Tumgik
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_ _ _ 3 (26/03/2019)
डायरी के पन्नों से:
जाने क्यों कल रात से बरस रहा है ये उदास पानी इसकी बूंदें रिस-रिस कर पहुँच रही है मेरे दिल की गहराइयों तक और भिगो रही है मेरे अहसासों की जमीनी सतह को जहाँ दबा रखे हैं मैंने यादों के उन बीजों को जिन्हें मैं कहीं छिपा कर भूल जाना चाहता था लेकिन, रात भर भीगने की वजह से उन बीजों के अंकुर फुट आए हैं लो अब तो इन्होंने सूरज का उगता हुआ चेहरा भी देख लिया जो बीज अब तक बेजान से पड़े थे उनमें फिर से खिलने की ललक दिख रही है डरता हूँ कहीं ये फिर से न खिल न जाएँ और मेरे अहसासों की सतह को फिर हरा भरा न कर दें कैसे रोकूँ इन्हें फिर से अपने मन में जड़ें जमाने से इसी उधेड़बुन में सो न सका सारी रात और कोशिश करता रहा कि भिगो न पाए इन बीजों को ये बरसता उदास पानी ...
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_ _ _ 2 (24/03/2019)
रंग क्या है? किसी वस्तु के लाल, हरे, नीले या पीले होने का तथ्य या इंसानों की दृष्टि के दृष्टिकोण की सामान्य विशेषता? रंग की परिभाषा जो भी हो इसने हमेशा से इंसानों की नज़रों से ज्यादा उसके मन पर असर किया है। और इन्हीं रंगों को अपने जीवन में ढालने और मन को रंगीन और खुशनुमा बनाने के लिए मनाया जाता है रंगों का त्यौहार-होली।
होली- एक ऐसा पर्व जो हमें सिखाता है कि आपसी मनमुटाव को समाप्त कर जीवन को खुशियों के अनेकों रंग से भर लेना चाहिए। रंगों की खासियत भी यही है कि ये जीवन में नई उमंग और शाश्वत ऊर्जा का संचार करते हैं। ये रंग जब चेहरे पर लगते हैं तो इनकी छाप कहीं न कहीं हमारे मन में अंकित हो जाती है।
तकनीकी तौर पर देखा जाए तो दुनिया की किसी भी वस्तु का अपना निजी रंग है ही नहीं। धरती, पेड़-पौधे, हवा, पानी या कोई भी वस्तु रंगहीन है। रंगो का अगर एकमात्र स्त्रोत है-तो वह है प्रकाश। रंग प्रकाश का एक धर्म है। और प्रकाश का यह धर्म हमें त्याग सिखाता है। क्योंकि रंग वह नहीं है जो वह हमें दिखता  है, बल्कि वह है जो वो त्यागता है।
रात के अंधेरे में सब रंग और उनकी छटाएं खो जाती हैं । रंग के लिए प्रकाश का होना आवश्यक है । बिना प्रकाश के रंग की कल्पना भी नहीं की जा सकती। हम प्रकृति में जो भी रंग बिखेरते हैं वही हमारा रंग बन जाता है। जो हम हमारे पास रखते हैं वह कभी हमारा रंग नहीं बन सकता। ठीक इसी तरह से त्याग ही इंसान के गुणों को परिभाषित करता है। जो हम देंगे वही हमारा स्वभाव बन जाता है। यदि हम खुशियां बांटते हैं तो लोग कहेंगे कि हम एक आनंदित इंसान हैं। वैसे ही जैसे कोई वस्तु हमें उसी रंग की दिखती है जो रंग वह त्यागती है।
रंगों का संसार बड़ा विचित्र है। और प्रकृति ने इसके महत्त्व को बखूबी समझा है।  रंग हमारे जीवन के अभिन्न अंग हैं। इनसे जीवन में रूचि, विविधता और ताजगी बनी रहती है । बिना रंगों के तो जीवन नीरस और बेस्वाद हो जायेगा । हमारे आस-पास और वातावरण में रंगीन वस्तुएं जीवन को मोहक और सार्थक बनाती हैं। पशु पक्षी, वनस्पतियां सभी रंग में डूबे हुए-से लगते हैं। नीला आकाश, उगता हुआ लाल सूरज, सफ़ेद बादल और इनकी तरह प्रकृति में मौजूद हर एक वस्तु रंग बिखेरते हुए अपना धर्म निभा रही है। साथ में हमें भी अपना धर्म निभाने को प्रेरित कर रही हैं।  
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_ _ _ 1 (23/03/2019)
आज शाम की चाय पीते हुए मुझे अपने बचपन की यादों का साथ मिल गया। और मैं उनकी उंगली थामे निकल पड़ा उस बेफिक्री, बेपरवाह दुनिया में जहां न किसी बात का डर हुआ करता था न किसी की परवाह। शाम को स्कूल से लौटकर खाना खत्म करने की जल्दी थी ताकि खेलने के लिए ज्यादा समय मिल सके। घर से निकलते ही वो अल्हड़पन बाहर आ जाता था। ज़रा गलियों में नज़र दौड़ाई तो खुद को गलियों में कंचे लिए भैया के पीछे भागता हुआ पाया। थोड़ी देर बाद पतंग लिए हुड़दंग मचाते बच्चों के झुण्ड में तो एक बार के लिए खुद को पहचान ही नही पाया। अब शाम हो चली थी। खुद को और भैया को अपने कपड़े ठीक करते और बाल पर हाथ फेरते देख मैं हंसी रोक ही नही पाया। जब हमारी धूल मे सने कपड़े और हाथ पैर में लगी मिट्टी देखकर आई (मम्मी) को बिगड़ना ही था तो हम क्यों इतनी तकलीफ़ उठा रहे थे।
ये सब सोचते-सोचते मैं कब अपनी दादी के पास पहुंच गया पता ही नही चला। अब विचारों और यादों को राह थोड़ी ही न होती है। मेरी दादी अक्सर मेरे बालों पे हाथ फेरा करती थी और कुछ गुनगुनाती रहती थीं। मुझे उनका ऐसे मेरे सर पर हाथ फेरना अच्छा लगता था। मैं भी अपनी आँखें बन्द करके यूँ ही उनकी गोद में सर रखकर लेटा रहता था। वैसे तो वो हमेशा कुछ न कुछ गुनगुनाती रहती थीं लेकिन एक गीत मैंने अक्सर उन्हें गुनगुनाते हुए सुना था। वो गीत शायद उनके दिल के बेहद करीब था। तब तो मैं उस गीत को लोरी की तरह सुनकर उसका आनन्द लेता था। लेकिन जब थोड़ी समझ बढ़ी और फिर वो गीत सुना तो लगा कि ज़िन्दगी का फ़लसफा इससे बेहतर और इतनी सादगी से तो कहा या समझाया ही नही जा सकता। उस गीत की कुछ पंक्तियाँ मैं यहाँ लिख रहा हूँ :
अरे! संसार संसार, जसा तवा चुल्ह्यावर
आधी हाताला चटके तेव्हां मिळते भाकर !
ज़िन्दगी को बारीकी से परखती और इसकी तमाम पेचिदिगीयों को सरलता से व्यक्त करने मे सक्षम ये पंक्तियां खुद में सम्पूर्ण मानव जीवन का सार लिए हुए है।
इसका अर्थ है :
ये संसार किसी चूल्हे के ऊपर रखे तवे की भांति है। जिस प्रकार बिना हाथ जलाये तवे से रोटी निकालना कठिन है ठीक उसी प्रकार ज़िन्दगी की किसी भी परेशानी का सामना उससे डटकर ही किया जा सकता है। बिना उनसे लड़े कोई भी सफलता नहीं मिल सकती। यदि हमें सफल होना है तो कठिनाइयों से लड़ना ही पड़ेगा। और तभी असली मायने में हमें सफलता का आनन्द मिलेगा।
 हम अक्सर चीज़ों को टालना चाहते हैं। अपनी परेशानियों और कठिनाइयों से बचना चाहते हैं। और हम ऐसा सोचते हैं कि ऐसा करने से हमारी कठिनाइयां हमसे दूर हो जाएंगी। लेकिन खुद सोचें क्या कभी ऐसा हुआ है। नहीं न? बिना कठिनाइयों का सामना किये उनसे पार नही पाया जा सकता।
टालने से या नज़रअंदाज़ करने से वो कुछ समय के लिए हमारी आँखों से ओझल जरूर हो जाती हैं लेकिन कभी न कभी ये वापस जरूर आती हैं और हो सकता है तब ये और भी बड़ी हों।
इसलिए परेशानियों से दूर भागने के बजाय हमें चाहिए कि हम उनका डटकर सामना करें। ज़िन्दगी हमें कई चुनौतियां देती है। हमें हर मोड़ पर परखती है। अगर हम अपनी छोटी छोटी मुश्किलों को हराते चलें तो आगे आने वाली बड़ी से बड़ी चुनौतियां भी हमारे आगे घुटने टेक देंगी। इतनी बड़ी बात इन दो पंक्तियों में क्या खूब कही है।
शायद ज़िन्दगी के इसी मायने को मुझे समझाने के लिए दादी अक्सर इसे गुनगुनाया करती थीं।
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