का खतरा भी रहता है।
भारत में पाई जाने वाली ऐसे ही कई हाइब्रिड गायें अनेक प्रकार की पशुजन्य बीमारियों की आसानी से शिकार हो जाती हैं, क्योंकि इन गायों का शरीर भारतीय जलवायु के अनुसार पूरी तरीके से ढला हुआ नहीं है, इसीलिए इन्हें भारतीय उपमहाद्वीप में होने वाली बीमारियां बहुत ही तेजी से ग्रसित कर सकती है।
जर्सी या हाइब्रिड गाय कैटेगरी की लगभग सभी गायें कम चारा खाती है, इसी वजह से इनको पालने में आने वाली लागत भी कम होती है।ये भी पढ़ें: थनैला रोग को रोकने का एक मात्र उपाय टीटासूल लिक्विड स्प्रे किट
उत्तरी भारत के राज्यों में मुख्यतः हाइब्रिड किस्म की गाय की जर्सी नस्ल का पालन किया जाता है, परन्तु उत्तरी पूर्वी राज्यों जैसे कि आसाम, मणिपुर, सिक्किम में तथा एवं दक्षिण के कुछ राज्यों में शंकर किस्म की कुछ अन्य गाय की नस्लों का पालन भी किया जा रहा है, जिनमें होल्सटीन (Holstein) तथा आयरशिर (Ayrshire) प्रमुख है।
भारतीय पशु कल्याण बोर्ड के द्वारा गठित की गई एक कमेटी की रिपोर्ट के अनुसार, देसी गायों को पालने वाले किसान भाइयों को समय समय पर टीकाकरण की आवश्यकता होती है, जबकि हाइब्रिड नस्ल की गायें कम टीकाकरण के बावजूद भी अच्छी उत्पादकता प्रदान कर सकती है।
पशु विज्ञान से जुड़े वैज्ञानिकों के अनुसार गिर जैसी देसी नस्ल की गाय में पाए जाने वाले कूबड़ की वजह से उनके दूध में पाए जाने वाले पोषक तत्व अधिक होते हैं, क्योंकि, यह कूबड़ सूरज से प्राप्त होने वाली ऊर्जा को अपने अंदर संचित कर लेता है, साथ ही विटामिन-डी (Vitamin-D) को भी अवशोषित कर लेता है। इस नस्ल की गायों में पाई जाने वाली कुछ विशेष प्रकार की शिराएं, इस संचित विटामिन डी को गाय के दूध में पहुंचा देती है और अब प्राप्त हुआ यह दूध हमारे शरीर के लिए एक प्रतिरोधक क्षमता बूस्टर के रूप में काम करता है। वहीं, विदेशी या हाइब्रिड नस्ल की गायों में कूबड़ ना होने की वजह से उनके दूध में पोषक तत्वों की कमी पाई जाती है।ये भी पढ़ें: अपने दुधारू पशुओं को पिलाएं सरसों का तेल, रहेंगे स्वस्थ व बढ़ेगी दूध देने की मात्रा
पिछले कुछ समय से दूध उत्पादन मार्केट में आई नई कंपनियां देसी गायों की तुलना में जर्सी गाय के पालन के लिए किसानों को ज्यादा प्रोत्साहित कर रही है, क्योंकि इससे उन्हें कम लागत पर दूध की अधिक उत्पादकता प्राप्त होती है। लेकिन किसान भाइयों को ध्यान रखना चाहिए कि यदि उन्हें अपने लिए या अपने परिवार के सदस्यों के लिए गायों से दूध और घी प्राप्त करना है, तो उन्हें देसी नस्ल की गायों का पालन करना चाहिए और यदि आपको दूध को बेचकर केवल मुनाफा कमाना है, तो आप भी हाइब्रिड नस्ल की गाय पाल सकते है।
Source देसी और जर्सी गाय में अंतर (Difference between desi cow and jersey cow in Hindi)
0 notes
mysticmindblog · 2 years
Text
फाइलेरिया के कारण, लक्षण, इलाज एवं सावधानियां | Filaria Symptoms in Hindi
फाइलेरिया के कारण, लक्षण, इलाज एवं सावधानियां | Filaria Symptoms in Hindi
Filaria Symptoms in Hindi जानने से पहले जानते है कि फाइलेरिया क्या होता है? फाइलेरिया क्या होता है | What is Filaria in Hindi फाइलेरिया एक तरह का पैरासाइट डिजीज होता है, जो किसी धागे की तरह दिखने वाले निमेटोड कीड़े की वजह से होती है। ये खून चूसने वाले कीटों और मच्छरों की कुछ प्रजातियों के द्वारा शरीर के अंदर प्रवेश कर सकते हैं। ये बीमारी फाइलेरिया या फिलेरियासिस के नाम से भी जाना जाता है।…
Tumblr media
View On WordPress
0 notes
balajieducation21 · 3 years
Link
महत्वपूर्ण बिंदु
जैव विविधता, परीभाषा, वर्गीकरण, जैव विविधता का आधार, वर्गीकरण समूह, नाम पद्धति,
Tumblr media
सामान्य परिचय
कुछ माइक्रोमीटर का बैक्टीरिया और कैलिफोर्निया के 100 मीटर लंबे रेडवुड के पेड़ आदि समूह पृथ्वी पर पाए जाते हैं, जो जैव विविधता के साथ ही एक बड़ा परिवर्तन महसूस करवाते हैं।
जैव विविधता का विकास होने में लाखों करोड़ों वर्षों का समय लगता है।
जीवो में  पायी जाने वाली विविधता,जैव विविधता कहलाती है। 
जाति वर्गीकरण की आधारभूत इकाई कहलाती है।
एक ही जाति के जीव बाहरी  रूप से एक दूसरे में काफी समानता प्रदर्शित करते हैं।
जैव विविधता
किसी विशेष क्षेत्र में पाए जाने वाले विभिन्न जीव रूपों को दर्शाती हैं जैव विविधता कहलाती है।
समस्त जीव एक ही पर्यावरण में रहते हैं तथा एक दूसरे को प्रभावित करते हैं जिससे विभिन्न प्रजातियों का स्थाई समुदाय अस्तित्व में आता है।
पृथ्वी पर सर्वाधिक जैव विविधता कर्क और मकर रेखा के मध्य पाई जाती हैं, इस क्षेत्र को मेगा डायवर्सिटी क्षेत्र कहते हैं।
वर्गीकरण का आधार 
अरस्तु ने जीवों का वर्गीकरण स्थल और जलवायु में रहने के आधार पर किया।
समुंद्री जीव, प्रवाल व्हेल,ऑक्टोपस शार्क व स्टारफिश।  
इन सभी जीवो का आवास एक ही होता है, इसी आधार पर इन जीवों को  समुद्री जीव समूह में रखा गया।
किसी जीव के लक्षण से तात्पर्य है कि उस जीव का विशिष्ट रूप व विशिष्ट कार्य होता है।
जैसे- पेड़ दौड़ नहीं सकते हैं, मनुष्य के 5 अंगुलिया होती है।
जीव के निर्माण में कोशिका समूह बनाकर जीव के अंगों का विकास करती है तथा कोशिका में श्रम विभाजन पाया जाता है।
पौधे का शरीर बनाने के उद्देश्य से संगठित होता है।
जंतुओं का शरीर बाहर से भोजन ग्रहण करने के उद्देश्य हेतु बना होता है।
 वर्गीकरण और जैव विकास
जीवो को उनके कार्य तथा उनकी शारीरिक वृद्धि के आधार पर पहचाना जा सकता है तथा इसी आधार पर उनका वर्गीकरण किया जा सकता है।
शरीर की बनावट के दौरान जो लक्षण पहले दिखाई देते है, मूल लक्षण  कहलाते हैं।
डार्विन ने  1859 में द ओरिजिन ऑफ स्पीशीज पुस्तक में जैव विकास की अवधारणा दी।
वे जीव जिनकी शारीरिक संरचना में प्राचीन काल से अब तक कोई खास परिवर्तन नही हुआ है, निम्न / आदिम जीव कहलाते है।
वे जीव जिनकी शारीरिक संरचना में प्राचीन  काल से अब तक कोई खास परिवर्तन नहीं हुआ है, उच्च/ उन्नत जीव कहलाते है।
वर्गीकरण के समूह के बारे में जानकारी
व्हिटेकर ने पंच जगत वर्गीकरण दिया, जो निम्न है-
निम्न वर्गीकरण कोशिकीय संरचना पोषण के स्त्रोत और शारीरिक संगठन के आधार पर किया गया।
मोनेरा
इन जीवो में संगठित केंद्रक और संगठित कोशिकांग का अभाव होता है।
इस वर्ग के कुछ जीवो में कोशिका भित्ति उपस्थित होती है, कुछ में अनुपस्थित होती है।
यह जीव स्वपोषी और विषमपोषी दोनों प्रकार के होते हैं।
उदाहरण जीवाणु, नील हरित शैवाल, साइनोबैक्टीरिया और माइक्रोप्लाज्मा।
2.  प्रोटिस्टा
इस वर्ग में एक कोशिकीय यूकेरियोटिक जीव आते हैं।
इधर उधर गमन करने के लिए, इन जीवो में सिलिया और प्लेजेला नामक सरंचनाए पाई जाती है।
इसमें भी स्वपोषी और विषमपोषी दोनों प्रकार के जीव सम्मिलित हैं।
उदाहरण एक कोशिकीय सेवाल, डाएटम और प्रोटिस्टा।
3. फ़ंजाई
इसमें विषमपोषी यूकेरियोटिक जीवो का समूह आता है।
यह जीव सड़े गले कार्बनिक पदार्थों से अपना पोषण प्राप्त करते हैं, इसलिए यह मृतजीवी कहलाते हैं।
फ़ंजाई अथवा कवक में काइटिन नामक कोशिका भित्ति पाई जाती है, जो जटिल शर्करा की बनी होती है।
कवक की कुछ प्रजातियां साइनोबैक्टीरिया के साथ स्थाई अंतर संबंध बनाती है जिसे सलाह जीविता के नाम से जाना जाता है।
उदाहरण यीस्ट, मोल्ड और मशरूम।
4. प्लांटी
इस वर्ग में कोशिका भित्ति युक्त बहुकोशिकीय यूकेरियोटिक जीव आते हैं।
यह जीव स्वपोषी होते हैं तथा प्रकाश संश्लेषण करते हैं।
सर्वाधिक पौधों को इसी वर्ग में रखा गया है।
इसमें पौधों का वर्गीकरण निम्न तथ्यों के अनुसार किया गया है।
पौधे के प्रमुख घटक पूर्ण रूप से उपस्थित हैं या अनुपस्थित हैं।
जल के संवहन के लिए  उत्तक उपस्थित है या अनुपस्थित।
बीज धारण की क्षमता है या नहीं यदि है तो बीज फल के  बाहर है या अंदर।
प्लांटी के उप वर्ग
A. थैलोफाइटा
इसमें पाए जाने वाले पौधों की संरचना में शारीरिक विभेदीकरण नहीं पाया जाता है।इस वर्ग के पौधे शेवाल कहलाते हैं।
इसमें मुख्यता जलीय जीव आते हैं उदाहरण युलोथ्रिक्स, क्लैडोफोरा, अल्वा स्पाइरोगाइरा और कारा इत्यादि।
B ब्रायोफाइटा
यहां वर्ग  पादप का उभयचर वर्ग कहलाता है।
यह पादप तना और फलों जैसी संरचनाओं में विभाजित रहता है। 
संवहन हेतु इसमें उसको का अभाव पाया जाता है इसके उदाहरण मॉस और मार्केशिया।
C. टेरिडोफाइटा
इस वर्ग के पौधों का शरीर जड़ तना तथा पत्ती में विभाजित होता है।
इस वर्ग के पौधों में जल तथा अन्य पदार्थों के संवहन हेतु उत्तक भी पाए जाते हैं।
उदाहरण मार्सेलिया फर्न हॉर्स टेल।
महत्वपूर्ण बिंदु
A, B और C में जननांग अप्रत्यक्ष रूप से उपस्थित होते हैं, अतः यह क्रिप्टो गेम्स कहलाते हैं।
वे पौधे चीन में जनन अंग पूर्ण विकसित होते हैं तथा जनन प्रक्रिया के पश्चात बीच उत्पन्न करते हैं, वे फेनेरोगेम्स कहलाते हैं।
बीज की अवस्था के आधार पर इन्हें पुन: दो भागों में वर्गीकृत किया गया है।
A जिम्नोस्पर्म
नग्न बीज उत्पन्न करने वाले पौधे जिम्नोस्पर्म कहलाते हैं।
यहां बहू वर्षीय सदाबहार और काष्ठीय होते हैं।
उदाहरण- पाइनस साइकस.
B एंजियोस्पर्म
फल के अंदर  (बंद) बीज उत्पन्न करने वाले पौधे एंजियोस्पर्म कहलाते हैं।
यह पुष्पी पादप कहलाते हैं।
इनमें बीज फलों के अंदर ढके रहते हैं।
बीजों का विकास अंडाशय के अंदर होता है जो बाद में फल में परिवर्तित हो जाता है।
बीजों में बीज पत्र होता है,  जो अंकुरण के समय हरा हो जाता है।
बीज पत्रों के संख्या के आधार पर एंजियोस्पर्म को दो भागों में बांटा गया है-
B1 एकबीजपत्री-इनमें एक बीज पत्र पाया ही जाता है।
B2 द्विबीजपत्री- इनमें दो बीज पत्र पाए जाते हैं।
5.एनिमेंलिया
इस वर्ग में सभी बहुकोशिकीययूकेरियोटिक जीवो को रखा गया है जिसमें कोशिका भित्ति नहीं पाई जाती है।
इस वर्ग के सभी जीव विषमपोषी होते हैं।
यह जंतु चलायमान होते हैं।
शारीरिक संरचना के अनुसार इनका वर्गीकरण निम्न प्रकार से है।
A. पोरिफेरा
इसमें छिद्र युक्त जीवधारी आते हैं तथा यह छिद्र इनकी नाल प्रणाली से जुड़े रहते हैं जिनकी सहायता से ये ऑक्सीजन  जल  और भोज्य पदार्थ हो का संचरण करते हैं।
यह जीव चल फिर नहीं सकते हैं तथा किसी आधार से चिपके रहते हैं।
इन चीजों का शरीर बाह: कंकाल से ढका रहता है।
इन की शारीरिक संरचना अत्यंत सरल होती है।
इसमें उतको का विभेदन नहीं होता है।
यह जीव समुंद्री आवास में पाए जाते हैं अतः इन्हें स्पांज के नाम से जाना जाता है।
उदाहरण साईकॉन, यूप्लेक्टेला और स्पांजिला इत्यादि।
B. सीलेंट्रेटा 
यह जलीय होते हैं।
इनका ऊतकीय स्तर का शारीरिक संगठन होता है।
इनमें देहगुहा पाई जाती है।
कोशिकाओं की दो परत मिलकर इनका शरीर निर्मित करते हैं। इनके कुछ जातियां (उदाहरण- कोरल) समूह बनाकर रहती है।
इनकी कुछ जातियां एकल रूप में रहती है।जैसे हाइड्रा और जेलिफ़िश।
C. प्लेटीहेल्मीन्थीज
वर्गों के जंतुओं की शारीरिक संरचना काफी जटिल होती है।इनका शरीर द्विपाश्व सममित होता है अर्थात इनका दाया और बाया भाग एक समान होता है।
इनका शरीर त्रिकोरक होता है अर्थात  ऊतकों का विभेदन तीन कोशिक में स्तरों से होता है।
इसके शरीर में बाहें तथा अंत दोनों प्रकार के अस्तरों से मिलकर बनता है
इनमें वास्तविक देहगुहा नहीं पाई जाती है, इस कारण जिससे सुव्यवस्थित अंगों का विकास संभव हो पाया है।
इनका शरीर पृष्ठधारी एवं चपटा होता है अतः चपटे क्रमि  कहलाते हैं।
उदाहरण- प्लेनेरिया, लीवरफ्लूक इत्यादि।
D. निमेमेटोडा
यह त्रिकोरक जंतु होते हैं।
इनमें द्विपाश्व सममिति पाई जाती है।
इनका शरीर बेलनाकार होता है।
इनकी देहगुहा को कूट सीलोंम कहते हैं।
इनमें उत्तक तो पाए जाते हैं परंतु अंग तंत्र पूर्ण विकसित नहीं होते हैं।
अधिकांश परजीवी इसके अंतर्गत आते हैं तथा यह अन्य जंतुओं में रोग उत्पन्न करते हैं।
उदाहरण गोल कृमि फाइलेरिया  इत्यादि।
E. एनीलिडा
इनका शरीर द्विपाश्व सममिति  होता है।
यह त्रिकोरक जंतु होते हैं।
इनमें वास्तविक देहगुहा पाई जाती है।
इनके शारीरिक अंग विकसित होते हैं तथा इनमें संवहन उत्तक पाचन तंत्र उत्सर्जन तंत्र और तंत्रिका तंत्र भी उपस्थित होते हैं।
यह लवणीय और  अलवणीय जल दोनों में पाए जाते हैं।
स्थल तथा जल दोनों जगह निवास करते हैं।
उदाहरण केचुआ जोक।
F. आर्थोपोडा
यहां जंतु जगत का सबसे बड़ा संघ है।
इनमें द्विपाश्व सममिति जाती है।
इनका शरीर खंड युक्त होता है।
इनमें खुला परिसंचरण तंत्र पाया जाता है।
देहगुहा रक्त से भरी रहती है।
इनके पैर जुड़े हुए रहते हैं।
उदाहरण तितली मक्खी, मकड़ी, बिच्छू, केकड़े और झींगा इत्यादि।
G. मोलस्का 
इसमें  द्विपाश्व सममिति पाई जाती है।
इनमें देहगुहा बहुत ही कम पाई जाती है।
इनके शरीर में थोड़ा विखंडन पाया जाता है।
अधिकांश  जंतुओं में कवच पाया जाता है ।
खुला संवहन तंत्र तथा उत्सर्जन हेतु गुर्दे जैसी संरचना पाई जाती है।
उदाहरण घोगा और सीप इत्यादि।
H. इकाईनोड़रमेटा
इन जंतुओं की त्वचा पर कांटे  होते है।
यह मुफ्तजीवी समुद्री जंतु होते हैं।
इनमें देहगुहा पाई जाती है।
यह त्रिकोरिक जंतु होते हैं।
इनमें विशिष्ट जल संवहन नाल तंत्र पाया जाता है, जो इनको चलने में सहायता करता है।
इनमें कैलशियम कार्बोनेट के कंकाल तथा कांटे पाए जाते हैं। उदाहरण स्टार फिश इत्यादि।
I. प्रोटोकार्डेटा
यह  द्विपाश्र्व सममित होते हैं।
इनमें देहगुहा पाई जाती है।
यह त्रिकोरिक जंतु होते हैं।
शारीरिक संरचना में यह जीव कुछ नए लक्षण प्रदर्शित करते हैं,
(उदाहरण नोटोकार्ड-  यह पेशियों को जोड़ने का स्थान भी प्रदान करते हैं जिससे चलन में आसानी होते हैं यहां तंत्रिका उत्तक को आहार नाल से अलग करती है यहां जंतुओं के पृष्ठ भाग पर पाई जाती है)
अन्य उदाहरण वेलेंनाग्लॉसस, हर्डमोनिया और एम्फ���योक्ट्स।
J. वर्टीब्रेटा
इन जंतुओं में वास्तविक मेरुदंड तथा अन्तः कंकाल उपस्थित होता है।
यह  द्विपाश्र्व सममित होते हैं।
इनमें देहगुहा पाई जाती है।
यह त्रिकोरिक जंतु होते हैं।
जंतुओं में पेशियों का वितरण अलग अलग होता है
इनकी पेशियां कंकाल से जुड़ी होती है,जो चलने में सहायता प्रदान करती हैं। 
इनमें  उत्तको और अंगो का जटिल विभेदन पाया जाता है।
वर्टीब्रेटा को निम्न भागों में विभक्त किया गया है-
A.साइलोक्लोस्टोमेटा
यह जबड़े रहित कशेरुकी होते हैं।
इनका शरीर लंबे ईल के समान होता है।
इनका मुख गोलाकार एवं उनकी त्वचा शल्क रहित होती है। यह बाह: परजीवी होते हैं। उदाहरण पेट्रोमाइजोंन मिक्ज़ीन।
B.मत्स्य
यह मछलियां होती है जो समुंद्र और मीठे जल में प��ई जाती है। 
इनकी त्वचा शल्क और फेफड़ों से ढकी रहती है।
इनकी माँसल पूछ इनको तैरने में सहायता प्रदान करती है।
इनका शरीर धारा रेखीय होता है।
श्वसन क्रिया के लिए इनमें क्लोम पाए जाते हैं।
क्लोम जल में विलय ऑक्सीजन का प्रयोग करता है।
यह जीव असमतापी होते हैं, इनका ह्रदय 4 कक्षीय होता है।
यह अंडे देते हैं। 
कुछ मछलियों में कंकाल केवल उपास्थि का बना होता है, जैसे शार्क।
कुछ मछलियों में कंकाल अस्थि का बना होता है,जैसे ट्यूना और रोहू।
C.जल स्थलचर
यह मत्स्य वर्ग से भिन्न होते हैं।
इनमें शल्क अनुपस्थित होते हैं।
इनकी त्वचा पर श्लेष्मा ग्रंथियां पाई जाती है।
इनका ह्रदय त्रिकक्षीय होता है।
इनमें बाहें कंकाल अनुपस्थित होता है।
इनमें वक्क़ पाए जाते हैं।
श्वसन क्लोम तथा फेफड़ों द्वारा होता है।
यह अंडे देने वाले जंतु होते हैं।
यह जल तथा स्थल दोनों जगह पर निवास करते हैं
उदाहरण मेंढक, सेलामेंडर और टोड इत्यादि।
D.सरीसृप
यह असमतापी जंतु होते हैं।
इनका शरीर शल्कों से ढका होता है।
इनमें श्वसन फेफड़ों के द्वारा होता है। 
इनका ह्रदय त्रिकक्षीय होता है। अपवाद- स्वरूप मगरमच्छ का ह्रदय 4 कक्षीय होता है।
इनमें वक्क़ पाया जाता है। 
यह अंडे देने वाले प्राणी होते हैं, इनके अंडे कठोर कवच से ढके रहते हैं।
उदाहरण- कछुआ, सांप, छिपकली औऱ मगरमच्छ इत्यादि।
E.पक्षी
यह समतापी प्राणी है।
इनका ह्रदय 4 कक्षीय होता है।
इनके दो जोड़ी पैर होते हैं, आगे के दो पैर पंखों में रूपांतरित होते हैं।
इनका शरीर पंखों से ढका रहता है।
फेफड़ों द्वारा श्वसन किया जाता है।
सभी पक्षी इसी वर्ग में आते हैं।
F.स्तनपायी
यह समतापी प्राणी होते हैं।
इनका ह्रदय 4 कक्षीय होता है।
सभी वर्ग के जंतुओं में नवजात पोषण के लिए दुग्ध ग्रंथियां पाई जाती हैं।
इनकी त्वचा पर बाल, स्वेद ग्रंथियां तथा तेल ग्रंथियां में पायी जाती हैं।
इस वर्ग के जंतुओं शिशुओं को जन्म देते है, अपवाद- कुछ जंतु अंडे देते हैं (जैसे कंगारू में  अविकसित बच्चे मरसुपियम नामक थैली में लटके रहते हैं, जब तक कि उनका पूर्णता विकास ना हो जाए)
उदाहरण बिल्ली मनुष्य और चमगादड़।
नाम पद्धति
नाम पद्धति की शुरुआत 18 वीं सदी में कैरोलस लीनियस द्वारा की गई।
नाम पद्धति, जीवो की एक दूसरे में पाई जाने वाली समानता और असमानता पर निर्भर करती है।
 नाम पद्धति से जुड़े महत्वपूर्ण तथ्य
जीनस का नाम अंग्रेजी के बड़े अक्षर से शुरू होना चाहिए।
प्रजाति का नाम छोटे अक्षर से शुरू होना चाहिए
छपे हुए रूप में वैज्ञानिक नाम इटैलिक से लिखे जाते हैं
जब इन्हें हाथों से लिखा जाता है तो जीनस और सस्पीशीज़ दोनों को अलग-अलग लिखकर रेखांकित किया जाता है।
कैरोलस लीनियस सामान्य परिचय
जन्म स्थान- स्वीडन।
दिलचस्पी- पौधों का अध्ययन करना।
धनी अधिकारी के बगीचे में मालिक की नौकरी करते थे।
वहीं बगीचे में पौधों की विविधता का अध्ययन किया।
इसी के संबंध में उन्होंने "सिस्टेमा नेचुरी" नामक पुस्तक लिखी।
अन्य वैज्ञानिकों ने वर्गीकरण का आधार इसी पुस्तक को बनाया।
इस संबंध में इनके 14 शोध पत्र प्रकाशित हुए।
22 वर्ष की आयु में इनका पहला शोध पत्र प्रकाशित हुआ।
     Resent Update: 18-02-21
      ----------------THE END--------------
मेरी प्रतिक्रिया
1. आपको हमारी यह श्रृंखला केसी लगी ?
2.  किस प्रकार इस श्रंखला को बेहतर बनाया जाए ?
आपके  सुझाव
अपने बेहतरीन सुझावों को देने के लिए हरा बटन दबाये।
       सुझाव भेजे       
आपकी  शिकायत
किसी लेख/पोस्ट  से सम्बंधित त्रुटि/गलती के लिए लाल बटन दबाये।
       शिकायत करें       
  अपना लेख भेजें
अगर आप अपना स्वरचयित लेख/कहानी/कविता/ संकलन/अन्य विषय भेजना चाहते है तो नीचे दिए गए  बटन को को दबाये।
       अपना लेख भेजें       
0 notes
chaitanyabharatnews · 3 years
Text
बर्ड फ्लू से बचाने में कारगर है यह आयुर्वेदिक काढ़ा, जानिए बनाने की विधि और इस बीमारी के लक्षण
Tumblr media
चैतन्य भारत न्यूज कोरोना संकट के बीच देश में बर्ड फ्लू ने दस्तक दे दी है। उत्तर, पश्चिम और दक्षिण भारत के कई राज्यों में बर्ड फ्लू के मामलों में धीरे-धीरे वृद्धि देखी जा रही है। जबकि हिमाचल प्रदेश, राजस्थान, मध्य प्रदेश और केरल जैसे राज्यों में 25 हजार से ज्यादा बतख, कौवे और प्रवासी पक्षियों की मौत हो चुकी है। बर्ड फ्लू से जनता में दहशत फैलने लगी है। लोगों को डर है कि कहीं ये भी महामारी में न बदल जाए। हालांकि, स्वास्थ्य विशेषज्ञों ने ऐसी संभावना को नकार दिया है और जनता को डरने के बजाय एहतियात बरतने की सलाह दी है। डॉक्टरों का कहना है कि, बर्ड फ्लू का कारण बनने वाले एच5एन1 वायरस के इंसान से इंसान में संचरित होने का जोखिम दुर्लभ है। ऐसा तब ही संभव है जब कोई व्यक्ति पक्षियों की संक्रमित प्रजातियों के साथ निकटता में काम करे। इंसानों में बर्ड फ्लू का वायरस आंख, नाक और मुंह के जरिए प्रवेश करता है। बर्ड फ्लू के लक्षण ठीक तरह से सांस ना ले पाना खांसी आना कफ का बनना और जमा होना सिर दर्द लगातार बने रहना बुखार आना और शरीर अकड़ना शरीर में दर्द होना जल्दी थकान का अनुभव होना पेट में दर्द होना यदि आपको बर्ड फ्लू से खुद को बचाकर रखना हैं तो उसके लिए जरुरी हैं कि आप खुद की इम्यूनिटी को मजबूत बनाए। इसके लिए रोजाना योगासन के साथ-साथ इस आयुर्वेदिक काढ़ा का सेवन कर सकते हैं। आयुर्वेदिक काढ़े को इस तरह बनाए- काढ़े बनाने की सामग्री 8-10 तुलसी की पत्तियां गिलोय की थोड़ी सी डंडी थोड़ी सी काली मिर्च 2-3 लौंग 1 इंच कच्ची हल्दी 1 इंच अदरक ऐसे बनाएं आयुर्वेदिक काढ़ा इन सभी चीजों को इमामदस्ता में डालकर अच्छी तरह से कूट लें। इसके बाद एक लीटर पानी में इन सभी चीजों को डालकर अच्छी तरह से उबाल लें। जब पानी 100 या 200 ग्राम बचें तो इसे छान लें। छानने के बाद धीरे-धीरे इसका सेवन करें। Read the full article
0 notes
kisansatta · 4 years
Photo
Tumblr media
किसान कैसे करे मृदा जलमग्नता की समस्या का समाधान
Tumblr media
अवश्य ही मृदा जल स्तर की पौध वृद्धि एवं मृदा गुणों को संतुलित रखने में एक महत्वपूर्ण भूमिका होती है किन्तु यई मृदा जल यदि आवश्यकता से अधिक या कम हो जाए तो मृदा गुणों के साथ-साथ- पौध वृद्धि को भी प्रतिकूल रूप से प्रभावित करता है। ऐसी मृदा जिसमें वर्ष में लंबे समयावधि तक जलक्रांत की दशा हो और उसमें लगातार वायु संचार में कमी बनी रहे तो उसे मृदा जल मग्नता कहते हैं। मृदा की इस दशा के कारण भौतिक रासायनिक एवं जैव गुणों में अभूतपूर्व परिवर्तन हो जाता है। फलस्वरूप ऐसी मृदा में फसलोत्पादन लगभग असंभव हो जाता है।
इस परिस्थिति में जल निकास की उचित व्यवस्था द्वारा मृदा गुणों को पौध की आवश्यकतानुसार परिवर्तन करके फसल उत्पादन संभव किया जा सकता है। आर्थिक दृष्टि से महत्वपूर्ण फसलों में हानि के अलावा लगभग सभी प्रकार के पौधों की अच्छी वृद्धि एवं पैदावार के लिए अधिकतम 75 फीसदी तक ही मृदा रन्ध पानी से तृप्त होते हैं और 25फीसदी रंध्र हवा के आदान-प्रदान के लिए आवश्यक होते हैं।
जिसके कारण जड़ श्वसन क्रिया से कार्बनऑक्साइड का निष्कासन और वायुमंडल से ऑक्सीजन का प्रवेश संभव हो पाटा है जो पौधों की जड़ों क�� घुटन से बचाता है। मृदा सतह का तालनुमा होना, भूमिगत जल स्टार के ऊपर होना, वर्षा जल का अंत स्वयंदन कम होना, चिकनी मिट्टी के साथ-साथ मृदा तह में चट्टान या चिकनी मिट्टी की परत का होना एवं मृदा क्षारीयता इत्यादि परिस्थितियां जल मग्नता को प्रोत्साहित करती है।
मृदा जल मग्नता के प्रकार
नदियों में बाढ़ द्वारा जल मग्नता वर्षा ऋतु में अधिक बरसात के कारण नदी के आसपास के क्षेत्रों में बाढ़ की स्थिति बनने के कारण मृदा जल मग्नता हो जाती है।
समुद्री बाढ़ द्वारा जलमग्नता: समुद्र्र का पानी आसपास के क्षेत्रों में फैल जाता है जो मृदा जल मग्नता का कारण बना रहता है।
सामयिक जल मग्नता: बरसात के दिनों में प्रवाहित वर्षा जल गड्ढा या तालनुमा सतह पर एकत्रित होकर मृदा जल मग्नता को प्रोत्साहित करता है।
शाश्वत जल मग्नता: अगाध जल, दलहन तथा नहर के पास की जमीन यहां लगातार जल प्रभावित होती रहती है शाश्वत जल मग्नता का कारण बनती है।
भूमिगत जल मग्नता: बरसार के समय में उत्पन्न भूमिगत जल मग्नता इस प्रकार के जलमग्नता का कारण बनता है।
मृदा जलमग्नता को प्रोत्साहित करने वाले कारक
जलवायु: अधिक वर्षा के कारण पानी का उचित निकास नहीं होने से सतह पर वर्षा जल एकत्रित हो जाता है।
बाढ़: सामान्य रूप में बाढ़ का पानी खेतों में जमा होकर जल मग्नता की स्थिति पैदा कर देता है।
नहरों से जल रिसाव: नहर के आसपास के क्षेत्र लगातार जल रिसाव के कारण जल मग्नता की स्थिति में सदैव बने रहते हैं।
भूमि आकार: तश्तरी या तालनुमा भूमि आकार होने के कारण अन्यंत्र उच्च क्षेत्रों से प्रवाहित जल इकट्ठा होता रहता है जो मृदा जल मग्नता का कारण बनता है।
अनियंत्रित एवं अनावश्यक सिंचाई: आवश्कता से अधिक सिंचाई मृदा सतह पर जल जमाव को प्रोत्साहित करता है जो जल मग्नता का कारण बनता है।
जल निकास: उचित निकास की कमी या व्यवस्था न होने से क्षेत्र विशेष में जल मग्नता हो जाती है।
मृदा जल मग्नता का प्रभाव
जल की गहराई: निचले क्षेत्र जहां सामान्यत: बाढ़ की स्थिति बन जाने के कारण लगभग 50 सेंटीमीटर तक पानी खड़ा हो जाता है जो पौधों की वृद्धि एवं पैदावार पर हासित क्षमता में कमी के कारण प्रतिकूल प्रभाव डालता है। इस स्थिति में पोषक तत्वों की भी कमी हो जाती है।
वायु संचार में कमी: मृदा जल मग्नता के कारण मिट्टी के रंध्रों में उपस्थित हवा बाहर निकल जाती है और संपूर्ण रन्ध्र जल तृप्त हो जाते हैं और साथ ही वायुमंडल से हवा का आवागमन अवरुद्ध हो जाता है। इस परिस्थति में मृदा के अंदर वायु संचार में भारी कमी आ जाती है।
मृदा गठन: पानी के लगातार गतिहीन दशा में रहने के कारण मृदा गठन पूर्णतया नष्ट हो जाता है और फलस्वरूप मिट्टी का घनत्व बढ़ जाता है जिससे मिट्टी सख्त/ ठोस हो जाती है।
मृदा तापमान: मृदा जल मग्नता मृदा ताप को कम करने में सहायक होती है। नम मिट्टी की गुप्त ऊष्मा शुष्क मिट्टी की तुलना में ज्यादा होती है जो जीवाणुओं की क्रियाशीलता और पोषक तत्वों की उपलब्धता को प्रभावित करती है।
मृदा पी.एच. मान: जल मग्नता की दशा में अम्लीय मिट्टी का पी.एच. मान बढ़ जाता है और क्षारीय मिट्टी पी.एच. मान घट कर सामान्य स्तर पर आ जाता है।
पोषक तत्वों की उपलब्धता: सामान्यत: जल मग्नता की दशा में उपलब्ध पोषक तत्वों जैसे नाइट्रोजन, फास्फोरस, पोटाश, गंधक तथा जिंक इत्यादि की कमी हो जाती है। इसके विपरीत लोहा एवं मैगनीज की अधिकता के कारण इनकी विषाक्ता के लक्षण दिखाई पडऩे लगते हैं।
पौधों पर प्रभाव: मृदा जल मग्नता में वायुसंचार की कमी के कर्ण धान के अलावा कोई भी फसल जीवित नहीं रह पाती है। ज्ञात है कि धान जैसी फसलें अपने ऑक्सीजन की पूर्ति हवा से तनों के माध्यम से करते हैं। कुछ पौधे तने के ऊपर गुब्बारानुमा संरचना का निर्माण करते हैं और आवश्यकता पडऩे पर इसमें उपलब्ध वायु का प्रयोग करते हैं।
ऐसी परिस्थिति में कुछ जहरीले पदार्थों जैसे हाड्रोजन सल्फाइड, ब्युटारिक एसिड तथा कार्बोहाइड्रेट के अपघटन या सडऩ के कारण उत्पन्न शीघ्रवाष्पशील वसा अम्ल इत्यादि का निर्माण होता जो पौधों के स्वास्थ्य पर प्रतिकूल प्रभाव डालते हैं। जल मग्नता का पौधों पर प्रतिकूल प्रभाव होने के कारण प्रमुख लक्षण तुरंत परिलक्षित होते हैं जो निम्नलिखित हैं:- पत्तों का कुम्हलाना, किनारे से पत्तों का नीचे की ओर मुडऩा तथा झड़ जाना, तनों के वृद्धि दर में कमी, पत्तों के झडऩे की तैयारी, पत्तों का पीला होना, द्वितीयक जड़ों का निर्माण, जड़ों की वृद्धि में कमी, मुलरोम तथा छोटी जड़ों की मृत्यु तथा पैदावार में भारी कमी इत्यादि।
जल मग्न मृदा का प्रबंध
भूमि का समतलीकरण: भूमि की सतह के समतल होने से अतिरिक्त पानी का जमाव नहीं होता और प्राकृतिक जल निकास शीघ्र हो जाता है।
नियंत्रित सिंचाई: अनियंत्रित सिंचाई के कारण जल मग्नता की स्थिति पैदा हो जाती है। अत: ऐसी परिस्थिति में नियंत्रित सिंचाई प्रदान करके इस समस्या का समाधान किया जा सकता है।
नहरों के जल रिसाव को रोकना: नहर द्वारा सिंचित क्षेत्रों में जल रिसाव के कारण जल मग्नता की स्थिति बनी रहती है अत: नहरों तथा नालियों द्वारा होने वाले जल रिसाव को रोक कर से इस समस्या को कम किया जा सकता है।
बाढ़ की रोकथाम: बाढ़ प्रभावित क्षेत्रों में अधिकांशतया खेती योग्य भूमि जल मग्न हो जाती है और फसल का बहुत बड़ा नुकसान हो जाता है अत: इन क्षेत्रों में नदी के किनारों पर बांध बनाकर जल प्रवाह को नियंत्रित किया जा सकता है।
अधिक जल मांग वाले वृक्षों का रोपण: वृक्षों की बहुत सी प्रजातियां अपनी उचित वृद्धि को लगातार बनाए रखने के लिए अधिक जलापूर्ति की मांग करते हैं। इन पौधों में विशेष रूप से सैलिक्स, मूंज घास, सदाबहार (आक), पॉपलर, शीशम, सफेदा तथा बबूल इत्यादि प्रजातियां ऐसी हैं जो अधिक वर्षोत्सर्जन क्रिया के कारण अत्यधिक जल का प्रयोग करके भूमिगत जल स्तर को घटाने में सहायक होते हैं।अत: इस प्रकार के पौधों का भू-जल मग्नता की दशा में रोपण करके इस समस्या का समाधान किया जा सकता है।
उपयुक्त फसल तथा प्रजातियों का चुनाव: बहुत सी ऐसी फसलें जैसे धान, जुट, बरसीम, सिंघाड़ा, कमल, ढैंचा एवं काष्ठ फल इत्यादि मृदा जल मग्नता की दशा को कुछ सीमा तक सहन कर सकते हैं। अत: इन फसलों की सहनशक्ति के अनुसार चयन करके इन्हें सफलता पूर्वक उगाया जा सकता है।
जल निकास: भू-क्षेत्र में अतिरिक्त सतही या भूमिगत जल जमाव को प्राकृतिक या कृत्रिम विधियों द्वारा बाहर निकालने की प्रक्रिया को जल निकास कहते हैं। जल निकास का मुख्य उद्देश्य मिट्टी में उचित वायु संचार के लिए ऐसी परिस्थिति का निर्माण करना है जिससे पौधों की जड़ों को ऑक्सीजन की उचित मात्रा प्राप्त होती रहे। उचित जल निकास के लाभ उल्लेखनीय हैं:
सामान्यतया नम मिट्टी में क्ले (चिकनी मिट्टी) तथा जैव पदार्थों की मात्रा अधिक होने के कारण मिट्टी की उर्वरा शक्ति भी अधिक होती है। जल निकास के फलस्वरूप इस प्रकार के भूमि की उपजाऊ शक्ति को बढ़ाया जा सकता है।
जल निकास द्वारा मृदा ताप में जल्दी परिवर्तन हो जाने से पोषक तत्वों की उपलब्धता, जीवाणुओं की क्रियाशीलता एवं पौधों की वृद्धि अधिक हो जाती है।
जल निकास के कारण संपूर्ण क्षेत्र विशेष का एक जैसा हो जाने के कारण जुताई, गुड़ाई, पौध रोपण, बुआई अन्य कृषि क्रियाएं, कटाई एवं सिंचाई स्तर में सुविधापूर्ण समानता आ जाती है। यांत्रिक कृषि कार्य में ट्रैक्टर इत्यादि का इस्तेमाल भी सुविधाजनक हो जाता है। वायु संचार में वृद्धि होने से जीवाणुओं की क्रियाशीलता बढ़ जाती है और जैव पदार्थों का विघटन आसान हो जाने के कारण उपलब्ध पोषक तत्वों की उपयोग क्षमता में भी वृद्धि हो जाती है।
उचित जल निकास द्वारा नाइट्रोजन ह्रास को कम करने में आशातीत सफलता मिलती है। ज्ञात है कि मृदा में वायु अवरुद्धता के कारण नाइट्रोजन का जीवाणुओं द्वारा विघटन होकर नाइट्रोजन गैस के रूप में परिवर्तित हो जाता है जो अन्तोतगत्वा हवा में समाहित हो जाता है।
जल मग्नता के कारण कुछ विषाक्त पदार्थों जैसे घुलनशीलता लवण, इथाइलीन गैस, मीथेन गैस, ब्यूटाइरिक अम्ल, सल्फाइडस, फेरस आउन तथा मैंग्नस आयन इत्यादि का निर्माण होता है जो मिट्टी में इकट्ठा होकर पौधों के लिए विषाक्तता पैदा करता है। अत: उचित जल निकास से वायु संचार बढ़ जाता है और फलस्वरूप इस तरह की विषाक्तता में कमी आ जाती है।
उचित जल निकास वाली भूमि प्रत्येक प्रकार की फसलों की खेती के लिए उपयुक्त होती है जबकि गीली या नम मिट्टी में सीमित फसलें जो नम जड़ों को सहन कर सकती हैं, की ही खेती की जा सकती है। ज्ञात है कि मात्र थोड़े समय की घुटन से ही बहुत सी फसलों की पौध मर जाती है।
उचित जल निकास पौध जड़ों को अधिक गहराई तल प्रवेश करने के लिए प्रोत्साहित करता है। ऐसा होने से पौधों का पोषण क्षेत्र बढ़ जाने के कारण फसल की वृद्धि पौधों में सूखा सहन करने की क्षमता में भी वृद्धि हो जाती है।
जल निकास होने से मृदा में अन्त:स्वयंदन बढ़ जाने के कारण जल प्रवाह में कमी आ जाती है फलस्वरूप मृदा कटाव कम हो जाता है। अतिरिक्त जल रहित भूमि मकान तथा सड़क को स्थिरता प्रदान करती है।
अतिरिक्त जल रहित भूमि में घरों से मल निष्कासन तथा स्वच्छता प्रदान इत्यादि की समस्या कम हो जाती है।
उचित जल निकास से मच्छरों तथा बिमारी फैलाने वाले कीड़ों-मकोड़ों इत्यादि की समस्या कम जो जाती है।
अतिरिक्त जल रहित भूमि का व्यवसायिक मूल्य अधिक होता है।
क्षारीय मृदा सुधार के लिए उचित जल निकास आवश्यक होता है।
जल निकास के हानिकारक परिणाम
उचित जल निकास का प्रावधान बनाने से पूर्व भूमि सतह पर वर्तमान विभिन्न प्रकार की जल मग्नता का वर्गीकरण आवश्यक होता है और उसमें आर्द्र भूमि तथा नम मिट्टी के मध्य एक स्पष्ट भेद रेखा का होना और भी अधिक आवश्यक होता है। आर्द्र भूमि का जल निकास करके उसमें उच्चतर भूमि वाली आर्थिक दृष्टि से बहुत महत्वपूर्ण फसलों की ही खेती की जा सकती है अन्यथा इसका प्रयोग पर्यावरण की दृष्टि से महत्वपूर्ण फसलों पशु-पक्षी के प्राकृतिक निवास के लिए करना चाहिए।
जब नम मिट्टी की जल निकास करके उसमें लगभग सभी प्रकार की फसलों को उगाकर पैदावार में वृद्धि की जा सकती है। बहुत सी नम मिट्टी ऐसी है जिनका जल निकास नहीं करना चाहिये जैसे: पर्यावरण की दृष्टि से उपलब्ध जलीय जीव, इनके द्वारा आय तथा उगाये जाने वाली फसल की आय में अंतर, उपलब्ध सामाजिक अधिकार एवं पर्यावरण में इनका योगदान इत्यादि जो फसल उगाने की अनुमति नहीं देते हैं।
आसपास के क्षेत्रों में भूमिगत जल स्तर जिसके कारण नाला, कुआं, तालाब, झरना एवं बावड़ी इत्यादि में लगातार जल प्रवाह होता रहता है।
रेतीली मिट्टी का जल निकास कनरे से भूमिगत जल स्तर में कमी आ जाती है औरफसल उगाना नामुमकिन हो जाता है। नम मिट्टी जिसमें लोहा तथा गंधक युक्त खनिज की मात्रा ज्यादा होती है, उसका जल निकास करने से पी.एच, मान बहुत कम हो जाता है जो फसल उगाने के अलिए उपयुक्त नहीं होता है।
जल निकास करने से मिट्टी में उपलब्ध पोषक तत्वों का ह्रास हो जाता है जिससे मृदा उर्वरता में कमी आ जाती है। अत: निम्न उर्वरता स्तर पर फसल की पैदावार, उसमें प्रयोग किये गए उर्वरकों की मात्र एवं उपलब्धता, आर्थिक तथा सामाजिक दृष्टिकोण से महत्वपूर्ण इत्यादि का आंकलन आवश्यक हो जाता है।
जल निकास प्रणाली सतही जल निकास: सतही जल निकास तकनीक के अंतर्गत खुली नालियों का निर्माण किया जाता है जिसमें अतिरिक्त जल इक_ा होकर क्षेत्र विशेष से बाहर निकल जाता है और साथ ही भूमि सतह को समतल करते हुए पर्याप्त ढलान दिया जाता है जिससे जल प्रवाह आसानी से हो सके। इस तकनीक का प्रयोग सभी प्रकार की मिट्टी में किया जा सकता है।
सामान्य रूप से लगभग समतल, धीमी जल प्रवेश, उथली जमीन या चिकनी मिट्टी थाल के आकार वाली सतह जो ऊंचाई वाले क्षेत्र का जल प्रवाह इकट्ठा करता है और अतिरिक्त जल निकास की आवश्कता वाली भूमि में इस तकनीक का प्रयोग सफलता पूर्वक किया जा सकता है। इस विधि में मुख्यतया खुली नाली/खाई, छोटी-छोटी क्यारी द्वारा जल निकास तथा समतलीकरण इत्यादि विधियों के इस्तेमाल किया जाता है।
अवमृदा/भूमिगत जल निकास: अवमृदा जल निकास के लिए भूमि के अंदर छिद्रयुक्त प्लास्टिक या टाइल द्वारा निर्मित पाईप/ नाली को निश्चित ढलान पर दफना दिया जाता है जिसके द्वारा अतिरिक्त जल का रिसाव होकर नाली के माध्यम से निकास होता रहता है। इस जल निकास तकनीक में आधारभूत निवेश की अत्यधिक मात्रा होने के कारण निवेशक के पूर्व आर्थिक या अर्थव्यवस्था का आंकलन आवश्यक होता है।
मृदा संरचना एंव गठन के आधार पर ही जल निकास तकनीक का चयन करना चाहिए। इस विधि में मुख्यतया टाइल निकास, टियूब निकास, सुरंग निकास, गड्ढा एवं पम्प निकास तथा विशेष प्रकार से निर्मित सीधा-खड़ा आधारभूत ढांचा जैसे राहत कुआं, पम्प कुआं और उल्टा कुआं इत्यादि का इस्तेमाल किया जाता है
https://is.gd/6dwkxv #Khetikisani, #Kisankeebaat, #HowFarmersSolveTheProblemOfSoilSubmergence #khetikisani, #kisankeebaat, How farmers solve the problem of soil submergence Farming, Top #Farming, #Top KISAN SATTA - सच का संकल्प
0 notes
sahu4you · 4 years
Text
प्रोस्टेट ग्रंथि क्या है? प्रोस्टेट ग्रंथि और इसके कार्य
Tumblr media
प्रोस्टेट क्या है, कार्य प्रणाली, लक्षण, ग्रंथि बढ़ने और बचाव जानिए Prostate क्या है, इसकी कार्य प्रणाली, इसके बढ़ने के लक्षण, और ग्रंथि बढ़ने से बचाव के उपाय। पौरुष ग्रंथि (Prostate) बढ़ने से कैंसर की भी संभावना रहती है। बढ़ते उम्र के साथ साथ मनुष्य के शरीर में कई प्रकार की समस्या उत्पन्न होना आरम्भ हो जाता है। आप यह अक्सर देखे होंगे की उम्र के बढ़ने पर महिलाए रजोनिवृति से प्रभावित होती है ठीक उसी प्रकार पुरुष Benign Prostatic Hyperplasia जैसे समस्या से परेशान नजर आते है।
Tumblr media
What is Prostate Kya Hai यह समस्या पुरुषो में पाए जाने वाला एक समान्य समस्या है। क्या आप जानते है यह समस्या मनुष्य शरीर में किन किन कारणों से उत्पन्न होती है या इस समस्या का क्या समाधान एवं बचाव है ? स���टीफन हॉकिंग के सुवि��ार भगत सिंह निबंध - शहीद दिवस पर भाषण अगर आप इन सभी बातो से अनजान है तो आज अपने इस रचना के मदद से आपको इस समस्या से सम्बंधित महत्वपूर्ण जानकारियों से आपको परिचित करेंगे।
Prostate क्या होता है?
मनुष्य शरीर की बनावट बेहद पेचीदा है जिसमे कई प्रकार के ग्रंथियाँ समावेशित है। इन सभी ग्रंथियों में एक ग्रंथि प्रोस्टेट भी शामिल है। प्रोस्टेट मनुष्य शरीर के मूत्राशय एवं लिंग के बीच स्थित ग्रंथि है जो आकर में अखरोट के समान होता है। यह ग्रंथि पुरुषो में पाई जाती है जो मूत्रमार्ग का एक हिस्सा है एवं मूत्रजननाशक साइनस के पैल्विक हिस्सा से विकसित होता है। इस ग्रंथि को पुरुषो का दूसरा दिल भी कहा जाता है। प्रोस्टेट की कार्य प्रणाली शरीर में मौजूद सभी ग्रंथि का अलग अलग कार्य होता है जो हमे स्वस्थ रखने में काफी मददगार शाबित होता है। इस ग्रंथि का मुख्य कार्य शरीर से निकलने वाले मूत्र के बहाव को नियंत्रित करना होता है। इसके अलावा इसके निम्न कार्य है :- पुरुष यौन प्रतिक्रिया पुरुष उत्सर्जन के दौरान पुरुषो में उत्पन्न होने वाले शुक्राणु वैस डीफ्रेंसिंग से पुरुष मूत्रमार्ग में स्खलन नलिकाओं के माध्यम से फैलता है जो इस ग्रंथि के अन्दर स्थित होता है। Secretions (स्राव) प्रोस्टेटिक स्राव सभी प्रजातियों में भिन्न भिन्न होता है जो आम तौर पर साधारण शर्करा से बना होता हैं और थोड़ा क्षारीय होता हैं। Regulation (विनियमन) इस कार्य को ठीक से करने के लिए प्रोस्टेट को पुरुष हार्मोन की आवश्यकता होती है, जो पुरुष यौन विशेषताओं के लिए जिम्मेदार हैं। इस प्रिक्रिया में उत्पन्न होने वाले मुख्य पुरुष हार्मोन टेस्टोस्टेरोन जो मुख्य रूप से अंडकोषों द्वारा उत्पन्न होता है यह Dihydro-Testosterone है जो टेस्टोस्टेरोन का एक मेटाबोलाइट है जो कि प्रोस्टेट को मुख्य रूप से नियंत्रित करता है। Prostate होने के लक्षण उम्र के साथ साथ शरीर में कई प्रकार के समस्या का आर��्भ हो जाता है। इसमे एक प्रोस्टेट समस्या भी शामिल है। यह समस्या पुरुषो में पाया जाता है जो 40 वर्ष के व्यक्ति में दिखना आरम्भ हो जाता है। शोध से यह पता चल पाया है की आज 30% व्यक्ति 40 वर्ष के उम्र में इस समस्या से ग्रषित है। इसमे ग्रन्थि का आकर बढ़ जाता है जिस कारण मनुष्य को मूत्र त्याग करने में समस्या होती है। इस बीमारी में निम्न समस्या उत्पन्न होती है: मूत्र त्याग करने में दर्द का होना। मूत्रत्याग में जलन का एहसास होना। एवं सनसनाहट उत्पन्न होना। बार बार मूत्र त्याग करने का इक्षा होना। रात में 1-2 उठ कर मूत्र त्याग करना। प्रोस्टेट ग्रंथि बढ़ने के कारण शरीर में उत्पन्न होने वाले समस्या का कुछ ना कुछ कारण होता है जिससे मनुष्य समस्या से प्रभावित होता है। प्रोस्टेट समस्या उत्पन्न होने के निम्न कारण है :- पानी का कम सेवन बढ़ती उम्र अनुवांशिकता हार्मोन में बदलाव का होना संक्रमण का होना अधिक शराब का सेवन करना कैफीनयुक्त पेय प्रदार्थ का सेवन करना -जैसे अधिक चाय या कॉफ़ी पीना प्रोस्टेट समस्या से बचाव उम्र के साथ साथ व्यक्ति को अपने खान पान पर ध्यान देना अति आवश्यक है। अगर आप प्रोस्टेट से बचना चाहते हैं तो आपको शरीर को नियमित व्यायाम की भी आवश्यकता होती है। अगर आप चाहते है की आप अपने बढ़ते उम्र के साथ इस समस्या से दूर रहना चाहते है तो निम्न बातो का ध्यान रखे :- एक शोध में यह पता चला है की ठंड के दिनों में लोग पानी कम पीते है जिससे यूरिन ग्लैंड में एकत्र मूत्र की मात्र में वृधि हो जाती है और यह ग्रंथि में संक्रमण उत्पन्न करता है जिसे आप इस समस्या से ग्रषित हो सकते है। शरीर के बढ़ रहे वजन को नियंत्रित करे। रेड मीट का सेवन नहीं करे। अपने आहार में फल एवं सब्जियों का सेवन करे। विटामिन सी युक्त भोजन का सेवन करे। चर्बीयुक्त एवं वसायुक्त भोजन का सेवन बंद करे। चाय और कॉफ़ी कम पिया करे, 1 या 02 बार काफी है। दैनिक जीवन में रोजाना 3 से 4 लीटर पानी का सेवन करे। कई समस्या में ऐसा देखने को पाया जाता है की समस्या का समय के साथ इलाज नहीं करने से यह कई गंभीर समस्या का रूप ले लेता है। ठीक उसी प्रकार शरीर में उत्पन्न प्रोस्टेट का इलाज समय पर नही किया गया तो यह आपको किडनी की समस्या, प्रोस्टेट कैंसर आदि जैसे गंभीर समस्या से ग्रषित कर सकती है. इसलिए 40 के उम्र से अधिक आयु वर्ग वाले व्यक्ति को साल में एक बार Digital Rectal Test एवं Prostate-Specific Antigen Test कारण चाहिए। इस Test के मदद से आप अपने प्रोस्टेट के वर्तमान स्वास्थ एवं स्थित का पता लगा सकते है। निष्कर्ष: जी हाँ दोस्तों, आपको आज की पोस्ट कैसी लगी, आज हमने आपको बताया Prostate Kya Hai और Prostate Ka Ilaaj बहुत आसान शब्दों में, हमने आज की पोस्ट में भी सीखा। धोखेबाज दोस्त पर शायरी भाई बहन पर अनमोल विचार आज मैंने इस पोस्ट में क्या है प्रोस्टेट ग्रंथि बढ़ने के लक्षण, कारण, इलाज सीखा। आपको इस पोस्ट की जानकारी अपने दोस्तों को भी देनी चाहिए। वे और सोशल मीडिया पर भी यह पोस्ट ज़रूर साझा करें। इसके अलावा, कई लोग इस जानकारी तक पहुंच सकते हैं। यदि आप हमारी वेबसाइट के नवीनतम अपडेट प्राप्त करना चाहते हैं, तो आपको हमारी Sahu4You वेबसाइट सब्सक्राइब करना होगा। नई तकनीक के बारे में जानकारी के लिए हमारे दोस्तों, फिर मिलेंगे ऐसे ही नई प्रौद्योगिकी की जानकारी के बारे में, हमारी इस पोस्ट को पढ़ने के लिए धन्यवाद, और अलविदा दोस्तों आपका दिन शुभ हो। Read the full article
0 notes
hindijankari · 4 years
Text
कैसे बचें गंजेपन की समस्या से || How to avoid baldness problem
Tumblr media
बाल झड़ने की समस्या न सिर्फ लुक्स को खराब करती है, बल्की आत्मविश्वास को भी ठेस पहुंचाती है। इस लेख को पढ़ें और बालों को झड़ने से रोकने के तरीके जानें। बालों का झड़ना और गंजापन आजकल एक आम समस्या है। पहले 40-45 साल की उम्र के बाद ही बालों के झड़ने की समस्या सामने आती थी, लेकिन अब कम उम्र में ही बाल झड़ने लगते हैं। बालों को पकड़े हुए आदमी बाल झड़ने की एक बड़ी वजह अनियमित जीवनशैली और प्रदूषण है। हालांकि कई बार इसके पीछे अनुवांशिक कारण भी होते हैं। लेकिन समय रहते अगर बालों की सही देखभाल की जाए तो काफी हद तक गंजेपन की समस्या से बचा जा सकता है। अगर आपके बाल बहुत तेजी से झड़ रहे हैं तो आप निम्न कुछ टिप्स आजमा कर देख सकते हैं। गंजेपन के कारण लम्बे रोग जैसे- टायफाइड, जुकाम, साइनस तथा खून की कमी आदि। बालों के प्रति लापरवाह तनाव कब्ज रहना, नींद न आने के कारण हार्मोंस बदलने के कारण गंजेपन की समस्या को दूर करने के टिप्स
अपने भोजन में सब्जियां, सलाद, मौसमी फल, अंकुरित अन्न का सेवन अधिक मात्रा में करना चाहिए। जंक फूड के बजाय घर का पौष्टिक भोजन करें। पानी भरपूर मात्रा में पिएं
बालों को जब भी शैंपू करें, उंगलियों के पोरों से हल्के-हल्के मसाज करें। ऐसा करने से आपके सिर का ब्लड सर्कुलेशन बढ़ेगा।
एंटी डैंड्रफ शैंपू का ज्यादा प्रयोग न करें, क्योंकि इससे सिर की नेचुरल नमी खत्म हो जाती है।
गंदे बालों पर जैल या कोई हेयर स्प्रे न करें। इससे बालों को नुकसान हो सकता है। अगर बाल कमजोर हैं तो उन्हें स्ट्रेट, कर्ली नहीं करवाना चाहिए। उन पर जैल या हेयर कलर भी नहीं करना चाहिए क्योंकि इन उत्पादों में रसायन मिले होते हैं। ये बालों को धीरे-धीरे खराब कर देते हैं।
हर समय कैप न पहनें। इससे पसीना, कीटाणु और गंदगी सिर के किनारों पर जम जाती है। बालों की जड़ों को नुकसान होता है और बाल गिरने शुरू हो जाते हैं।
 गीले बालों में कंघा न करें, दिन में तीन-चार बार कंघा करें। ऐसा करने से बालों में जमीं तेल की चिपचिपाहट दूर होंगी और नए बाल उगने में मदद मिलेगी।
 सिर पर तेल से मसाज करें। आप सरसों और जैतून के तेल को बराबर मात्रा में मिला कर बालों में हल्के-हल्के उंगलियों के पोरों से मसाज करें। मसाज करने के बाद तौलिये को गर्म पानी में भिगोएं फिर उसे निचोड़कर सिर को भाप दें। इससे सिर की त्वचा के रोमछिद्र खुल जाते है और तेल बालों की जड़ों के अंदर तक समा जाता है। इससे आपके बाल मजबूत होंगे।
आपको लगे कि गंजेपन की शुरुआत होने लगी है तो बालों को छोटा करवा लें।
इसके अलावा बालों के लिए कुछ घरेलू उबटन भी बना कर लगा सकते है। 
1 अंडे की जर्दी को बालों में लगाएं और आधे घंटे बाद शैंपू से बालों को धो लें। ऐसा सप्ताह में एक बार करें, आपके बाल मजबूत होंगे। अपने सिर को दही से धोएं और थोड़ी देर बाद बथुए के पानी से दोबारा सिर धोएं। ऐसा करने से गंजेपन की समस्या दूर होगी। रात में मेथी के बीजों को पानी में भिगो दें और सुबह इन्ह पीसकर लेप बनाकर बालों पर लगा लें। ऐसा कुछ दिनों में नए बाल उगने लगेंगे।
बालों का दोबारा उगना लेकिन, अब पेन्सिलवेनिया विश्वविद्यालय के शोधकर्ता ये जानने की कोशिश में लगे हैं कि जब मनुष्य में गंजेपन की शुरुआत होती है तो कौन सा विशिष्ट जीन उसके लिए उत्तरदायी होता है. शोधकर्ताओं ने पाया कि प्रोस्टाग्लैंडिन डी सिन्थेज नामक एक खास प्रोटीन कई स्तरों पर गंजे हुए स्थानों पर स्थित बाल पुटिकाओं में इकट्ठा होती हैं. ये प्रोटीन बाल वाली जगहों पर नहीं होती. बिल्कुल हम कह सकते हैं कि जब हमने गंजी खोपड़ी में प्रोस्टाग्लैंडिन प्रोटीन दिया तो बालों के उगने की प्रक्रिया शुरू हो गई. इसी से हमने मानव में गंजेपन के इलाज का लक्ष्य सुनिश्चित किया प्रो. जॉर्ज कोट्सारेलिस, शोधकर्ता चूहों की उन प्रजातियों में जिनमें इस प्रोटीन का उच्च स्तर दिया गया, वे पूरी तरह से गंजे हो गए जबकि उन पर उगाए गए मानव बाल इन प्रोटीन्स को देने पर उगने बंद हो गए. शोध का नेतृत्व कर रहे वैज्ञानिक प्रो. जॉर्ज कोट्सारेलिस बताते हैं, “बिल्कुल हम कह सकते हैं कि जब हमने गंजी खोपड़ी में प्रोस्टाग्लैंडिन प्रोटीन दिया तो बालों के उगने की प्रक्रिया शुरू हो गई. इसी से हमने मानव में गंजेपन के इलाज का लक्ष्य सुनिश्चित किया.” उनके मुताबिक अगला कदम के तहत उन यौगिकों की पहचान की जाएगी कि ये इस प्रक्रिया को कैसे प्रभावित करता है. साथ में ये भी जानने की कोशिश की जाएगी कि यदि इस प्रक्रिया को रोक दिया जाए तो क्या गंजेपन की विपरीत स्थिति भी आ सकती है. यानी अगर ये पता चल जाए तो गंजेपन को रोका जा सकता है. उनका कहना है कि ऐसी तमाम दवाइयों की भी पहचान की गई है जो कि इस चक्र को प्रभावित करती हैं और इनमें से कई का परीक्षण भी हो रहा है. शोधकर्ताओं का कहना है कि इस बात की पूरी संभावना है कि सिर के खाल पर लगाने वाली ऐसी दवा बनाई जा सकती है जिससे गंजेपन को रोका जा सके और झड़े हुए बाल दोबारा उग सकें. समय रहते यदि आप अपने झडते बालों में उपरोक्त बातें ध्यान में रखकर उपाय करेंगें तो आपको कम उम्र में गंजेपन की समस्या का सामना नहीं करना पडेगा और आपके बाल मजबूत, घने और चमकदार रहेंगे। यदि आपको बालो संबंधी कोई समस्या हो तो सबसे पहले हेयर एक्सपर्ट की सलाह जरूर लें।
यह भी पढ़ें: 
पुरुषो का वीर्य पीने के ये फायदे, जानकर आपके उड़ जायेगें होश हंता वायरस: क्या हैं लक्षण, कैसे करता है संक्रमित?  कोरोना वायरस से कैसे बचे? कोरोना वायरस से भारत क्यों चिंतित है? ओर इसके बचाव के लिए सरकार ने क्या उपाय बताये है ? via Blogger https://ift.tt/2URERL4
0 notes
Text
जादू मशरूम की सिर्फ एक खुराक कैंसर के रोगियों में अवसाद और चिंता को कम कर सकती है, अध्ययन में पाया गया है
Tumblr media
मैजिक मशरूम में पाए जाने वाले यौगिक की एकल खुराक लेने से कैंसर रोगियों में चिंता और अवसाद को कम किया जा सकता है, एक नया अध्ययन बताता है। शोधकर्ताओं ने पाया कि Psilocybin लेने वाले मरीज़ों को अधिक उम्मीद थी, कम मनोबल वाले और मरने से कम डरते थे। क्या अधिक है, जब मनोचिकित्सा सत्रों के साथ संयुक्त, इन सुधारों को पहले यौगिक लेने के चार साल बाद देखा गया था। न्यू यॉर्क यूनिवर्सिटी ग्रॉसमैन स्कूल ऑफ मेडिसिन की टीम का कहना है कि निष्कर्ष इस बात का सबूत देते हैं कि मैजिक मशरूम कैंसर के मरीजों के बीच मानसिक स्वास्थ्य के मुद्दों का इलाज हो सकता है और यहां तक ​​कि दवा को वैध बनाने में भी मदद कर सकता है। न्यूयॉर्क यूनिवर्सिटी ग्रॉसमैन स्कूल ऑफ मेडिसिन के एक नए अध्ययन में पाया गया है कि कैंसर के मरीज़ों को जो साइलोसाइबिन की एक खुराक लेते हैं, जादू मशरूम (ऊपर) में पाया जाने वाला यौगिक, अधिक सकारात्मक भावनाओं और कम मौत की चिंता थी Psilocybin एक प्राकृतिक रूप से पाया जाने वाला विभ्रम है जो मशरूम की 200 से अधिक प्रजातियों द्वारा निर्मित होता है। यह ड्रग जैसे लिसेर्जिक एसिड डाइटहाइला या एलएसडी जैसे उत्साह और संवेदी विकृति की भावनाओं को प्रेरित करता है। यौगिक को ड्रग एनफोर्समेंट एजेंसी द्वारा अनुसूची-I नियंत्रित पदार्थ के रूप में वर्गीकृत किया गया है, जिसका अर्थ है कि इसमें कोई औषधीय गुण नहीं हैं। यह शोध टीम के 2016 के अध्ययन का अनुवर्ती है, जिसमें 29 कैंसर रोगियों में अवसाद और / या चिंता के लक्षण पाए गए थे, या तो उन्हें एकल, एक बार की खुराक साइलोसाइबिन या एक प्लेसबो दिया गया था। सात हफ्तों के बाद, उन्होंने उपचार की अदला-बदली की, यह सब मनोचिकित्सा के सत्रों में भाग लेने के रूप में किया गया, जिन्हें टॉक थेरेपी के रूप में भी जाना जाता है। छह महीने बाद, 80 प्रतिशत रोगियों का कहना है कि उन्होंने अवसाद और चिंता की भावनाओं को कम कर दिया था। नए अध्ययन और 2016 के अध्ययन के सह-लेखक गॉबी एजिन-लाइब्स, जो पालो ऑल्टो विश्वविद्यालय में पीएचडी के उम्मीदवार हैं कैलोफ़ोर्निया में। 'दवा एक गहरी, सार्थक अनुभव की सुविधा प्रदान करती है जो एक व्यक्ति के साथ रहती है और मौलिक रूप से उसकी मानसिकता और दृष्टिकोण को बदल सकती है ;; साइकोफार्माकोलॉजी जर्नल में प्रकाशित नए अध्ययन के लिए, टीम ने मूल प्रतिभागियों में से 15 को भर्ती किया। पहले कंपाउंड लेने के बाद उन्हें 3.2 और 4.5 साल बाद, और 70 प्रतिशत से अधिक ने कहा कि वे अभी भी कैंसर से संबंधित चिंता और अवसाद में सुधार और 'सकारात्मक जीवन में बदलाव' का अनुभव कर रहे थे। प्रतिभागियों ने यह भी वर्णन किया कि कैसे उपचार ने उन्हें अधिक विशिष्ट शब्दों में बदल दिया। न्यूज़वीक के अनुसार, '' उन्होंने Psilocybin लेने के बाद अपने अनुभव के बारे में लिखा: 'इसने मुझे अपने जीवन के बारे में एक अलग दृष्टिकोण दिया है और मुझे अपने जीवन के साथ आगे बढ़ने और कैंसर के पुनरावृत्ति की संभावना पर ध्यान नहीं देने में मदद की है।' दवा के पीछे के तंत्र स्पष्ट नहीं हैं, लेकिन टीम बताती है कि साइलोसाइबिन से न्यूरोप्लास्टिक हो सकता है, मस्तिष्क की क्षमता जीवन भर नए तंत्रिका संबंध बना सकती है। शोधकर्ताओं का कहना है कि दुनिया भर में लगभग 40 प्रतिशत लोगों को उनके जीवनकाल में कैंसर का निदान किया जाएगा, और एक तिहाई लोगों में उनकी बीमारी से संबंधित चिंता या अवसाद विकसित होगा। पिछले अध्ययनों में पाया गया है कि इससे आत्महत्या की दर, जीवित रहने की दर और जीवन की समग्र गुणवत्ता में वृद्धि होती है। एनवाईयू लैंगोन हेल्थ के मनोरोग के एसोसिएट प्रोफेसर डॉ। स्टीफन रॉस का कहना है कि पारंपरिक दवाएं केवल कैंसर के आधे रोगियों के लिए काम करती हैं, जिसका अर्थ है एक विकल्प अनिवार्य है। उन्होंने कहा, "हमारे निष्कर्षों से दृढ़ता से पता चलता है कि psilocybin थेरेपी जीवन के लिए खतरा कैंसर वाले रोगियों के भावनात्मक, मनोवैज्ञानिक और आध्यात्मिक कल्याण में सुधार का एक आशाजनक साधन है," उन्होंने कहा। 'यह कैंसर के रोगियों की मनो-ऑनकोलॉजिक देखभाल को गहराई से बदल सकता है, और महत्वपूर्ण रूप से स्वस्थ मानसिक और आध्यात्मिक कल्याण के साथ मौत के कैंसर के रोगियों को मौत के करीब पहुंचने में मदद करने के लिए धर्मशाला सेटिंग्स में इस्तेमाल किया जा सकता है।'
0 notes
chemicalsindia · 4 years
Text
जंगली टमाटर विनाशकारी बैक्टीरिया नासूर का विरोध करते हैं
Tumblr media
27 जनवरी, 2020 मार्था सुडरमैन, राइट, और क्रिस पेरिटोर-गालवे, प्लांट पैथोलॉजी और प्लांट माइक्रोब बायोलॉजी प्रोफेसर क्रिस स्मार्ट की प्रयोगशाला में स्नातक छात्र, जिनेवा में कॉर्नेल एग्रीटेक में एक ग्रीनहाउस में उगने वाले टमाटर की जांच करते हैं। साभार: एलीसन उसवेज / कॉर्नेल यूनिवर्सिटी न्यू यॉर्क के कई टमाटर उत्पादक बैक्टीरिया के नासूर के परिमार्जन से परिचित हैं - विलेटेड पत्तियां और फफोले वाले फल जो पूरे मौसम के रोपण को खराब कर सकते हैं। जिन लोगों की आजीविका टमाटर पर निर्भर करती है, उनके लिए यह रोगज़नक़- क्लैविबैक्टीरियम मिचिगनेंसिस- आर्थिक रूप से विनाशकारी है। एक नए पेपर में, कॉर्नेल शोधकर्ताओं ने दिखाया कि पारंपरिक रूप से खेती की जाने वाली किस्मों की तुलना में जंगली टमाटर की किस्में बैक्टीरिया के कैंकर से कम प्रभावित होती हैं। "फाइटोपैथोलॉजी" जर्नल में नवंबर में ऑनलाइन प्रकाशित, "टॉलेरेंट वाइल्ड सोलनम स्पीशीज के संक्रमण के दौरान क्लैवबैक्टर मिकिगनेंसिस के लक्षण वर्णन के लक्षण वर्णन करते हुए" पत्र। सह लेखक क्रिस्टीन स्मार्ट थे, कृषि और जीवन विज्ञान महाविद्यालय में पादप रोग विज्ञान और पादप-सूक्ष्म जीव जीव विज्ञान के प्रोफेसर; एफ। क्रिस्टोफर पेरिटोर-गाल्वे, स्मार्ट लैब में एक डॉक्टरेट छात्र; और क्रिस्टीन मिलर, उत्तरी कैरोलिना स्टेट यूनिवर्सिटी से 2018 स्मार्ट लैब अंडरग्रेजुएट समर इंटर्न। पेरिटोर-गालवे ने कहा, "न्यूयॉर्क में बैक्टीरियल नासूर बहुत खराब है," लेकिन यह दुनिया भर में वितरित किया जाता है, हर जगह टमाटर उगाया जाता है। " रोगज़नक़ घाव का कारण बनता है और हवा से उड़ा बारिश से फैलता है; यदि एक टमाटर संक्रमित हो जाता है, तो यह पौधे से पौधे में फैल सकता है। "स्मार्ट कैन्कर निश्चित रूप से टमाटर के एक क्षेत्र के पूर्ण नुकसान का कारण बन सकता है, और हम हर साल बीमारी का प्रकोप देखते हैं," स्मार्ट ने कहा। "उत्पादक रोग प्रबंधन रणनीतियों का उपयोग करते हैं, जिसमें तांबा आधारित उत्पादों के साथ पौधों को छिड़काव करना शामिल है; हालांकि, एक बार प्रकोप होने के बाद बैक्टीरिया के नासूर को नियंत्रित करना मुश्किल होता है।" रोगों का मुकाबला करने के लिए, पौधे रोगविज्ञानी और प्रजनकों को अक्सर ऐसी किस्मों की तलाश होती है जो प्रतिरोधी होती हैं, लेकिन पारंपरिक रूप से बाजार में उगाए जाने वाले टमाटरों में, आनुवंशिक कैंकर के लिए आनुवंशिक प्रतिरोध के साथ कोई नहीं है। इसलिए पेरिटोर-गैल्वे, मिलर और स्मार्ट शुरुआत में वापस चले गए। टमाटर दक्षिण अमेरिका के एंडीज पर्वत क्षेत्र के मूल निवासी हैं, जहां हजारों वर्षों से जंगली प्रजातियां विकसित होने के लिए स्वतंत्र हैं। हाल ही में, प्लांट प्रजनकों ने जंगली टमाटर की पहचान की है जो बैक्टीरिया के नासूर के लिए कम संवेदनशील होते हैं और अन्य रोगजनकों के लिए प्रतिरोधी होते हैं। टीम यह समझना चाहती थी कि बैक्टीरिया कैसे फैलते हैं और जंगली टमाटर बनाम उपजाऊ खेती करते हैं। उन्होंने पौधों के संवहनी तंत्रों पर शून्य-विशेष रूप से अपने जाइलम वाहिकाओं का निर्माण किया। एक मानव में अलग-अलग नसों की तरह, जाइलम वाहिकाएं पूरे संयंत्र में मिट्टी से पानी और पोषक तत्वों का परिवहन करती हैं। टीम ने पाया कि खेती की गई प्रजातियों में, हर जगह बैक्टीरिया का नासूर फैलता है, जबकि जंगली प्रजातियों में बैक्टीरिया आस-पास के ऊतकों में ज्यादा गति किए बिना कुछ जाइलम वाहिकाओं तक ही सीमित रहते हैं। पेरिटोर-गाल्वे ने कहा, "जंगली टमाटर, किसी कारण से, पौधों के माध्यम से बैक्टीरिया को ऊपर और नीचे ले जाने की क्षमता को बाधित करता है, जो लक्षणों को कम करता है।" यह कभी भी पहला अध्ययन है जो पुष्टि करता है कि जंगली टमाटर बैक्टीरिया के नासूर के लिए अतिसंवेदनशील होते हैं, हालांकि संक्रमण खेती की किस्मों की तुलना में कम गंभीर है। लेकिन जब एक गंभीर संक्रमण जंगली पौधे में कम लक्षण पैदा करता है, तब भी यह फल पर घाव पैदा कर सकता है। फिर भी, बैक्टीरिया के प्रतिरोध के साथ टमाटर की विविधता अभी भी टमाटर उत्पादकों के लिए बहुत मददगार हो सकती है, कॉर्न कोऑपरेटिव एक्सटेंशन के पूर्वी न्यूयॉर्क वाणिज्यिक बागवानी कार्यक्रम के साथ सब्जी विशेषज्ञ चक बोर्नट ने कहा। बोर्नट बड़े पैमाने पर न्यूयॉर्क के टमाटर उत्पादकों के साथ काम करता है। बोर्नट ने कहा, "कई बार, यह फलों के लक्षण नहीं होते हैं, जो कि समस्या पैदा करते हैं," यह पौधों की सफेदी है या जाइलम कोशिकाओं का प्लग है, जो पौधे को पर्णसमूह खो देता है, जो तब फल को सूरज के सूरज और अन्य को उजागर करता है मुद्दे।… नेफेड फल भी एक मुद्दा है, लेकिन मेरी राय में यह इन अन्य मुद्दों पर अधिक प्रभाव है। ” अधिक जानकारी: एफ। क्रिस्टोफर पेरिटोर-गाल्वे एट अल, टॉलेरेंट वाइल्ड सोलनम स्पीशीज़, फाइटोपैथोलॉजी (2019) के संक्रमण के दौरान क्लैविबैक्टेर मीकैगेन्सिस के औपनिवेशीकरण पैटर्न की विशेषता। DOI: 10.1094 / PHYTO-09-19-0329-R द्वारा उपलब्ध कराया गया कर्नेल विश्वविद्यालय
0 notes
ivxtimes · 4 years
Link
ब्रिटेन में इस संभावना को हकीकत बनाने के लिए ट्रायलशुरू हो गया है कि क्या स्निफर डॉग्स कोरोना वायरस से पीड़ित लोगों को पहचान सकते हैं? बीबीसी की एक रिपोर्ट के मुताबिक ब्रिटेन के स्पेशलिस्ट मेडिकल स्निफर डॉग्स इस काम के लिए उपयुक्त बताए गए हैं।इस ट्रायल को सरकार की तरफ से करीब 5 करोड़ रुपएकी फंडिंग मिली है।
यहां के विशेषज्ञोंका मानना है कि कुत्तों के अंदर सूंघने की तीव्र और खास क्षमता होती है और वे सार्वजनिक स्थानों पर कोरोना से संक्रमित लोगों को पहचान सकते हैं।दुनिया के कई देशों में इस तरह के स्निफर डॉग्स को कैंसर, मलेरिया और पार्किंसन जैसी बीमारियों से पीड़ितों की पहचान करने और उनकी मदद करने के लिए प्रशिक्षित किया जाता है।
लैब्राडोर और कॉकर स्पेनियल प्रजाति चुनी
इस ट्रायल में यह भी पता लगाया जाएगा किक्या लैब्राडोर और कॉकर स्पेनियल प्रजाति के डॉग्स को कोविड-19 संक्रमितों की गंध सूंघने में सक्षम बनाया जा सकता है। साथ में, इस बात की भी खोज की जाएगी यह क्या यह डॉग्स लक्षण दिखने से पहले ही इंसान में वायरस का पता लगा सकते हैं।
इस तरह का पहला ट्रायल लंदन स्कूल ऑफ हाइजीन एंड ट्रॉपिकल मेडिसिन में शुरू हुआ है और इसके लिए मेडिकल डिटेक्शन डॉग्स और डरहम यूनिवर्सिटी की मदद ली जा रही है।
मेडिकल डिक्टेशन डॉग को इस तरह से अलग-अलग गंध सुंघा कर प्रशिक्षण दिया जाता है।
एकडॉगहर घंटे में 22 स्क्रीनिंग कर सकता है
ब्रिटेन के मंत्री लॉर्ड बेथेल ने कहा कि यह ट्रायल सरकार की ओर से अपनी टेस्टिंग स्ट्रेटजी को तेज करने की कोशिश का एक हिस्सा है। उन्हें उम्मीद है है कि ये डॉग्स मशीन की तुलना में ज्यादा तेजी से नतीजे दे सकते हैं। एक बायो डिटेक्शन डॉगहर घंटे में करीब 22 लोगों को स्क्रीन कर सकते हैं और इसील���ए उन्हें भी भविष्य में कोविड-19 संक्रमितोंकी पहचान के काम में लगाया जाएगा। पहले फेज में गंध के नमूने और डॉग ट्रेनिंग
पहले फेज के ट्रायल में एनएचएस स्टाफलंदन के अस्पतालों में ऐसे लोगों कीगंध के नमूने लेगा जो कोरोना वायरस से संक्रमित हैं और ऐसे लोगों की भी गंध के नमूने जमा किए जाएंगे जो अभी तक बचे हुए हैं। इसके बाद इन दो प्रजातियों के 6 डॉग्स को सैंपल से सूंघ कर वायरस की पहचान करने की ट्रेनिंग दी जाएगी
10 साल की रिसर्च में डॉग की क्षमता पता चली
इस काम में सहयागी द मेडिकल डिटेक्शन डॉग्स की को फाउंडर और चीफ एग्जीक्यूटिव डॉक्टर क्लैरी गेस्ट काकहना है कि,हम इस बात को लेकर काफी उम्मीद से भरे हैं कि डॉग्सकोविड-19 संक्रमितों की पहचान सूंघ कर कर सकते हैं। बीते 10 साल की रिसर्च से सामने आया है प्रशिक्षित मेडिकल डिटेक्शन डॉग्स ठीक उसी तरह बीमारी की गंध सूंघ करउसी तरह पहचान सकते हैं, जैसे कि दो ओलंपिक साइज के स्विमिंग पूल पानी से भरे हों और उसके अंदर किसी नेएक चम्मच चीनी घोल दी हो और उसका पता लगाना हो।
जर्मन शेफर्ड और लेब्राडोर प्रजाति के डॉग्स सूंघ कर बीमारी का पता लगाने के लिए बहुत उपयुक्त माने जाते हैं।
दूसरे फेज में ग्राउंड जीरो पर उतारेंगे
लंदन स्कूल ऑफ़ हाइजीन एंड ट्रॉपिकल मेडिसिन के प्रोफेसर जैम्स लोगन ने बताया कि,हमारे अनुभव से यह पता चला है कि मलेरिया से पीड़ित लोगों में एक विशेष प्रकार की गंध आती है और मेडिकल डिटेक्शन डॉग्स उसे सूंघ सकते हैं। हमने इसी के आधार पर डॉग्स को मलेरिया रोगियोंका पता लगाने के लिए सफलतापूर्वक प्रशिक्षित किया था। इस अनुभव और इस नई जानकारियों के आधार पर कहा जा सकता है कि फेफड़ों से संबंधित बीमारियों में भी शरीर से एक खास किस्म की गंध आती है। हमें उम्मीद है की मेडिकल डॉग्स कोविड-19 संक्रमित की पहचान कर सकते हैं।
अगर पहले ट्रायल में डॉग्स अच्छे नतीजे देते हैं तो फिर उन्हें दूसरी फेस में ले जाया जाएगा जहां उन्हें सचमुच ग्राउंड जीरो पर उतारा जाएगा और वे लोगों की पहचान करेंगे।इसके बाद हमारी योजना है कि हम अन्य एजेंसियों के साथ मिलकर इन डॉग्स को सचमुच मोर्चे पर उतार सकें।
Download Dainik Bhaskar App to read Latest Hindi News Today
Coronavirus: Trial begins to see if dogs can 'sniff out' virus | In Britain, the help of dogs will identify infected people, Labrador and Cocker Spaniel started training in trial
Thanks for reading. Please Share, Comment, Like the post And Follow, Subscribe IVX Times. fromSource
0 notes
raghav-shivang · 4 years
Link
ब्रिटेन में इस संभावना को हकीकत बनाने के लिए ट्रायलशुरू हो गया है कि क्या स्निफर डॉग्स कोरोना वायरस से पीड़ित लोगों को पहचान सकते हैं? बीबीसी की एक रिपोर्ट के मुताबिक ब्रिटेन के स्पेशलिस्ट मेडिकल स्निफर डॉग्स इस काम के लिए उपयुक्त बताए गए हैं।इस ट्रायल को सरकार की तरफ से करीब 5 करोड़ रुपएकी फंडिंग मिली है।
यहां के विशेषज्ञोंका मानना है कि कुत्तों के अंदर सूंघने की तीव्र और खास क्षमता होती है और वे सार्वजनिक स्थानों पर कोरोना से संक्रमित लोगों को पहचान सकते हैं।दुनिया के कई देशों में इस तरह के स्निफर डॉग्स को कैंसर, मलेरिया और पार्किंसन जैसी बीमारियों से पीड़ितों की पहचान करने और उनकी मदद करने के लिए प्रशिक्षित किया जाता है।
लैब्राडोर और कॉकर स्पेनियल प्रजाति चुनी
इस ट्रायल में यह भी पता लगाया जाएगा किक्या लैब्राडोर और कॉकर स्पेनियल प्रजाति के डॉग्स को कोविड-19 संक्रमितों की गंध सूंघने में सक्षम बनाया जा सकता है। साथ में, इस बात की भी खोज की जाएगी यह क्या यह डॉग्स लक्षण दिखने से पहले ही इंसान में वायरस का पता लगा सकते हैं।
इस तरह का पहला ट्रायल लंदन स्कूल ऑफ हाइजीन एंड ट्रॉपिकल मेडिसिन में शुरू हुआ है और इसके लिए मेडिकल डिटेक्शन डॉग्स और डरहम यूनिवर्सिटी की मदद ली जा रही है।
मेडिकल डिक्टेशन डॉग को इस तरह से अलग-अलग गंध सुंघा कर प्रशिक्षण दिया जाता है।
एकडॉगहर घंटे में 22 स्क्रीनिंग कर सकता है
ब्रिटेन के मंत्री लॉर्ड बेथेल ने कहा कि यह ट्रायल सरकार की ओर से अपनी टेस्टिंग स्ट्रेटजी को तेज करने की कोशिश का एक हिस्सा है। उन्हें उम्मीद है है कि ये डॉग्स मशीन की तुलना में ज्यादा तेजी से नतीजे दे सकते हैं। एक बायो डिटेक्शन डॉगहर घंटे में करीब 22 लोगों को स्क्रीन कर सकते हैं और इसीलिए उन्हें भी भविष्य में कोविड-19 संक्रमितोंकी पहचान के काम में लगाया जाएगा। पहले फेज में गंध के नमूने और डॉग ट्रेनिंग
पहले फेज के ट्रायल में एनएचएस स्टाफलंदन के अस्पतालों में ऐसे लोगों कीगंध के नमूने लेगा जो कोरोना वायरस से संक्रमित हैं और ऐसे लोगों की भी गंध के नमूने जमा किए जाएंगे जो अभी तक बचे हुए हैं। इसके बाद इन दो प्रजातियों के 6 डॉग्स को सैंपल से सूंघ कर वायरस की पहचान करने की ट्रेनिंग दी जाएगी
10 साल की रिसर्च में डॉग की क्षमता पता चली
इस काम में सहयागी द मेडिकल डिटेक्शन डॉग्स की को फाउंडर और चीफ एग्जीक्यूटिव डॉक्टर क्लैरी गेस्ट काकहना है कि,हम इस बात को लेकर काफी उम्मीद से भरे हैं कि डॉग्सकोविड-19 संक्रमितों की पहचान सूंघ कर कर सकते हैं। बीते 10 साल की रिसर्च से सामने आया है प्रशिक्षित मेडिकल डिटेक्शन डॉग्स ठीक उसी तरह बीमारी की गंध सूंघ करउसी तरह पहचान सकते हैं, जैसे कि दो ओलंपिक साइज के स्विमिंग पूल पानी से भरे हों और उसके अंदर किसी नेएक चम्मच चीनी घोल दी हो और उसका पता लगाना हो।
जर्मन शेफर्ड और लेब्राडोर प्रजा���ि के डॉग्स सूंघ कर बीमारी का पता लगाने के लिए बहुत उपयुक्त माने जाते हैं।
दूसरे फेज में ग्राउंड जीरो पर उतारेंगे
लंदन स्कूल ऑफ़ हाइजीन एंड ट्रॉपिकल मेडिसिन के प्रोफेसर जैम्स लोगन ने बताया कि,हमारे अनुभव से यह पता चला है कि मलेरिया से पीड़ित लोगों में एक विशेष प्रकार की गंध आती है और मेडिकल डिटेक्शन डॉग्स उसे सूंघ सकते हैं। हमने इसी के आधार पर डॉग्स को मलेरिया रोगियोंका पता लगाने के लिए सफलतापूर्वक प्रशिक्षित किया था। इस अनुभव और इस नई जानकारियों के आधार पर कहा जा सकता है कि फेफड़ों से संबंधित बीमारियों में भी शरीर से एक खास किस्म की गंध आती है। हमें उम्मीद है की मेडिकल डॉग्स कोविड-19 संक्रमित की पहचान कर सकते हैं।
अगर पहले ट्रायल में डॉग्स अच्छे नतीजे देते हैं तो फिर उन्हें दूसरी फेस में ले जाया जाएगा जहां उन्हें सचमुच ग्राउंड जीरो पर उतारा जाएगा और वे लोगों की पहचान करेंगे।इसके बाद हमारी योजना है कि हम अन्य एजेंसियों के साथ मिलकर इन डॉग्स को सचमुच मोर्चे पर उतार सकें।
Download Dainik Bhaskar App to read Latest Hindi News Today
Coronavirus: Trial begins to see if dogs can 'sniff out' virus | In Britain, the help of dogs will identify infected people, Labrador and Cocker Spaniel started training in trial
0 notes
agriossindia · 4 years
Text
Tumblr media
#सूरजमुखी की #वैज्ञानिक #खेती
#परिचय
सूरजमुखी एक तिलहनी फसल है , इसकी खेती भारत में प्रमुखता से की जाती है | इसकी खेती वर्ष में तीन बार की जा सकती है परन्तु उत्तर भारत में इसकी खेती सर्दी के मौसम में की जाता है | खरीफ मौसम की सूरजमुखी में कीट का प्रकोप ज्यादा होता है तथा फूल भी छोटा लगता है | जायद फसल के रूप में इसकी खेती सबसे उपयुक्त है तथा उत्पादन भी ज्यादा होता है | किसान समाधान इसकी जानकारी किसानों को विस्तार से लेकर आया है |
#भूमि की तैयारी
फसल किसी भी प्रकार की भूमि में खेती की जा सकती है | इसकी खेती उस भूमि में भी किया जा सकता है जिस भूमि में धान की खेती नहीं किया जा सकता है | उतार – चढ़ाव वाली, कम जल धारण क्षमता वाली उथल वाली आदि कमजोर किस्म में फसलें अधिकतर उगाई जा रही है | हल्की भूमि में जिसमें पानी का निकास अच्छा हो इनकी खेती के लिए उपयुक्त होती है |बहुत अच्छी जल निकासी होने पर लघु धन्य फसलें प्राय: सभी प्रकार की भूमि में उगाई जा सकती है | भूमि की तैयारी के लिए गर्मी की जुताई करें एवं वर्षा होने पर पुनः खेत की जुताई करें या बखर चलायें जिसमें मिट्टी अच्छी तरह से भुरभुरी हो जायें |
#उन्नत किस्में
#मार्डन :- इस प्रजाति की उत्पादन क्षमता 6 से 8 क्विंटल प्रति हैक्टेयर है | इसकी उपज समय अवधि 80 से 90 दिन है | इसकी विशेषता यह है की पौधों की ऊँचाई 90 से 100 सेमी. तक होती है | इस प्रजाति की खेती बहुफसलीय क्षेत्र के लिए उपयुक्त है | इस प्रजाति में तेल की मात्र 38 से 40 प्रतिशत होती है |
#बी.एस.एच. – 1 :- इस प्रजाति की उत्पादन 10 से 15 किवंटल प्रति हैक्टेयर है तथा इसकी उत्पादन समय 90 से 95 दिन है | इसकी विशेषता यह है की पौधों की ऊँचाई 100 से 150 सेमी. तक होती है | इस प्रजाति में तेल की मात्र 41 प्रतिशत होती है |
#एम.एस.एच. :- इस प्रजाति की उत्पादन 15 से 18 किवंटल प्रति हैक्टेयर है तथा इसकी उत्पादन समय 90 से 95 दिन है | इसकी विशेषता यह है की पौधों की ऊँचाई 170 से 200 सेमी. तक होती है | इस प्रजाति में तेल की मात्र 42 से 44 प्रतिशत होती है |
#सूर्या :– इस प्रजाति की उत्पादन 8 से 10 किवंटल प्रति हैक्टेयर है तथा इसकी उत्पादन समय 90 से 100 दिन है | इसकी विशेषता यह है की पौधों की ऊँचाई 130 से 135 सेमी. तक होती है | इसप्रजाति की की खेती पिछेती बुवाई के लिए उपयुक्त है | इस प्रजाति में तेल की मात्र38 से 40 प्रतिशत होती है |
#ई.सी. 68415 :- इस प्रजाति की उत्पादन 8 से 10 किवंटल प्रति हैक्टेयर है तथा इसकी उत्पादन समय 110 से 115 दिन है | इसकी विशेषता यह है की पौधों की ऊँचाई 180 से 200 सेमी. तक होती है | इसप्रजाति की की खेती पिछेती बुवाई के लिए उपयुक्त है | इस प्रजाति में तेल की मात्र38 से 40 प्रतिशत होती है |
#बीज की बुवाई कब और कैसे करें ?
सिंचित क्षत्रों में खरीफ फसल की कटाई के बाद अक्तूबर से मध्य नवम्बर के बीच करना चाहिए | अक्टूबर माह में की गई बुवाई से अंकुरण अच्छा रहता है | इसके अलावा असिंचित क्षेत्रों में (वर्षा निर्भरता खेती) में सूरजमुखी की बोनी वर्ष समाप्त होते ही सितम्बर माह के मध्य सप्ताह से आखरी सप्ताह तक कर देना चाहिए | ग्रीष्म फसल की बोनी का समय जनवरी माह के तीसरे सप्ताह से फरवरी माह के अन्त तक उपयुक्त होता है | इसी समय के बीच में बोनी करना चाहिए | बुवाई के समय इस बात का ध्यान रखना चाहिए की वर्ष प्रारम्भ होने से पहले कटाई होकर गहाई किया जा सके |
#बीज की मात्रा
उन्नत किस्मों के बीज की मात्रा – 10 किलोग्राम / हेक्टयर संकर किस्मों के बीज की मात्रा – 6 से 7 किलोग्राम / हैक्टेयर होना चाहिए |
#बुवाई कैसे करें
पिछेती खरीफ एवं जायद की फसल के लिए कतार से कतार की देरी 45 सेमी एवं रबी फसल के लिए 60 सेमी होनी चाहिए | पौधे से पौधे की दुरी 25 से 30 सेमी रखना चाहिए |
#बीजोपचार :-
लाभ :- बीजों की अंकुरण क्षमता बढ़ जाती है एवं फंफूंदनाशक बीमारियों से सुरक्षा होती है |
#फंफूंदनाशक दवा का नाम एवं मात्रा :-
बीज जनित रोगों की रोकथाम के लिए 2 ग्राम थायरम एवं 1 ग्राम कार्बनडाजिम 50 के मिश्रण को प्रति किलो ग्राम बीज की दर से अथवा 3 ग्राम थायरम / किलोग्राम बीज की दर से उपचारित करना चाहिए | डाउन मिल्ड्यू बीमारी के नियंत्रण के लिए रेडोमिल 6 ग्राम / किलोग्राम बीज की दर से बीज उपचारित करें |
दवा उपयोग करने का तरीका :- बीजों को पहले चिपचिपे पदार्थ से भिगोकर दावा मिला दें फिर छाया में सखाएं और 2 घंटे बाद बोनी करें |
#पोषक तत्व प्रबंधन
#जैव उर्वरक का उपयोग :-
जैव उर्वरक के उपयोग से लाभ – पौधों को पोषक तत्व उपलब्ध कराने का कार्य करते हैं | जैव उर्वरकों के नाम एवं अनुशंसित मात्रा – एजोटोबेक्टर जैव उर्वरक का एक पैकेट एक हैक्टेयर बीज के उपचार हेतु प्रयोग करें | पी.एस.बी. जैव उर्वरक के 15 पैकेट को 50 किलोग्राम गोबर या क्म्पोष्ट खाद में मिलाकर दें |
#जैव उर्वरकों के उपयोग की विधि :-
जैव उर्वरकों के नाम एवं अनुशंसित मात्रा के अनुसार आखिरी बखरनी के समय प्रति हैक्टेयर खेत में डालें | इस समय खेत में नमी होना चाहिए |
#पोषक तत्व प्रबंधन :-
क्म्पोष्ट की मात्रा एवं उपयोग :- सूर्यमुखी के अच्छे उत्पादन के लिए क्म्पोष्ट खाद 5 से 10 टन / हैक्टेयर की दर से बोनी के पूर्व खेत में डालें |
मिट्टी परीक्षण के लाभ :-
पोषक तत्वों का पूर्वानुमान कर संतुलित खाद डी जा सकती है | संतुलित उर्वरकों की मात्रा देने का समय एवं तारीख – बोनी के समय 30 – 40 किलोग्राम नत्रजन, 60 किलोग्राम स्फुर एवं 30 किलोग्राम पोटाश की मात्रा प्रति हैक्टेयर खेत में डालें | खड़ी फसलों में नत्रजन की 20 – 30 किलोग्राम / हैक्टेयर मात्रा बोनी के लगभग एक माह बाद प्रथम सिंचाई के बाद पौधे के कतारों के बाजू में दें |
#खरपतवार नियंत्रण
#रासायनिक तरीके से निंदाई करें :-
खरपतवार की निदाई दो तरह से कर सकते हैं पहला यह होगा की खरपतवार को फसल बुवाई से पहले ही नष्ट कर दें | यह ज्यादा अच्छा रहता है दूसरा यह है की बुवाई के बाद पौधा बड़ा हो जाता है तो खरपतवार की निदाई करना जरिरी रहता है \
#बुवाई से पूर्व खरपतवार का निदाई :-
एलाक्लोर दावा की 1.5 किलोग्राम हैक्टेयर की दर से बुवाई के बाद पर अंकुरण से पूर्व प्रयोग कर खरपतवार को नष्ट कर सकते हैं | एलाक्लोर दावा की 1.5 किलोग्राम मात्रा को 700 से 800 लीटर पानी में घोलकर प्रति हैक्टेयर की दर से प्रयोग करें |
खड़ी फसल में :-
कड़ी फसल में खरपतवार की निदाई के लिए मुख्यत: दो दावा का उपयोग कर सकते हैं | इसके लिए क्यूजैलोफाप की 50 ग्राम को 750 से 800 लीटर प्रति हैक्टेयर की दर से उस समय उपयोग करें जब खरपतवार 2 से 3 पत्ती का हो जाए | तथा एमेजामेथाबेन्ज की 75 से 100 ग्राम मात्रा को 750 से 800 ली पानी में घोल बनाकर स्प्रे करें | इसका प्रयोग 4 से 8 पत्ती का होजाने पर इस दावा का स्प्रे करें |
#रोग और उनका उपचार
फसल में कई तरह का रोग लगता है | कुछ रोग जलवायु परिवर्तन से होता है तो कुछ रोग फसल के अनुसार होता है | इन सभी को नियंत्रित करना जरुरी रहता है | जिससे उत्पादन पर किसी भी तरह का प्रभाव नहीं पड सके | इसलिए सभी रोगों की सारी जानकारी लेकर आया है |
#काले धब्बे का रोग
(अल्टनेकरया ब्लाईट) :-
यह रोग 15 से 20 प्रतिशत तक खरीफ के मौसम में हानि पहुँचा सकती है | इसकी पहचान यह है की आरम्भ में पौधों के निचले पत्तों पर हल्के काले गोल अंडाकार धब्बे बनते हैं जिनका आकार 0.2 से 5 मि.मी. तक होता है | बाद में ए धब्बे बढ़ जाते तथा पत्ते झुलस कर गीर जाते हैं | एसे पौधे कमजोर पद जाते हैं तथा फूल का आकार भी छोटा हो जाता है |
रोकथाम :- इस रोग की रोकथाम के लिए एम – 45 दावा का प्रयोग करें | 1250 से 1500 ग्राम मात्रा को प्रति हैक्टेयर की दर से प्रयोग करें | इसका प्रयोग 10 दिन के अंतराल पर 2 से 3 छिड़काव बीमारी शुरू में ही करें |
#फूल गलन (हेत राट) :-
यह रोग इस फसल की प्रमुख बीमारी है | इसकी पहचान यह है की आरम्भ में फूल के पिछले भाग पर डंडी के पास हल्के भूरे रंग का धब्बा बनता है | यह धब्बा आकार में बढ़ जाता है तथा फूल को गला देता है | कभी – कभी फूल की डंडी भी गल जाती है तथा फूल टूट कर लटक जाता है | इस रोग के कारण फूलों में दाने नहीं बनते |
रोकथाम :- इस रोग की रोकथाम के लिए एम – 45 या कापर आक्सिक्लोराइड दावा का प्रयोग करें | 1250 से 1500 ग्राम दावा को प्रति हैक्टेयर की दर से फूल आने पर 15 – 15 दिन के नत्रल पर 2 छिड़काव करें |
#जड़ तथा तना गलन :-
यह बीमारी फसल में किसी भी अवस्था पर आ सकती है, परन्तु फूलों में दाने बनते समय अधिक आती है | रोग ग्रस्त पौधों की जड़ें गली तथा नर्म हो जाती है तथा तना 4 इंच से 6 इंच तक कला पद जाता है | एसे पौधे कभी – कभी जमीन के पास से टूट कर गीर जाते हैं रोग द्र्स्ट पौधे सुख जाते हैं |
रोगथाम :- इस रोग की रोथं के लिए थाइरम या केप्टान (फंफूंदनाशक) दावा का प्रयोग करें | इस दवा का 3 ग्राम/किलोग्राम प्रति हैक्टेयर की दर से प्रयोग करें | इस दावा का प्रयोग बीज बीजोपचार करें व इस रोग से बचाव के लिए भूमि में समुचित मात्रा में नमी रखें |
#झुलसा रोग :-
यह रोग लगभग सभी फसलों में होता है इस रोग से पौधे झुलस जाते हैं |
रोकथाम :- इस रोग का रोकथाम के लिए मैटालेक्सिन दवा का प्रयोग करें | इस दावा का 4 ग्राम / किलोग्राम प्रति हैक्टेयर की दर से प्रयोग करें | इस रोग की रोकथाम के लिए बीजोपचार करे व अचछे जल निकास की व्यवस्था करें | फसल चक्र अपनाएं एवं रोग ग्रस्त पौधों को उखाड़ कर नष्ट कर दें |
#कीट एवं उनका नियंत्रण
फसल को रोग के अलावा कीट से भी काफी नुकसान होता है | इसकी रोक थाम बहुत जरुरी है | इस फसल में कई तरह के कीट का प्रकोप होता है | कुछ कीट पत्ती में लगती है तो कुछ कीट तने में लगती है | इसलिए सभी कीटों की जानकारी होना जरुरी है |
#कटुआ सुंडी :-
इस रोग का लक्षण यह है कि अंकुरण के पश्चात् व बाद तक भी पौधों को जमीन की स्थ के पास से काट कर नष्ट कर देती है |
रोकथाम :- इस रोग की रोकथाम के लिए मिथाइल पैराथियान दावा का प्रयोग करें | इस दावा का 2 प्रतिशत चूर्ण 25 किलोग्राम प्रति हैक्टेयर की दर से भुरकाव करें |
#पत्ते कुतरने वाली लट :-
यह कीट दो तिन प्रकार की पत्ते कुतरने वाली लटों (तम्बाकू कतर पिलर, बिहार हेयर कतर पिलर, ग्रीन कतर पिलर) का प्रयोग देखा गया है |
रोकथाम :- इस कीट की रोकथाम के लिए डायमिथोएट 30 ई.सी. का प्रयोग करें | इस दवा की 875 मिली. का प्रति हैक्टेयर की दर से प्रयोग करें |
#तना फली छेदक :-
इस कीट की सुंडिया कोमल पत्तों को काटकर व फूलों में छेड़ करके खा जाती है |
रोकथाम :- इस कीट की रोकथाम के लिए मोनोक्रोतोफास 36 डब्लू.एस.सी. का प्रयोग करें | इस दवा को एक लीटर को प्रति हैक्टेयर की दर से प्रयोग करें |
#कटाई गहाई एवं आय व्यय
कटाई :-
फसल में पौध पककर पीले रंग में बदलने लगते है तब कटाई करना चाहिए |
सूरजमुखी की फ्लेटें एक साथ नहीं पकती है अत: यह सावधानी रखना चाहिए की परिपक्क फ्लेटें ही कटी जाए |
फ्लेटों को खेत में सुखाने के लिए 5 से 6 दिन के लिए छोड़ देना चाहिए | जिससे फ्लेटों की अतरिक्त नमी सुख जाए |
यह क्रिया गहाई में सहायक है |
#गहाई :-
गहाई साफ जमीन पर की जाती है |
सूखे फूलों को लाठी से पीटकर या दो फूलों को आपस में रगड कर गहाई की जा सकती है | यदि फसल ज्यादा हो तो थ्रेसर की सहयता ली जा सकती है | बीजों को सुपे से फटककर साफकर धूप में सुखा लें |
#उपज
इस फसल की उपज इसकी प्रजातियों पर भी निर्भर करता है | देरी से पकने वाली 8 से 10 किवंटल/हैक्टेयर एवं मध्यम 15 से 20 किवंटल / हैक्टेयर उत्पादन है |
0 notes
duniyakelog · 4 years
Text
दुर्लभ सफेद जिराफ भूखे मरने से पहले शिकारियों द्वारा मारे गए: 'ए वेरी सैड डे'
इशाकबीनी हिरोला कम्युनिटी कंजरवेंसी के अनुसार, केन्या की एकमात्र जीवित मादा श्वेत जिराफ और उसके बछड़े की मौत स्थानीय जिराफ के शिकार के बाद स्थानीय शिकारियों द्वारा की गई ।
उनकी मौत की पुष्टि गरिसा काउंटी संरक्षण केंद्र ने मंगलवार को एक प्रेस विज्ञप्ति में की, जिसमें यह कहा गया था कि मां जिराफ का शव रेंजर द्वारा "शिकारियों द्वारा मारे जाने के बाद कंकाल अवस्था में" पाया गया था।
“यह एक पूरे के रूप में इज़ारा और केन्या के समुदाय के लिए बहुत दुखद दिन है। हम दुनिया में एकमात्र ऐसे समुदाय हैं जो सफेद जिराफ के संरक्षक हैं, ”इशाकबीनी हिरोला कंजर्वेंसी के प्रबंधक मोहम्मद अहमदनूर ने एक बयान में कहा। "इसकी हत्या दुर्लभ और अनोखी प्रजातियों के संरक्षण के लिए समुदाय द्वारा उठाए गए जबरदस्त कदमों और संरक्षण प्रयासों के लिए निरंतर समर्थन के लिए एक जागरण है।"
अधिकारियों ने कहा कि बछड़ा, जिसका शरीर वयस्क जिराफ के साथ मिला था, न्यूजवीक के अनुसार , उसकी मां की मृत्यु के बाद भूखा मर गया ।
संबंधित: केंटकी महिला 'ब्लैक' जिराफ को मारने के बाद चौंकाने वाली तस्वीरें पोस्ट करती हैं, कहती हैं कि यह संरक्षण के लिए था
संरक्षण केंद्र के अनुसार, केवल एक सफेद जिराफ है - स्वर्गीय मां द्वारा जन्मा पुरुष - देश में छोड़ दिया गया।
अहमदनूर ने कहा, "यह एक दीर्घकालिक नुकसान है जो आनुवांशिकी अध्ययन और अनुसंधान, जो शोधकर्ताओं द्वारा क्षेत्र में महत्वपूर्ण निवेश था, अब नाली में चला गया है।" "आगे इस सफेद जिराफ क्षेत्र में पर्यटन के लिए एक बड़ा बढ़ावा था।"
सफेद जिराफ का अनोखा रंग ल्यूसिज्म नामक एक स्थिति का परिणाम था, जो कि - अल्बिनिज्म के विपरीत - जानवर के नरम ऊतक में गहरे रंग के पिगमेंट का उत्पादन जारी रखता है। लक्षण के कारण माँ जिराफ़ और उसके बछड़ों में गहरी आँखें होती हैं, बजाय लाल रंग के जो आमतौर पर ऐल्बिनिज़म के उदाहरणों में देखे जाते हैं।
नेशनल ज्योग्राफिक के अनुसार , उनके उज्ज्वल रंग और छलावरण की कमी ने उन्हें शिकारियों के लिए संभावित रूप से कमजोर बना दिया।
संबंधित: फ्लोरिडा वन्यजीव पार्क में दो जिराफ 'बिलियन-टू-वन' लाइटनिंग स्ट्राइक द्वारा मारे गए
दुर्लभ जिराफों की खोज पहली बार 2017 में हुई जब एक ग्रामीण ने परिरक्षक से सटे रहने के बाद इसकी सूचना एक रेंजर को दी।
"प्रकृति हमेशा तेजस्वी है और मानवता को आश्चर्यचकित करती है!" इन दुर्लभ बर्फ की सफेद जिराफों ने खुद सहित कई स्थानीय लोगों को झकझोर दिया, लेकिन इनसे हमें अपने अद्वितीय वन्यजीवों की रक्षा करने और उन्हें बचाने के लिए नई ऊर्जा मिली, “डॉ। अब्दुल्लाही अली, हिरोला संरक्षण कार्यक्रम के निदेशक और संस्थापक ने कहा । "मैं सकारात्मक हूं कि ये दुर्लभ जिराफ उत्तर पूर्वी केन्या के बारे में बाहरी लोगों की धारणा को बदल देंगे, जिसमें कई लोगों की नकारात्मक धारणाएं हैं।"
https://ift.tt/eA8V8J
0 notes