महावीर के जीवन में बड़ा मीठा प्रसंग है। वे संन्यस्त होना चाहते थे। उनकी मां ने कहा कि मेरे जीते नहीं। वे चुप हो गए। बात ही छोड़ दी संन्यास की। जैसे कोई आग्रह ही न था संन्यास का।
आग्रह तो अहंकार का होता है। संन्यास का भी क्या आग्रह! छोड़ने का भी क्या आग्रह! पकड़ने के आग्रह से जब छूट गए, तो छोड़ने का आग्रह भी छोड़ देना चाहिए। अगर कोई दूसरा होता, तो जिद पकड़ जाता। मां जितना रोकती, उतनी जिद बढ़ती। घर के लोग जितने परेशान होते, उतनी ही अकड़ आती कि मैं तो संन्यासी होकर रहूंगा।
दुनिया में सौ में से निन्यानबे संन्यासी, दूसरों की वजह से हो जाते हैं, रोकने वालों की वजह से। क्योंकि जब भी कोई रोकता है, तब बड़ा अहंकार को मजा आता है कि हम कोई महान कार्य करने जा रहे हैं।
लेकिन महावीर चुप ही हो गए। मां भी शायद सोची होगी कि यह भी कैसा संन्यास! एक बार कहा नहीं, कि चुप हो गया! सभी माताएं कहती हैं। यह कोई नई बात थी कि महावीर की मां ने कहा कि मत लो संन्यास मेरे जीते—जी। मैं मर जाऊंगी। ऐसा सभी माताएं कहती हैं। कोई मां मरी है कभी किसी के संन्यास लेने से! यह तो मा—बाप के कहने के ढंग हैं। इनका कोई मूल्य नहीं है। मां भी थोड़ी चिंतित हुई होगी कि यह भी संन्यास कैसा संन्यास था!
फिर मां मरी। मरघट से लौटते थे। रास्ते में अपने बड़े भाई को कहा कि अब तो ले सकता हूं? रास्ते ही में! अभी विदा ही करके लौटते थे। बड़े भाई ने कहा, यह भी कोई बात हुई? इधर मां मर गई है, इधर हम परेशान हो रहे हैं और तुम्हें संन्यास की पडी है! एक दुख काफी है, अब तुम और यह दुख मेरे ऊपर मत लाओ। चुप रहो, यह बात ही मत उठाना।
अब जब बड़े भाई ने कहा, चुप रहो, तो वे चुप हो गए। हमें भी लगेगा, यह भी कैसा संन्यासी है। यह तो होगा ही नहीं कभी, ऐसा अगर चला तो। क्योंकि कोई न कोई मिल ही जाएगा। बड़ा घर रहा होगा, बड़ा परिवार था। राज—परिवार था, संबंधी रहे होंगे। ऐसे अगर हर एक के कहने से रुके, तब तो जन्म—जन्म बीत जाएं, महावीर का संन्यास होने वाला नहीं। भाई ने भी सोचा होगा कि यह भी कैसा संन्यास है! एक दफा कहो नहीं कि यह चुप हो जाता है। यह जैसे रास्ते ही देखता है कि तुम रोक दो बस, हम रुक जाएं! मगर नहीं, बात कुछ और थी। महावीर आग्रही नहीं थे। संन्यास का भी क्या आग्रह करना! छोड़ने का भी क्या आग्रह करना! नहीं तो वह ��कड़ने जैसा ही हो गया। संन्यास को भी क्या पकड़ना ! जब संसार ही छोड़ दिया, तो संन्यास को क्या पकड़ना ! तो वह ठीक। लेकिन धीरे—धीरे घर के लोगों को लगा कि वे घर में हैं ही नहीं। रहते घर में हैं। भोजन करते, उठते—बैठते, लेकिन ऐसे शून्यवत हो रहे कि उनके होने का किसी को पता ही न चलता।
आखिर भाई और घर के लोग मिले। उन्होंने कहा, अब इसे रोकना व्यर्थ है। यह तो जा ही चुका। सिर्फ शरीर है घर में। शरीर को भी रोकने के लिए हम क्यों पापी बनें ! नहीं तो कहने को होगा कि हमारी वजह से यह संन्यस्त न हुआ। और यह हो ही गया। यह यहां है नहीं। इसकी मौजूदगी यहां मालूम नहीं पड़ती। किसी को पता ही नहीं चलता महीनों, दिन बीत जाते हैं कि महावीर कहा है ! वह अपने में ही समाया है।
तो घर के लोगों ने ही हाथ जोड़कर कहा कि अब तुम जा ही चुके हो, तो अब तुम हमको नाहक अपराधी मत बनाओ। अब तुम जाओ ही। अब तुम यहां हो ही नहीं, अब रोकें हम किसको ! रोकना किसको है ! जब उन्होंने ऐसा कहा, तो महावीर उठकर चल दिए।
ध्यान और समाधि और योग–गहन अंधकार में प्रवेश की सामर्थ्य के नाम हैं। - ओशो
अंधकार का अपना आनंद है, लेकिन प्रकाश की हमारी चाह क्यों? प्रकाश के लिए हम इतने पीड़ित क्यों? यह शायद ही आपने सोचा हो कि प्रकाश के लिए हमारी चाह हमारे भीतर बैठे हुए भय का प्रतीक है। फियर का प्रतीक है।
हम प्रकाश इसलिए चाहते हैं, ताकि हम निर्भय हो सकें। अंधकार में मन भयभीत हो जाता है। प्रकाश की चाह कोई बहुत बड़ा गुण नहीं। सिर्फ अंतरात्मा में छाए हुए भय का सबूत है। भयभीत आदमी प्रकाश चाहता है। और जो अभय है, उसे अंधकार भी अंधकार नहीं रह जाता। अंधकार की जो पीड़ा है, जो द्वंद्व है, वह भय के कारण है। और जिस दिन मनुष्य निर्भय हो जाएगा, उस दिन प्रकाश की यह चाह भी विलीन हो जाएगी।
और यह भी ध्यान रहे कि पृथ्वी पर बहुत थोड़े से ऐसे कुछ लोग हुए हैं, जिन्होंने परमात्मा को अंधकार स्वरूप भी कहने की हिम्मत की। अधिक लोगों ने तो परमात्मा को प्रकाश माना। गॉड इज़ लाइट, परमात्मा प्रकाश है। ऐसा ही कहने वाले लोग हुए हैं।
लेकिन हो सकता है, ये वे ही लोग हों जिन्होंने परमात्मा को भय के कारण माना हुआ है। जिन लोगों ने भी परमात्मा प्रकाश है, ऐसी व्याख्या की है–ये जरूर भयभीत लोग होंगे। ये परमात्मा को प्रकाश के रूप में ही स्वीकार कर सकते हैं। डरा हुआ आदमी अंधकार को स्वीकार नहीं कर सकता।
लेकिन कुछ थोड़े से लोगों ने यह भी कहा है कि परमात्मा परम अंधकार है। मैं खुद सोचता हूं, तो परमात्मा को परम अंधकार के रूप में ही पाता हूं। क्यों? क्योंकि प्रकाश की सीमा है, अंधकार असीम है।
प्रकाश की कितनी ही कल्पना करें उसकी सीमा मिल जाएगी। कैसा ही सोचें, कितना ही दूर तक सोचें, पाएंगे कि प्रकाश सीमित है। अंधकार की सोचें, अंधकार कहां सीमित है? अंधकार की सीमा को कल्पना करना भी मुश्किल है। अंधकार की कोई सीमा नहीं, अंधकार असीम है। इसलिए भी कि प्रकाश एक उत्तेजना है, एक तनाव है। अंधकार एक शांति है, विश्राम है। लेकिन चूंकि हम सब भयभीत लोग हैं, डरे हुए लोग हैं। हम जीवन को प्रकाश कहते हैं, मृत्यु को अंधकार कहते हैं।
सच यह है कि जीवन एक तनाव है और मृत्यु एक विश्राम है। दिन एक बेचैनी है, रात एक विराम है। हमारी जो भाग-दौड़ है अनंत-अनंत जन्मों की, उसे अगर कोई प्रकाश कहे तो ठीक भी है, लेकिन जो परम मोक्ष है, वह तो अंधकार ही होगा।
यह शायद आपने सोचा भी न हो, प्रकाश की किरण आंख पर पड़ती है, तो तनाव होता है, परेशानी होती है। रात आप सोना चाहें, तो प्रकाश में सो नहीं सकते। प्रकाश में विश्राम करना मुश्किल है। अंधकार परम शांति में, गहन शांति में ले जाता है।
लेकिन जरा सा अंधकार और हम बेचैन और हम परेशान। जरा सा अंधकार और हम मुश्किल में कि क्या होगा, क्या न होगा। अंधकार से जो इतने परेशान भयभीत, डरे हुए हैं; ध्यान रहे, वे शांत होने से भी इतना ही डरेंगे।
अंधकार से जो इतना डरा है। ध्यान रहे, वह समाधि में जाने से भी इतना ही डरेगा। क्योंकि समाधि तो एक अंधकार से भी परम शांति है। हम मरने से भी इसी लिए डरते हैं। मृत्यु का डर क्या है? मृत्यु ने कब, किसका, क्या बिगाड़ा है? अब तक तो न सुना कि मृत्यु ने किसी का कुछ बिगाड़ा हो। जीवन ने बहुत कुछ बिगाड़ा होगा। मृत्यु ने नहीं सुना किसी का कुछ बिगाड़ा।
मृत्यु ने किसको तकलीफ दी है, जीवन तो बहुत तकलीफें देता है। जिंदगी है क्या? एक लंबी तकलीफों की कतार। मृत्यु ने कब किसको सताया है? और कब किसको परेशान किया? कब किसको दुख दिया? लेकिन मृत्यु से हम भयभीत हैं और जीवन को हम छाती से लगाए हुए हैं।
और फिर मृत्यु परिचित भी नहीं है। और जो परिचित नहीं है, उससे डर कैसा? डरना चाहिए उससे जो परिचित हो। जिसे हम जानते ही नहीं, वह अच्छी है कि बुरी यह भी पता नहीं, उससे डर कैसा?
डर मृत्यु का नहीं है। डर वही अंधकार में फिर खो जाने का। जिंदगी रोशन मालूम पड़ती है। सब दिखाई पड़ता है। परिचित, पहचाने हुए लोग, अपना घर, मकान, गांव सब दिखाई पड़ता है। मृत्यु एक घनघोर अंधकार मालूम होती है। जहां खो जाने पर कुछ दिखेगा नहीं। न अपने संगी साथी न मित्र, न परिवार, न प्रियजन, न वह सब जो हमने बनाया था। वह सब खो जाएगा और न मालूम किस अंधकार में हम उतर जाएंगे। मन डरता है उस अंधकार में जाने से।
ध्यान रहे, अंधकार में जाने का डर एक डर और है और वह डर है अकेले हो जाने का। आपको पता है, रोशनी में आप कभी अकेले नहीं होते, दूसरे लोग दिखाई पड़ते रहते हैं। अंधकार में कितने ही लोग इस जगह बैठे हों, आप अकेले हो जाएंगे, दूसरा दिखाई नहीं पड़ता, पता नहीं है या नहीं।
अंधकार में हो जाता है आदमी अकेला और आदमी को अकेला होना हो, तो भी अंधकार में उतरना पड़ता है। ध्यान और समाधि और योग–गहन अंधकार में प्रवेश की सामर्थ्य के नाम हैं।
सो अच्छा हुआ है कि नहीं है प्रकाश। और बड़ी गड़बड़ हो गई है कि दोत्तीन बत्तियां हीरालालजी ले आए हैं। बारात एक दो और लगती, और ये दो बत्तियां और न मिलती, तो अच्छा होता।
अपरिचित है अंधकार, उसमें हम अकेले हो जाते हैं। सब खोया-खोया लगता है। जाना, परिचित सब मिट गया लगता है। और ध्यान रहे, सत्य के रास्ते पर वे ही जा सकते हैं, जो परिचित को खोने की, जाने-माने को छोड़ने की, अनजान में, अपरिचित में, वहां जहां कोई मार्ग नहीं, पगडंडी नहीं, उतरने की जो क्षमता रखते हैं, वे ही सत्य में उतर पाते हैं।
ये थोड़ी सी बातें प्रारंभ में मैंने कही, और इसलिए कही कि अंधकार को जो प्रेम नहीं कर पाएगा, वह जीवन के बहुत बड़े सत्यों को प्रेम करने से वंचित रह जाता है। अब दुबारा जब अंधकार में हों, तो एक बार अंधकार को भी गौर से देखना। इतना घबड़ाने वाला नहीं है।
और जब दुबारा, अंधकार घेर ले, तो उसमें लीन हो जाना, एक हो जाना��� और आप पाएंगे, जो प्रकाश ने कभी नहीं दिया, वह अंधकार देता है। जीवन का सारा महत्वपूर्ण रहस्य अंधकार में छिपा है।
वृक्ष है ऊपर, जड़ें हैं अंधेरे में नीचे। दिखती नहीं, दिखता है वृक्ष के तने, पत्ते, पौधे सब दिखता है। फल लगते हैं, जड़ दिखती नहीं। जड़ अंधकार में काम करती रहती है। निकाल लो जड़ों को प्रकाश में और वृक्ष मर जाएगा। वह जो जीवन की अनंत लीला चल रही है, वह अंधकारमय है।
मां के गर्भ में, अंधेरे में जन्म होता है जीवन का। जन्मते हैं हम अंधकार से। मृत्यु में फिर खो जाते हैं अंधकार में। कोई कहता था, किसी ने गाया है कि जीवन क्या है? जैसे किसी भवन में जहां एक दीया जलता हो, थोड़ी सी रोशनी हो, और जिस भवन के चारों ओर घनघोर अंधकार का सागर हो। कोई एक पक्षी उस अंधेरे आकाश से भागता हुआ, उस दीये जलते हुए भवन में घुस जाए। थोड़ी देर तड़फड़ाए, फिर दूसरी खिड़की से बाहर निकल जाता है।
ऐसे एक अंधकार से हम आते हैं और दूसरे अंधकार में जीवन के दीये में, थोड़ी देर पंख फड़फड़ा कर फिर खो जाते हैं।
अंततः तो अंधकार ही साथी होगा। उससे इतना डरेंगे तो कब्र में बड़ी मुश्किल होगी। उससे इतने भयभीत होंगे तो मृत्यु में जाने में बड़ा कष्ट होगा। नहीं, उसे भी प्रेम करना सीखना पड़ेगा।
और प्रकाश को प्रेम करना तो बहुत आसान है। प्रकाश को कौन प्रेम नहीं करने लगता है। सो प्रकाश को प्रेम करना बड़ी बात नहीं। अंधकार को प्रेम, अंधकार को भी प्रेम और ध्यान रहे, जो प्रकाश को प्रेम करता है, वह तो अंधकार को नफरत करने लगेगा। लेकिन जो अंधकार को भी प्रेम करता है, वह प्रकाश को तो प्रेम करता ही रहेगा। इसको भी खयाल में ले लें।
क्योंकि जो अंधकार तक को प्रेम करने को तैयार हो गया, अब प्रकाश को कैसे प्रेम नहीं करेगा। अंधकार का प्रेम प्रकाश के प्रेम को तो अपने में समा लेता है, लेकिन प्रकाश का प्रेम अंधकार के प्रेम को अपने में नहीं समाता।
जैसे मैं सुंदर को प्रेम करूं, सो तो बहुत आसान है, सुंदर को कौन प्रेम नहीं करता। लेकिन असुंदर को प्रेम करने लगूं, तो जो असुंदर को प्रेम कर लेगा, वह सुंदर को तो प्रेम कर ही लेगा। लेकिन इससे उलटा सही नहीं है। सुंदर को प्रेम करने वाला असुंदर को प्रेम नहीं कर पाता।
फूलों को कोई प्रेम करे तो फूल को तो प्रेम कर ही लेगा, लेकिन कांटों को कोई प्रेम नहीं कर पाएगा। फूलों को प्रेम करने के कारण, कांटों को प्रेम करने में बाधा पड़ सकती है। लेकिन कांटों को कोई प्रेम करने लगे, तो फूलों को प्रेम करने में तो बाधा नहीं पड़ती।
तुम्हारे जीवन का स्रोत तुम्हारी नाभि है। तुम्हारे आनंद का स्रोत भी तुम्हारी नाभि है। तुम्हारे अस्तित्व का केंद्र तुम्हारी नाभि है। अगर तुम अपनी नाभि में उतर जाओ, तो तुमने परमात्मा का द्वार पा लिया।
पश्चिम में लोग मजाक करते हैं। पूरब के योगियों को कहते हैं, वे लोग जो अपने नाभि में टकटकी लगाकर देखते रहते हैं। वहां क्या रखा है? वहीं सब कुछ रखा है।
तुम्हें शायद पता नहीं कि मां के गर्भ में तुम नाभि से ही मां से जुड़े थे। नाभि तुम्हारे जीवन का केंद्र है। वहीं से जीवन—ऊर्जा तुम्हारे जीवन में प्रवाहित हो रही थी। फिर तुम तैयार हो गए, मां की जीवन—ऊर्जा की जरूरत न रही, तो नाल काट दी गई। तुम मां के गर्भ से बाहर आ गए। लेकिन तुम्हारी नाभि से एक अदृश्य नाल अभी भी परमात्मा से जुड़ी है। एक रजतरेखा तुम्हें जोड़े हुए है अस्तित्व से। तुम नाभि से ही जुड़े हो। नाभि में ही तुम्हारी जड़ हैं। न केवल शरीर के अर्थों में तुम नाभि से जुड़े हो। आत्मा के अर्थों में भी तुम नाभि से ही जुड़े हो। जिन लोगों को कभी शरीर के बाहर जाने का अनुभव हुआ है—कई बार हो जाता है, कभी तो दुर्घटना में हो जाता है कि कोई आदमी ट्रेन से गिर पड़ा और उस झटके में उसकी आत्मा शरीर के बाहर निकल गई—तो जिन लोगों को भी ऐसा अनुभव हुआ है दुर्घटना में, या योग की साधना में, या जान—बूझकर जो प्रयोग कर रहे थे शरीर के बाहर जाने का, उन सभी को एक बात दिखाई पड़ी है, और वह यह कि उनकी आत्मा कितनी ही दूर चली जाए, एक रजत—रेखा नाभि से जुड़ी ही रहती है। अगर वह टूट जाए, फिर वापस शरीर में लौटने का उपाय नहीं रह जाता। वह कितनी ही ऊंचाई पर उड़ जाए, लेकिन वह रजत—रेखा बड़ी लोचपूर्ण है, वह खिंचती जाती है। वह कोई पदार्थ नहीं है; वह सिर्फ शुद्ध विद्युत—ऊर्जा है, इसलिए शुभ्र चांदी की भांति दिखाई पड़ता है।
तुम्हारी नाभि में तुम्हारे जीवन का सारा राज छिपा है। इसलिए कबीर ने कस्तूरी कुंडल बसै यह प्रतीक चुना है। और घटना वही घट रही है जो मृग के साथ घटती है। मृग बिलकुल पागल हो जाता है, टकरा लेता है सिर को जगह—जगह, लहूलुहान हो जाता है। और इतनी मादक गंध आती है, रुक भी नहीं सकता; खोजना चाहता है, कहां से गंध आती है। जितना भागता है उतना ही व्याकुल होता है। और जितना भागता है उतनी ही जगह उसकी गंध व्याप्त हो जाती है। उतना ही और भी दिग्भ्रम पैदा होने लगता है कि कहां से आ रही है, कि पूरब से कि पश्चिम से कि दक्षिण से। क्या करे यह मृग? इस मृग को कैसे समझाएं कि तू बैठ जा, आंख बंद कर ले, भीतर उत्तर—तेरे भीतर ही गंध का राज छिपा है।
तुम भी आनंद की तलाश में कहां—कहां नहीं घूम लिए हो। कितने जन्मों की लंबी यात्रा है। हिंदू कहते हैं, चौरासी करोड़ योनियों में तुम एक ही चीज को खोज रहे हो कि गंध कहां से आ रही है? आनंद कहां से मिलेगा? जीवन का राज कहां छिपा है? परमात्मा कहां है?
कुछ लोग अगर समाज में गाली खाने की हिम्मत न जुटा पाएं, तो समाज का विचार कभी भी विकसित नहीं होता है। कुछ लोगों को यह हिम्मत जुटानी ही चाहिए कि वे गाली खाएं। प्रशंसा प्राप्त करना बहुत आसान है, गाली खाने की हिम्मत जुटानी बहुत कठिन है। - ...ओशो
जो आपको भय मालूम पड़ता है कि गांधी की आलोचना मत करो, बुद्ध की आलोचना मत करो, मोहम्मद की आलोचना मत करो--नहीं तो दंगा हो जाएगा। वह आपका मोहम्मद, बुद्ध और गांधी के प्रति प्रेम नहीं है। उनकी आलोचना से आपके अहंकार को ठेस पहुंचती है। उसकी वजह से आप पीड़ित और परेशान हो उठते हैं। यह योग्य नहीं है, यह हितकर नहीं है, यह कल्याणदायी नहीं है। इससे मंगल सिद्ध नहीं होगा।
मैंने यह जो कुछ बातें कहीं, एक मित्र मेरे पास आए, उन्होंने कहा कि मैं काका कालेलकर के पास गया था तो काका कालेलकर ने कहा, मेरे बाबत कहा कि अभी उनकी उम्र कम है इसलिए गड़बड़ बातें कह देते हैं। जब उम्र बढ़ जाएगी तो बिलकुल ठीक बातें कहने लगेंगे। वे मित्र मेरे पास खबर लेकर आए कि काका कालेलकर ने ऐसा कहा है।
मैंने उनसे कहा, काका कालेलकर से कहना कि जब शंकराचार्य ने तैंतीस वर्ष की उम्र में बुद्ध का खंडन और आलोचना की, तो लोगों ने कहा इसकी उम्र कम है, उम्र बड़ी हो जाएगी तो सब ठीक हो जाएगा। जब जीसस ने तीस वर्ष की उम्र में यहूदियों की आलोचना की, तो यहूदियों ने कहा, यह पागल छोकरा है, आवारा है, इसकी उम्र अभी क्या है, उम्र बढ़ जाएगी तो सब ठीक हो जाएगा। जब विवेकानंद ने तैंतीस-चौंतीस वर्ष की उम्र में वेदांत की व्याख्या की तो वेदांत के बूढ़े गुरु ने कहा, अभी नासमझ है, अभी कुछ समझता नहीं, उम्र कम है।'
यह उम्र की दलील बड़ी पुरानी है। लेकिन उम्र कम होने से न कोई गलत होता और न उम्र ज्यादा होने से कोई सही होता है। उम्र से बुद्धिमत्ता का कोई भी संबंध नहीं है। काका कालेलकर यह कह रहे हैं कि अगर जीसस क्राइस्ट अस्सी साल तक जीते तो ज्यादा बुद्धिमान हो जाते। वे यह कह रहे हैं कि जीसस क्राइस्ट तैंतीस साल की उम्र के थे इसलिए मंदिर में घुस गए और मंदिर में ब्याज खाने वाली दुकानों के तख्ते उलट दिए और कोड़ा उठा कर उन्होंने पुरोहितों को मार कर मंदिर के बाहर निकाल दिया। अगर जीसस ज्यादा उम्र के होते तो इस तरह की नासमझी कभी नहीं कर सकते थे। काका कालेलकर उनकी जगह होते तो इस तरह की नासमझी वे कभी भी नहीं करते। उनकी उम्र ज्यादा है, लेकिन उम्र ज्यादा होने से बुद्धिमत्ता नहीं बढ़ जाती है। उम्र ज्यादा होने से सिर्फ चालाकी और कनिंगनेस बढ़ जाती है।
मैं भी जानता हूं, मैंने गांधी की आलोचना की, उसी दिन सुबह दो मित्रों ने मुझे आकर कहा कि आप यह बात ही मत करिए, अन्यथा गुजरात की सरकार नारगोल में छह सौ एकड़ जमीन देती है, वह बिलकुल बंद कर देगी, बिलकुल नहीं देगी। अभी बात मत करिए, पहले जमीन मिल जाने दीजिए, फिर जो आपको कहना हो कहना। वे कहने लगे, आपकी उम्र अभी कम है। आपको पता नहीं जमीन खो जाएगी। मैंने उनसे कहा, भगवान करे मेरी उम्र इतनी ही नासमझी की बनी रहे ताकि सत्य मुझे संपत्ति से हमेशा मूल्यवान मालूम पड़े। वह जमीन जाए, जाने दें। मुझे जो ठीक लगता है, मुझे कहने दें।
भगवान न करे, इतना चालाक मैं हो जाऊं कि संपत्ति सत्य से ज्यादा मूल्यवान मालूम पड़ने लगे। मुझे भी दिखाई पड़ता है, काका कालेलकर को ही दिखाई पड़ता है ऐसा नहीं।
मुझे भी दिखाई पड़ता है कि गांधी की आलोचना करके गाली खाने के सिवाय और क्या मिलेगा। अंधा नहीं हूं, इतनी उम्र तो कम से कम है कि इतना दिखाई पड़ सकता है कि गाली मिलेगी।
लेकिन कुछ लोग अगर समाज में गाली खाने की हिम्मत न जुटा पाएं, तो समाज का विचार कभी भी विकसित नहीं होता है। कुछ लोगों को यह हिम्मत जुटानी ही चाहिए कि वे गाली खाएं। प्रशंसा प्राप्त करना बहुत आसान है, गाली खाने की हिम्मत जुटानी बहुत कठिन है। श्री ढेबर भाई ने मुझे उत्तर देते हुए किसी मीटिंग में अभी कहा है कि मैं गांधीजी को समझ नहीं सका हूं, इसलिए ऐसी बातें कर रहा हूं। मेरा उनसे निवेदन है कि प्रशंसा तो बिना समझे भी की जा सकती है, आलोचना करने के लिए बहुत समझना जरूरी होता है। प्रशंसा तो कुत्ते भी पूंछ हिला कर जाहिर कर देते हैं, उसके लिए कोई बहुत बुद्धिमत्ता की आवश्यकता नहीं है। लेकिन आलोचना के लिए सोचना जरूरी है, विचार करना जरूरी है, हिम्मत जुटानी जरूरी है और अपने को दांव पर लगाना भी जरूरी है। अब गांधी से मेरा झगड़ा क्या हो सकता है, गांधी से झगड़ कर मुझे फायदा क्या हो सकता है? कोई भी तो फायदा नहीं हो सकता। नुकसान हो सकता है। अखबार मेरी खबर नहीं छापेंगे। गांवों में मेरी सभा होनी मुश्किल हो जाएगी। अहिंसक लोग पत्थर फेंक सकते हैं, यह सब हो सकता है। इससे मुझे क्या फायदा हो जाएगा?
लेकिन मुझे लगता है कि चाहे कितना ही नुकसान हो, जो हमें सत्य दिखाई पड़ता हो उसे हमें कहना ही चाहिए, जो हमें ठीक मालूम पड़ता हो, चाहे उसके लिए कितना ही हानि उठानी पड़े, वह हमें कहना ही चाहिए। इस दुनिया को वे ही थोड़े से लोग आगे विकसित किए हैं, जिन्होंने समाज की मान्य परंपराओं की आलोचना की है, जिन्होंने समाज के बंधे हुए पक्षपातों को तोड़ने की हिम्मत की है। जिन्होंने समाज से विद्रोह किया है वे ही थोड़े से लोग इस जीवन और जगत को विकसित कर पाए हैं। जगत को उन्होंने विकसित नहीं किया है जिन्होंने अंधश्रद्धा में अंधी हां भर दी है, जगत को विकास उन्होंने किया है जिन्होंने किसी तरह का विद्रोह किया है। मेरा आपसे निवेदन है अगर इस देश के हित में आप हैं, अगर इस देश को विकसित होना देखना चाहते हैं तो आपको विद्रोह की, विचार की आलोचना की हिम्मत जुटानी ही चाहिए, उसके बिना हम अपने देश के भविष्य को स्वर्णिम नहीं बना सकते हैं। इसका यह मतलब नहीं है कि जो मैं कहता हूं वह सही है, इसका यह भी मतलब नहीं कि जो मैं कहता हूं वही सत्य है, यह तो फिर वही पागलपन हुआ, मेरे अनुयायी आपसे कहने लगेंगे कि जो मैंने कहा वह सत्य है। पहली तो बात मेरा कोई अनुयायी नहीं है, क्योंकि अनुयायी जुटाने का सर्कस करने का मुझे कोई भी रस और कोई भी सुख नहीं। वह सर्कस मुझे पसंद ही नहीं है।
मेरा कोई अनुयायी नहीं, मेरे मित्र हैं। लेकिन फिर मुझे पत्र पहुंचे कई मित्रों के कि हम तो आपके अनुयायी हैं और आपने हमको बड़ा धक्का पहुंचा दिया। मैंने कहा, तुम अनुयायी बने इससे धक्का पहुंचा। अनुयायी नहीं बनते तो धक्का नहीं पहुंचता। अनुयायी बने क्यों? तुमसे कहा किसने कि तुम मेरे अनुयायी बन जाओ? मैं अकेला काफी हूं। मेरी बात विचार करने के लिए, मेरी बात आलोचना करने के लिए, आप खूब आलोचना करें मेरी बात का, उसका खंडन करना, उसका विरोध करना, उस पर विचार करना, सारी तोड़-फोड़ के बाद अगर कोई बात मजबूरी में आपको ठीक दिखाई पड़े तो मानना। ऐसे मत मान लेना, जल्दी मत मान लेना। जल्दी मानने की कोई जरूरत नहीं है। मैं देश के विचार को गति देना चाहता हूं देश के विश्वास को नहीं। और देश का विचार गतिमान हो जाए, तो वह गांधी की भी आलोचना करेगा, वह मेरी भी आलोचना करेगा, वह किसी की भी आलोचना करेगा। लेकिन ये जो लोग देश के विश्वास को गतिमान करना चाहते हैं, वे कहते हैं, गांधी की भी आलोचना मत करो।
मेरे भी हित में यही है कि मैं गांधी की आलोचना न करूं, तो मैं भी आलोचना किए जाने से बच सकता हूं। लेकिन आलोचना से बचने की इच्छा ही कमजोरी और कायरता का लक्षण है।
मेरी बातों को इतने प्रेम से सुना, उसके लिए बहुत-बहुत धन्यवाद। अंत में सबके भीतर बैठे परमात्मा को प्रणाम करता हूं, मेरे प्रणाम स्वीकार करें।
ओशो प्रवचन माला "देख कबीरा रोया" के प्रवचन संख्या 02 से...
सुना होगा आपने, पढा होगा कि सभी ऋषि—मुनि जब सिद्ध अवस्था में पहुंचने लगते हैं, तो स्वर्ग से अप्सराएं उतर कर उन्हें सताने लगती हैं। अब यह स्वर्ग में कौन सा धंधा है? किसने खोला है? और किसको प्रयोजन है इन ऋषि—मुनियों को भ्रष्ट करने में? किसकी उत्सुकता है?
नहीं, कोई अप्सराएं कहीं से नहीं आ रही हैं। यह ऋषि—मुनियों का ही अचेतन मन है। स्त्रियों को इस बुरी तरह दबाया है भीतर कि आखिरी क्षण तक पीछा नहीं छोड़ता। और फिर ऋषि—मुनि भ्रष्ट हो जाते हैं! और भ्रष्ट वगैरह नहीं हो रहे। यह पूरा मनोवैज्ञानिक खेल है। कोई भ्रष्ट नहीं कर रहा उनको। लेकिन जो दबाया है, वह शक्तिशाली हो रहा है। और जब आखिरी क्षण आएगा तो वह इतना शक्तिशाली हो जाएगा कि उसी की वजह से वे हार जाएंगे। वह जो जीता हुआ हाथ था, वह हार जाएगा। और वे दोनों हाथ उन्हीं के हैं। ब्रह्मचर्य आरोपित था, खींच—खींच कर उसको खड़ा कर लिया था। लेकिन वह भीतर जो दबी है वासना, वह रास्ता देख रही है। एक क्षण आएगा, जब पेंडुलम घूमना शुरू होगा। जब पेंडुलम घूमेगा.......।
तो आपको यह रस नहीं आ सकता। आपके पास अप्सराएं नहीं आतीं। उसके लिए ऋषि होना जरूरी है। अगर अप्सराओं को बुलाना हो, तो पहले ऋषि की प्रक्रिया से गुजरना जरूरी है। पेंडुलम इतना बाएं जाना चाहिए कि जब दाएं जाए तो स्वर्ग तक पहुंच जाए। उसके दाएं जाने के लिए इतनी ऊर्जा अर्जित होनी चाहिए। अगर अप्सराएं चाहिए हों, तो ऋषि होना जरूरी है। जब से ऋषि खो गए, अप्सराएं खो गईं!
आजकल कोई अप्सराएं नहीं आती! उसका कारण यह नहीं है कि अप्सराएं बची नहीं। ऋषि नहीं बचे। ऋषि पैदा करिए, अप्सराएं आनी शुरू हो जाएंगी। वे ऋषियों के मस्तिष्क की विक्षिप्तता हैं। वह जो दबाया है, वह प्रकट होगा, पीछा करेगा। और अगर बहुत दबाया है, तो वह इतना साकार हो जाएगा। इसमें ऋषियों की भूल नहीं है। उन्होंने रिपोर्ट तो बिलकुल ठीक दी है कि अप्सराएं आईं। और अप्सराएं इतनी सुंदर होंगी, जितनी कोई स्त्री कभी नहीं होती।
वह सौंदर्य जो है, दबी हुई वासना से आ रहा है। वह जो सौंदर्य है, स्वयं का निर्माण है। जब आप वासना से भरे होते हैं, जितनी गहरी वासना से भरे होते हैं, उतनी ही स्त्रियां ज्यादा सुंदर मालूम होंगी, या पुरुष ज्यादा सुंदर मालूम होंगे। अगर वासना से बहुत भरे हों तो कुरूप स्त्री भी सुंदर मालूम पड़ेगी। अगर वासना से बहुत भरे हों और उपवास बहुत करना पड़ा हो तो वृद्ध स्त्री भी सुंदर मालूम पड़ने लगेगी।
वह जो सौंदर्य दिखाई पड़ता है, वह आपका प्रक्षेपण है। वह ऐसे ही है, जैसे भूखे आदमी को रूखी—सूखी रोटी भी परम— भोग मालूम पड़ेगी। वह कुछ रूखी—सूखी रोटी में नहीं है परम— भोग, वह परम— भोग उसकी भूख में है। अगर आप भरे पेट हैं तो परम— भोग भी रखा हो, तो आपको खयाल न आएगा कि यहां भोजन रखा है।
किसी दिन उपवास करके सड़क से निकलें, उस दिन सिर्फ होटल, रेस्ट्रारेंट— इनके ही बोर्ड आप पढ़ेंगे। बाकी कोई दुकान दिखाई नहीं पड़ेगी! और बड़े रस से पढ़ेंगे और बोर्ड बड़े सुंदर मालूम पड़ेंगे। और वे जो भोजन और मिठाइयां दिखाई पड़ रही हैं, वह आपको पहली दफे दिखाई पड़ेगी। और उनमें जैसा रंग और जैसी गंध और उनमें जैसा सौंदर्य और परम—रहस्य प्रकट होगा, वैसा कभी नहीं हुआ था! वह वहां है नहीं, वह आपके भीतर है, वह आप डालते हैं।
आदमी अपने चारों तरफ डालता है अपने ही भावों को। तो ऋषि—मुनियों ने जरूर अप्सराएं देखीं, पर वे अप्सराएं उनकी मनो—सृष्टियां थीं, उनका अपना ही सृजन था।
IN BUDDHA'S TIME, dynamic methods of meditation were not needed. People were more simple, more authentic. They lived a more real life. Now, people are living a very repressed life, a very unreal life. When they don't want to smile, they smile. When they want to be angry, they show compassion. People are false, the whole life pattern is false. People are just acting, not living. Many incomplete experiences go on being collected, piled up inside their minds.
Just sitting directly in silence won't help. The moment you will sit silently, you will see all sorts of things moving inside you; you will feel it almost impossible to be silent.
First throw those things out so you come to a natural state of rest. Real meditation starts only when you are at rest.
—O'sh`o—
The Discipline of Transcendence
Vol 2, Ch #5: A light unto yourself
am in Buddha Hall
[via Venkat Ramanan]💖
(_via Bodhisattva Shree Amithaba
Subhuti _💖)विवेकानंद अमरीका जा रहे थे, तो राजस्थान में एक राज—परिवार (खेतड़ी नरेश)में मेहमान थे। राजा ने उनके स्वागत में एक समारोह कियाः अमरीका जाता है संन्यासी। राजा तो राजा! उसने काशी से एक प्रसिद्ध वेश्या भी बुलवा ली। क्योंकि समारोह और बिना वेश्या के हो, यह तो उसकी समझ के बाहर था। नहीं तो समारोह ही क्या? वह तो दीवाली हुई बिना दीयों के। वेश्या तो होनी ही चाहिए। जब विवेकानंद को पता लगा—पता लगा आखिर—आखिर में; सांझ आ गयी उत्सव की और विवेकानंद को ले जाने के लिए द्वार पर आकर गाड़ी खड़ी हो गयी, तब उनको पता लगा कि एक वेश्या भी आई है समारोह में, वह विवेकानंद के सामने नाचेगी—तो विवेकानंद ने जाने से इनकार कर दियाः कि मैं नहीं जाऊंगा। मैं संन्यासी हूं, वेश्या का नृत्य देखूं! पास ही शामियाना था जहां विवेकानंद ठहरे थे, जहां उत्सव होनेवाला था। लेकिन राजा तो राजा, राजा ने कहा अब नहीं आते तो न आएं, उत्सव तो चलेगा ही। अब वेश्या भी आ गयी, मेहमान भी आ गए, शराब भी आ गयी, अब जलसा तो बंद नहीं हो सकता; तो उनके बिना चलेगा।
जलसा शुरू हुआ। लेकिन उस वेश्या ने बड़ा अद्भुत गीत गाया। उसने नरसी मेहता का एक भजन गाया। पास ही था शामियाना, विवेकानंद को सुनायी पड़ने लगा नरसी मेहता के भजन उस वेश्या के टपकते आंसू और नरसी मेहता का भजन! नरसी मेहता के भजन में यह कहा गया है कि पारस पत्थर को इस बात की चिंता नहीं होती कि जो लोहा वह छू रहा है, वह पूजागृह में रखा जानेवाला लोहा है या कसाई के घर जिस लोहे से जानवरों की हत्या की जाती है, वह लोहा है। पारस पत्थर तो दोनों लोहों को छूकर सोना बना देता है। तो वह वेश्या अपने गीत में कहने लगी कि तुम कैसे पारस हो? तुम्हें अभी वेश्या दिखायी पड़ती है! मैं तो कितने भाव लेकर आई थी, मैं तो कितने भजन संजोकर आई थी—वेश्या सच में भजन संजोकर आयी थी। सोचा वेश्या ने कि विवेकानंद, संन्यासी के सामने नृत्य करना, गीत गाने हैं, तो मीरां के भजन लायी थी, नरसी मेहता के भजन लाई थी; जीवन को धन्य समझा था, कि आज मेरा नृत्य भी सार्थक होगा।
विवेकानंद को बहुत चोट लगी जब उन्होंने सुना यह नरसी मेहता का भजन। उठे और पहुंच गए समारोह में और वेश्या से क्षमा मांगी और कहा, मुझसे भूल हो गयी। मेरी गलती। मैं ही अभी पारस नहीं हूं, इसीलिए यह विचार किया कि कौन लोहा पात्र, कौन लोहा अपात्र। विवेकानंद ने कहा है कि उस दिन मेरी आंख खुल गयी। उस दिन से मैंने भेद करने छोड़ दिए पात्र—अपात्र के। वह पुरानी आदत उस वेश्या ने छुड़ा दी। वह वेश्या मेरी गुरु हो गयी।
जीवन बहुत अनूठा है। रहस्यपूर्ण है। कहां से द्वार खुलेगा परमात्मा का, कहना मुश्किल है।
fIN BUDDHA'S TIME, dynamic methods of meditation were not needed. People were more simple, more authentic. They lived a more real life. Now, people are living a very repressed life, a very unreal life. When they don't want to smile, they smile. When they want to be angry, they show compassion. People are false, the whole life pattern is false. People are just acting, not living. Many incomplete experiences go on being collected, piled up inside their minds.
Just sitting directly in silence won't help. The moment you will sit silently, you will see all sorts of things moving inside you; you will feel it almost impossible to be silent.
First throw those things out so you come to a natural state of rest. Real meditation starts only when you are at rest.
विवेकानंद अमरीका जा रहे थे, तो राजस्थान में एक राज—परिवार (खेतड़ी नरेश)में मेहमान थे। राजा ने उनके स्वागत में एक समारोह कियाः अमरीका जाता है संन्यासी। राजा तो राजा! उसने काशी से एक प्रसिद्ध वेश्या भी बुलवा ली। क्योंकि समारोह और बिना वेश्या के हो, यह तो उसकी समझ के बाहर था। नहीं तो समारोह ही क्या? वह तो दीवाली हुई बिना दीयों के। वेश्या तो होनी ही चाहिए। जब विवेकानंद को पता लगा—पता लगा आखिर—आखिर में; सांझ आ गयी उत्सव की और विवेकानंद को ले जाने के लिए द्वार पर आकर गाड़ी खड़ी हो गयी, तब उनको पता लगा कि एक वेश्या भी आई है समारोह में, वह विवेकानंद के सामने नाचेगी—तो विवेकानंद ने जाने से इनकार कर दियाः कि मैं नहीं जाऊंगा। मैं संन्यासी हूं, वेश्या का नृत्य देखूं! पास ही शामियाना था जहां विवेकानंद ठहरे थे, जहां उत्सव होनेवाला था। लेकिन राजा तो राजा, राजा ने कहा अब नहीं आते तो न आएं, उत्सव तो चलेगा ही। अब वेश्या भी आ गयी, मेहमान भी आ गए, शराब भी आ गयी, अब जलसा तो बंद नहीं हो सकता; तो उनके बिना चलेगा।
जलसा शुरू हुआ। लेकिन उस वेश्या ने बड़ा अद्भुत गीत गाया। उसने नरसी मेहता का एक भजन गाया। पास ही था शामियाना, विवेकानंद को सुनायी पड़ने लगा नरसी मेहता के भजन उस वेश्या के टपकते आंसू और नरसी मेहता का भजन! नरसी मेहता के भजन में यह कहा गया है कि पारस पत्थर को इस बात की चिंता नहीं होती कि जो लोहा वह छू रहा है, वह पूजागृह में रखा जानेवाला लोहा है या कसाई के घर जिस लोहे से जानवरों की हत्या की जाती है, वह लोहा है। पारस पत्थर तो दोनों लोहों को छूकर सोना बना देता है। तो वह वेश्या अपने गीत में कहने लगी कि तुम कैसे पारस हो? तुम्हें अभी वेश्या दिखायी पड़ती है! मैं तो कितने भाव लेकर आई थी, मैं तो कितने भजन संजोकर आई थी—वेश्या सच में भजन संजोकर आयी थी। सोचा वेश्या ने कि विवेकानंद, संन्यासी के सामने नृत्य करना, गीत गाने हैं, तो मीरां के भजन लायी थी, नरसी मेहता के भजन लाई थी; जीवन को धन्य समझा था, कि आज मेरा नृत्य भी सार्थक होगा।
विवेकानंद को बहुत चोट लगी जब उन्होंने सुना यह नरसी मेहता का भजन। उठे और पहुंच गए समारोह में और वेश्या से क्षमा मांगी और कहा, मुझसे भूल हो गयी। मेरी गलती। मैं ही अभी पारस नहीं हूं, इसीलिए यह विचार किया कि कौन लोहा पात्र, कौन लोहा अपात्र। विवेकानंद ने कहा है कि उस दिन मेरी आंख खुल गयी। उस दिन से मैंने भेद करने छोड़ दिए पात्र—अपात्र के। वह पुरानी आदत उस वेश्या ने छुड़ा दी। वह वेश्या मेरी गुरु हो गयी।
जीवन बहुत अनूठा है। रहस्यपूर्ण है। कहां से द्वार खुलेगा परमात्मा का, कहना मुश्किल है।
जापान में एक राजा अपने बेटे को एक फकीर के पास, एक गुरु के पास, जागरण सीखने के लिए भेजता है।
राजा बूढ़ा था। और उन्होंने बेटे से कहा, "अपनी पूरी ऊर्जा इसमें लगा दो क्योंकि जब तक तुम जागृत नहीं हो, तुम मेरे उत्तराधिकारी नहीं बनोगे। मैं यह राज्य उस मनुष्य को नहीं दूंगा जो सोया हुआ और मूर्छित है। यह बाप-बेटे का सवाल नहीं है। मेरे पिता ने मुझे यह तभी दिया है जब मुझे होश आया। मैं सही व्यक्ति नहीं था, क्योंकि मैं उनका सबसे बड़ा बेटा नहीं था, मैं उनका सबसे छोटा बेटा था। लेकिन मेरे अन्य दो भाई, जो मुझसे बड़े थे, इसे प्राप्त नहीं कर सके।"
"तुम्हारे साथ भी ऐसा ही होने वाला है। और समस्या और भी जटिल है, क्योंकि मेरा एक ही बेटा है। यदि तुम होश को उपलब्ध नहीं हुए, तो राज्य किसी और क��� हाथों में देना पड़ेगा। तुम सड़कों पर भिखारी हो जाओगे। तो यह तुम्हारे लिए जीवन और मृत्यु का प्रश्न है। इस आदमी के पास जाओ, वह मेरा गुरु रहा है। अब वह बहुत बूढ़ा हो गया है, लेकिन मैं जानता हूं कि अगर कोई तुम्हें सिखा सकता है, तो वही आदमी है। उससे कहो, 'मेरे पिता बीमार हैं, बूढ़े हैं, किसी भी दिन मर सकते हैं। समय कम है, और उसके मरने से पहले मुझे पूरी तरह सचेत हो जाना है, नहीं तो मैं राज्य खो दूंगा।'”
यह एक बहुत प्रतीकात्मक कहानी है, यदि आप जागृत नहीं हैं, तो आप अपना राज्य खो देते हैं।
राजा का बेटा पहाड़ों में बूढ़े गुरु के पास गया। उसने गुरु से कहा, "मुझे आपके शिष्य राजा ने भेजा है।"
गुरु बहुत बूढ़ा था, उसके पिता से भी बड़ा। उसने कहा, “मुझे वह आदमी याद है। वह वास्तव में एक प्रामाणिक साधक था। मुझे उम्मीद है कि तुम उसी गुण के, उसी प्रतिभा के, उसी समग्रता के, उसी तीव्रता के साबित होओगे।"
युवा राजकुमार ने कहा, "मैं सब कुछ करूँगा।"
गुरु ने कहा, "तो फिर आश्रम में सफाई शुरू करो। और एक बात याद रखना - कि मैं तुम्हें किसी भी समय मारूंगा। हो सकता है कि तुम फर्श साफ कर रहे हो और मैं पीछे से आकर तुम्हें अपनी छड़ी से मारूं, इसलिए सावधान रहना।"
उसने कहा, "लेकिन मैं जागृति के बारे में जानने आया हूं ..."
गुरु ने कहा, "इस तरह तुम सीखोगे।"
एक वर्ष बीत गया। शुरुआत में उसे हर दिन इतनी चोट मिल रही थी, लेकिन धीरे-धीरे उसे होश आने लगा। यहां तक कि बूढ़े आदमी के कदम भी... वह कुछ भी कर रहा होगा- काम में कितना ही मग्न क्यों न हो, उसे तुरंत पता चल जाएगा कि गुरु आसपास है।
अब राजकुमार बहुत सचेत था। एक वर्ष के बाद गुरु ने उसे पीछे से मारा, जब वह आश्रम के एक अन्य साधु से बात कर रहा था। लेकिन राजकुमार ने बात करना जारी रखा, और फिर भी उसने छड़ी को उसके शरीर तक पहुँचने से पहले ही पकड़ लिया।
गुरु ने कहा, "यह एकदम ठीक है। अब यह पहला पाठ समाप्त हुआ। दूसरा पाठ आज रात से शुरू हो रहा है।”
राजकुमार ने कहा, “मैं सोचता था कि बस इतना ही। यह केवल पहला पाठ है? कितने पाठ हैं?"
बूढ़े गुरु ने कहा, "यह तुम पर निर्भर करता है। दूसरा सबक यह है कि अब मैं तुम्हें तब मारूंगा जब तुम सो रहे हो, और तुम्हें नींद में सतर्क रहना होगा।"
उसने कहा, “हे भगवान। नींद में कोई कैसे जाग्रत हो सकता है?”
बूढ़े ने कहा, “चिंता मत करो। मेरे हजारों शिष्य परीक्षा में उत्तीर्ण हुए हैं। तुम्हारे पिता परीक्षा में उत्तीर्ण हुए हैं। यह असम्भव नहीं है। यह मुश्किल है, लेकिन यह एक चुनौती है।"
और उस रात से वह रात में छह बार, आठ बार, बारह बार वार कर रहा था। नींद मुश्किल थी। लेकिन छह महीने के अंदर ही उसे अपने भीतर एक खास तरह की जागरूकता का अहसास होने लगा। और एक दिन जब गुरु उसे मारने ही वाला था, तो उसने आंखें बंद करके कहा- “चिंता मत कीजिये। आप बहुत बूढ़े हैं। मुझे दुख होता है, आप इतनी परेशानी उठा रहे हैं। मैं युवा हूं, मैं इन चोटों से बच सकता हूं।”
गुरु ने कहा, "तुमने कर दिखाया। तुमने दूसरा पाठ पास कर लिया है। लेकिन अब तक मैं अपने लकड़ी के डंडे से मारता रहा हूं। तीसरा सबक यह है कि अब मैं कल सुबह से असली तलवार से वार करना शुरू करूंगा। सतर्क रहो! बस एक क्षण की मूर्च्छा और तुम समाप्त हो जाओगे।"
सुबह-सुबह गुरु बगीचे में बैठा था, बस पक्षियों को गाते हुए सुन रहा था... फूल खिलते थे, सूरज उगता था। राजकुमार ने सोचा, “अब यह खतरनाक होता जा रहा है! एक लकड़ी की छड़ी कठिन थी, लेकिन इससे मैं मरने वाला नही था। लेकिन एक असली तलवार…।" वह एक तलवारबाज था लेकिन उसे अपनी रक्षा का कोई मौका नहीं दिया जाने वाला था, केवल जागरूकता ही उसकी रक्षा करने वाली थी।
उसके मन में एक विचार आया, “यह बूढ़ा सचमुच खतरनाक है। इससे पहले कि वह अपना तीसरा पाठ शुरू करे, मैं यह जांचना चाहूंगा कि वह खुद तीसरी परीक्षा पास कर सकता है या नहीं। यदि वह मेरे जीवन को जोखिम में डाल रहा है, तो मैं उसे यह करने की अनुमति नहीं दे सकता जब तक कि वह स्वयं ही इसके योग्य न हो।" और ये केवल विचार थे जो वह अपने बिस्तर में लेटे हुए सोच रहा था। यह एक ठंडी सुबह थी।
और गुरु ने ���हा, "अपने कंबल से बाहर आओ, मूर्ख! क्या तुम अपने ही गुरु को तलवार से मारना चाहते हो? .... अब तुम्हें शर्म महसूस हो रही है! मैं तुम्हारे विचारों की आहट सुन सकता हूं ... सोचना छोड़ दो।" उसने सब कुछ सुन लिया था, जबकि उसे कुछ नहीं कहा गया।
. मनुष्य जो एकता खोजता है,वह शरीर के तल पर खोजता है।लेकिन शायद आपको पता नहीं,पदार्थ के तल पर जगत में कोई भी एकता संभव नहीं है। शरीर के तल पर कोई भी एकता संभव नहीं है।पदार्थ अनिवार्य रूप से एटामिक है,आणविक है और एक-एक अणु अलग-अलग है।दो अणु पास तो हो सकते हैं, लेकिन एक नहीं हो सकते।निकट हो सकते हैं,लेकिन एक नहीं हो सकते।दो अणुओं के बीच अनिवार्य रूप से जगह शेष रह जायेगी,फासला, डिस्टेंस शेष रह जायेगा।
पदार्थ की सत्ता एटामिक है,आणविक है।प्रत्येक अणु दूसरे अणु से अलग है।हम लाख उपाय करें तो भी दो अणु एक नहीं हो सकते।उनके बीच में फासला है, उनके बीच में दूरी शेष रह ही जायेगी।ये हाथ हम कितने ही निकट ले आयें,ये हाथ हमें जुड़े हुए मालूम पड़ते हैं, लेकिन ये हाथ फिर भी दूर हैं।इनके जोड़ में भी फासला है। इन दोनों हाथ में बीच में दूरी है, वह दूरी समाप्त नहीं हो सकती।
प्रेम में हम किसी को हृदय से लगा लेते हैं।दो देह पास आ जाती हैं,लेकिन दूरी बरकरार रहती है,दूरी मौजूद रह जाती है।इसलिए हृदय से लगाकर भी किसी को पता चलता है कि हम अलग-अलग हैं,पास नहीं हो पाये हैं,एक नहीं हो पाये हैं।शरीर को निकट लेने पर भी, वह जो एक होने की कामना थी,अतृप्त रह जाती है। इसलिए शरीर के तल पर किये गये सारे प्रेम असफल हो जाते हों,तो आश्चर्य नहीं। प्रेमी पाता है कि असफल हो गये।जिसके साथ एक होना चाहा था, वह पास तो आ गया; लेकिन एक नहीं हो पाये।लेकिन उसे यह नहीं दिखायी पड़ता कि यह शरीर की सीमा है कि शरीर के तल पर एक नहीं हुआ जा सकता,पदार्थ के तल पर एक नहीं हुआ जा सकता,मैटर के तल पर एक नहीं हुआ जा सकता। यह स्वभाव है पदार्थ का कि वहां पार्थक्य होगा, दूरी होगी, फासला होगा।
लेकिन प्रेमी को यह नहीं दिखायी पड़ता है!उसे तो यह दिखायी पड़ता है कि शायद जिसे मैंने प्रेम किया है, वह मुझे ठीक से प्रेम नहीं कर पा रहा है,इसलिए दूरी रह गयी है।शरीर के तल पर एकता खोजना नासमझी है,यह उसे नहीं दिखायी पड़ता!लेकिन दूसरा--प्रेमी दूसरी तरफ जो खड़ा है,जिससे उसने प्रेम की आकांक्षा की थी,वह शायद प्रेम नहीं कर रहा है,इसलिए एकता उपलब्ध नहीं हो पा रही।उसका क्रोध प्रेमी पर पैदा होता है,लेकिन दिशा ही गलत थी प्रेम की,यह खयाल नहीं आता! इसलिए दुनिया भर में प्रेमी एक-दूसरे पर क्रुद्ध दिखायी पड़ते हैं।पति-पत्नी एक-दूसरे पर क्रुद्ध दिखायी पड़ते हैं!
सारे जगत में प्रेमी एक-दूसरे के ऊपर क्रोध से भरे हुए हैं,क्योंकि वह आकांक्षा जो एक होने की थी,वह विफल हो गयी है,असफल हो गयी है।और वे सोच रहे हैं कि दूसरे के कारण असफल हो गयी है!प्रत्येक यही सोच रहा है कि दूसरे के कारण असफल हो गया हूं, इसलिए दूसरे पर क्रोध कर रहा है! लेकिन मार्ग ही गलत था। प्रेम शरीर के तल पर नहीं खोजा जा सकता था,इसका स्मरण नहीं आता है।
इस एकता की दौड़ में,जिसे हम प्रेम करते हैं,उसे हम "पजेस' करना चाहते हैं,उसके हम पूरे मालिक हो जाना चाहते हैं! कहीं ऐसा न हो कि मालकियत कम रह जाये,पजेशन कम रह जाये तो एकता कम रह जाये। इसलिए प्रेमी एक-दूसरे के मालिक हो जाना चाहते हैं। मुट्ठी पूरी कस लेना चाहते हैं।दीवाल पूरी बना लेना चाहते हैं कि प्रेमी कहीं दूर न हो जाये,कहीं हट न जाये,कहीं दूसरे मार्ग पर न चला जाये,किसी और के प्रेम में संलग्न न हो जाये। तो प्रेमी एक-दूसरे को पजेस करना चाहते हैं, मालकियत करना चाहते हैं।
और उन्हें पता नहीं कि प्रेम कभी मालिक नहीं होता।जितनी मालकियत की कोशिश होती है,उतना फासला बड़ा होता चला जाता है,उतनी दूरी बढ़ती चली ���ाती है;क्योंकि प्रेम हिंसा नहीं है,मालकियत हिंसा है, मालकियत शत्रुता है।मालकियत किसी की गर्दन को मुट्ठी में बांध लेना है।मालकियत जंजीर है।लेकिन प्रेम भयभीत होता है कि कहीं मेरा फासला बड़ा न हो जाये,इसलिए निकट,और निकट,और सब तरफ से सुरक्षित कर लूं ताकि प्रेम का फासला नष्ट हो जाये,दूरी नष्ट हो जाये। जितनी यह चेष्टा चलती है दूरी नष्ट करने की, दूरी उतनी बड़ी होती चली जाती है। विफलता हाथ लगती है,दुख हाथ लगता है,चिंता हाथ लगती है-ओशो
तुम पैदा हुए हो प्रेम की किसी ऊर्जा से। सारे जगत का खेल चलता है प्रेम की ऊर्जा से। अब तो वैज्ञानिकों को भी शक होने लगा है कि शायद जिसे वे गुरुत्वाकर्षण कहते हैं पृथ्वी का, वह पृथ्वी का प्रेम हो! और जिसे वे ऋण और धन विद्युत का आकर्षण कहते हैं, वह शायद विद्युतीय प्रेम हो! शायद जिसे वे तारों के बीच का संबंध और जोड़ कहते हैं, वह भी चुंबकीय प्रेम हो! शायद अणु-परमाणु जिससे गुंथे हैं–टूटकर छितर नहीं जाते, वह भी प्रेम की ही गांठ हो, वह भी प्रेम का ही गठबंधन हो! होना भी चाहिए, क्योंकि आदमी कुछ अलग-थलग तो नहीं। आया है इसी विराट से, जाएगा, इसी विराट में। जहां से आदमी आता है, वहीं से पौधे आते हैं, वहीं से पत्थर आते हैं। जरूर कोई चीज तो समान होनी ही चाहिए। स्रोत समान है तो कुछ चीज तो समान होनी ही चाहिए। तभी तो तुम पत्थर के पास बैठकर भी अजनबी अनुभव नहीं करते। वृक्ष के पास बैठकर भी अपनापन अनुभव करते हो। सागर भी बुलाता है। हिमालय से भी बात हो जाती है। आकाश को देखते हो तो भी संबंध बनता है, परिवार मालूम होता है।
अस्तित्व परिवार है। और अगर परिवार को तुम समझो, तो परिवार को जोड़नेवाला सेतु और धागे का नाम ही प्रेम है।
इसलिए जीसस का वचन अनूठा है, जब जीसस ने कहा: परमात्मा प्रेम है। जीसस ने यह कहा कि परमात्मा को छोड़ दो तो भी चलेगा, प्रेम को मत छोड़ देना। परमात्मा को भूल जाओ, कुछ हर्जा न होगा; प्रेम को मत भूल जाना। प्रेम है तो परमात्मा हो ही जाएगा। और अगर प्रेम नहीं है तो परमात्मा पत्थर की तरह मंदिरों में पड़ा रह जाएगा, मुर्द��, लाश होगी उसकी, उससे जीवन खो जाएगा।
भक्ति का सारा सूत्र प्रेम है। और प्रेम से सब निकला है पदार्थ ही नहीं, परमात्मा भी। परमात्मा प्रेम की आत्यंतिक नियति है–अंतिम खिलावट! आखिरी ऊंचाई! संगीत की आखिरी छलांग! परमात्मा प्रेम का ही सघन रूप है। प्रेम को समझा तो परमात्मा को समझा। प्रेम को न समझ पाए तो परमात्मा से चूक हो जाएगी।
जब तक जीवन है रोज ओशो ईश्वरी ज्ञान लेने के लिए इस पेज को लाइक करें। As long as there is life, like this page to get Osho's divine knowledge daily.😊❤️😊 Osho 😊❤️😊
यहीं से सब मिलने वाला है यात्रा बहुत आसान है, लेकिन इंसान ने बहुत मुश्किल यात्रा। बना रखी है।
अब कौन पहुंचता है इसके लिए एक रहस्य है?
सत्य ज्ञान को पाना यानी ईश्वर को पा लेना यही सच है।
इसे पाने के बाद शीश कुछ भी नहीं बचता। आप ईश्वर हो जाते हैं, यह सच है। ओशो 🙏❤️😊❤️
Everything is going to be available from here The journey is very easy, but man has made a very difficult journey
Now who reaches is a mystery to it?
To get true love in this life, to get true knowledge means to get God, this is the truth After getting it, the head is left with nothing. You become God, it is true🙏❤️😊❤️
जापान में एक राजा अपने बेटे को एक फकीर के पास, एक गुरु के पास, जागरण सीखने के लिए भेजता है।
राजा बूढ़ा था। और उन्होंने बेटे से कहा, "अपनी पूरी ऊर्जा इसमें लगा दो क्योंकि जब तक तुम जागृत नहीं हो, तुम मेरे उत्तराधिकारी नहीं बनोगे। मैं यह राज्य उस मनुष्य को नहीं दूंगा जो सोया हुआ और मूर्छित है। यह बाप-बेटे का सवाल नहीं है। मेरे पिता ने मुझे यह तभी दिया है जब मुझे होश आया। मैं सही व्यक्ति नहीं था, क्योंकि मैं उनका सबसे बड़ा बेटा नहीं था, मैं उनका सबसे छोटा बेटा था। लेकिन मेरे अन्य दो भाई, जो मुझसे बड़े थे, इसे प्राप्त नहीं कर सके।"
"तुम्हारे साथ भी ऐसा ही होने वाला है। और समस्या और भी जटिल है, क्योंकि मेरा एक ही बेटा है। यदि तुम होश को उपलब्ध नहीं हुए, तो राज्य किसी और के हाथों में देना पड़ेगा। तुम सड़कों पर भिखारी हो जाओगे। तो यह तुम्हारे लिए जीवन और मृत्यु का प्रश्न है। इस आदमी के पास जाओ, वह मेरा गुरु रहा है। अब वह बहुत बूढ़ा हो गया है, लेकिन मैं जानता हूं कि अगर कोई तुम्हें सिखा सकता है, तो वही आदमी है। उससे कहो, 'मेरे पिता बीमार हैं, बूढ़े हैं, किसी भी दिन मर सकते हैं। समय कम है, और उसके मरने से पहले मुझे पूरी तरह सचेत हो जाना है, नहीं तो मैं राज्य खो दूंगा।'”
यह एक बहुत प्रतीकात्मक कहानी है, यदि आप जागृत नहीं हैं, तो आप अपना राज्य खो देते हैं।
राजा का बेटा पहाड़ों में बूढ़े गुरु के पास गया। उसने गुरु से कहा, "मुझे आपके शिष्य राजा ने भेजा है।"
गुरु बहुत बूढ़ा था, उसके पिता से भी बड़ा। उसने कहा, “मुझे वह आदमी याद है। वह वास्तव में एक प्रामाणिक साधक था। मुझे उम्मीद है कि तुम उसी गुण के, उसी प्रतिभा के, उसी समग्रता के, उसी तीव्रता के साबित होओगे।"
युवा राजकुमार ने कहा, "मैं सब कुछ करूँगा।"
गुरु ने कहा, "तो फिर आश्रम में सफाई शुरू करो। और एक बात याद रखना - कि मैं तुम्हें किसी भी समय मारूंगा। हो सकता है कि तुम फर्श साफ कर रहे हो और मैं पीछे से आकर तुम्हें अपनी छड़ी से मारूं, इसलिए सावधान रहना।"
उसने कहा, "लेकिन मैं जागृति के बारे में जानने आया हूं ..."
गुरु ने कहा, "इस तरह तुम सीखोगे।"
एक वर्ष बीत गया। शुरुआत में उसे हर दिन इतनी चोट मिल रही थी, लेकिन धीरे-धीरे उसे होश आने लगा। यहां तक कि बूढ़े आदमी के कदम भी... वह कुछ भी कर रहा होगा- काम में कितना ही मग्न क्यों न हो, उसे तुरंत पता चल जाएगा कि गुरु आसपास है।
अब राजकुमार बहुत सचेत था। एक वर्ष के बाद गुरु ने उसे पीछे से मारा, जब वह आश्रम के एक अन्य साधु से बात कर रहा था। लेकिन राजकुमार ने बात करना जारी रखा, और फिर भी उसने छड़ी को उसके शरीर तक पहुँचने से पहले ही पकड़ लिया।
गुरु ने कहा, "यह एकदम ठीक है। अब यह पहला पाठ समाप्त हुआ। दूसरा पाठ आज रात से शुरू हो रहा है।”
राजकुमार ने कहा, “मैं सोचता था कि बस इतना ही। यह केवल पहला पाठ है? कितने पाठ हैं?"
बूढ़े गुरु ने कहा, "यह तुम पर निर्भर करता है। दूसरा सबक यह है कि अब मैं तुम्हें तब मारूंगा जब तुम सो रहे हो, और तुम्हें नींद में सतर्क रहना होगा।"
उसने कहा, “हे भगवान। नींद में कोई कैसे जाग्रत हो सकता है?”
बूढ़े ने कहा, “चिंता मत करो। मेरे हजारों शिष्य परीक्षा में उत्तीर्ण हुए हैं। तुम्हारे पिता परीक्षा में उत्तीर्ण हुए हैं। यह असम्भव नहीं है। यह मुश्किल है, लेकिन यह एक चुनौती है।"
और उस रात से वह रात में छह बार, आठ बार, बारह बार वार कर रहा था। नींद मुश्किल थी। लेकिन छह महीने के अंदर ही उसे अपने भीतर एक खास तरह की जागरूकता का अहसास होने लगा। और एक दिन जब गुरु उसे मारने ही वाला था, तो उसने आंखें बंद करके कहा- “चिंता मत कीजिये। आप बहुत बूढ़े हैं। मुझे दुख होता है, आप इतनी परेशानी उठा रहे हैं। मैं युवा हूं, मैं इन चोटों से बच सकता हूं।”
गुरु ने कहा, "तुमने कर दिखाया। तुमने दूसरा पाठ पास कर लिया है। लेकिन अब तक मैं अपने लकड़ी के डंडे से मारता रहा हूं। तीसरा सबक यह है कि अब मैं कल सुबह से असली तलवार से वार करना शुरू करूंगा। सतर्क रहो! बस एक क्षण की मूर्च्छा और तुम समाप्त हो जाओगे।"
सुबह-सुबह गुरु बगीचे में बैठा था, बस पक्षियों को गाते हुए सुन रहा था... फूल खिलते थे, सूरज उगता था। राजकुमार ने सोचा, “अब यह खतरनाक होता जा रहा है! एक लकड़ी की छड़ी कठिन थी, लेकिन इससे मैं मरने वाला नही था। लेकिन एक असली तलवार…।" वह एक तलवारबाज था लेकिन उसे अपनी रक्षा का कोई मौका नहीं दिया जाने वाला था, केवल जागरूकता ही उसकी रक्षा करने वाली थी।
उसके मन में एक विचार आया, “यह बूढ़ा सचमुच खतरनाक है। इससे पहले कि वह अपना तीसरा पाठ शुरू करे, मैं यह जांचना चाहूंगा कि वह खुद तीसरी परीक्षा पास कर सकता है या नहीं। यदि वह मेरे जीवन को जोखिम में डाल रहा है, तो मैं उसे यह करने की अनुमति नहीं दे सकता जब तक कि वह स्वयं ही इसके योग्य न हो।" और ये केवल विचार थे जो वह अपने बिस्तर में लेटे हुए सोच रहा था। यह एक ठंडी सुबह थी।
और गुरु ने कहा, "अपने कंबल से बाहर आओ, मूर्ख! क्या तुम अपने ही गुरु को तलवार से मारना चाहते हो? .... अब तुम्हें शर्म महसूस हो रही है! मैं तुम्हारे विचारों की आहट सुन सकता हूं ... सोचना छोड़ दो।" उसने सब कुछ सुन लिया था, जबकि उसे कुछ नहीं कहा गया।
विचार भी चीजें हैं। विचार भी चलते-चलते आवाज करते हैं और जो पूरी तरह सजग हैं वे आपके विचारों को पढ़ सकते हैं। इससे पहले कि आप उनके बारे में जागरूक हों, वे उनके प्रति जागरूक हो सकते हैं।
राजकुमार सचमुच लज्जित हुआ। वह गुरु के चरणों में गिर पड़ा और उसने कहा, "बस मुझे माफ़ कर दो। मैं वास्तव में मूर्ख हूँ।"
यह एक तलवार का सवाल था, एक असली तलवार का, वह राजकुमार अपने आस-पास की हर चीज के बारे में जागृत हो गया, यहां तक कि अपनी सांस, अपने दिल की धड़कन भी। पत्तों के बीच से गुजरती एक छोटी सी हवा, हवा में हिलता हुआ एक मृत पत्ता, और वह सबके प्रति पूर्णत जागृत था। और गुरु ने कई बार कोशिश की लेकिन उसे हमेशा तैयार पाया। वह उसे तलवार से नहीं मार सकता था क्योंकि वह उसे अब बेहोश नहीं पाता था। वह पूर्णतः सजग था। यह मृत्यु का प्रश्न था - आप सजग रहने के अलावा और कुछ नहीं रख सकते।
तीन दिन के समय में गुरु को एक क्षण भी, एक भी मौका नहीं मिला। और तीसरे दिन के बाद उस ने उसे बुलाकर कहा, अब तू जाकर अपने पिता से कह, और यह मेरी चिट्ठी है कि राज्य तेरा है।
*जहां तुम्हें प्रेम करने का अवसर मिले, चूकना मत;* नहीं तो चूकने की आदत मजबूत हो जाती है। अगर ज्यादा चूकते रहे तो चूकना तुम्हारा ढंग हो जाता है। प्रेम का रास्ता तब असंभव है। और हम जगह-जगह चूकते हैं।
*प्रत्येक घड़ी को प्रेम की घड़ी बनाओ!* कोई प्रेम के लिए परमात्मा ही उतरेगा आकाश से तब तुम प्रेम करोगे! तो जिस दिन परमात्मा उतरेगा उस दिन पाओगे कि प्रेम करना तो तुम जानते ही नहीं। इसका अभ्यास करो!
जो मिल जाए, घड़ीभर का साथ हो जाए रास्ते पर किसी से, फिर तो रास्ते अलग हो जाएंगे, कोई गीत आता हो, गीत गुनगनाकर सुना दो! कुछ न आता हो, आंख तो तुम्हारे पास है, प्रेम से गीली आंख से उसे देख लो! तुम उसके सपनों के हिस्से हो जाओगे। वह तुम्हारी याद करेगा, लौट-लौटकर तुम्हारी याद करेगा। और जब-जब तुम्हारी याद करेगा, भीतर तुम्हारे प्राणों में भी अज्ञात तार कपेंगे क्योंकि हम सब जुडे हैं। हम अलग-अलग नहीं है।
*प्रेम को फैलाओ!*
प्रेम के संबंध में तुम बहुत कंजूस हो। लेकिन लोग समझते हैं, शायद यह कंजूसी बड़ी कीमत की है।
*- ओशो*
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