मैं अपनी भाषा में आज-कल कुछ भी नहीं कह पाती हूँ। फोन पर हिंदी लिखनी आती नहीं, और हाथों से लि खना मैं अपने बचपन में कहीं छोड़ आई। जिन लेखकों को मैं स्कूल में पढ़ा करती थी, वे शुद्ध हिंदी लिखा करते थे। मैने उनके जैसा लिखना चाहा तो अपना सच न लिख पाई। कैसे कहूँ स्कूल, सेलफोन, वाई-फाई, जी-पी-ए, नेटवर्क, टैक्स, ट्रेन, शुद्ध हिंदी में? रेलगाड़ी बोलने में क्यों शरम आती है? मेरी हिंदी उन बुज़ुर्ग साहित्यकारों की हिंदी से बहुत अलग है। उनकी हिंदी मेरी कहानियाँ नहीं सुनाती है। मेरे भावों को नहीं समझ पाती है। कौन लिख रहा है पी-सी-ओ-एस के बारे में, जिसके न पी, न सी, न ओ, न एस की हिंदी मुझे आती है? कौन लिख रहा है क्रोनिक इलनेस, ऐंज़ाइटी, डिप्रेशन के बारे में? एल-जी-बी-टी-क्यू के बारे में? बिन अंग्रेज़ी के कैसे समझाऊँ? ज़िंदगी ईश्वर और प्रकृति और स्वतंत्रता संग्राम से बहुत आगे निकल चुकी है। चाहकर भी मैं अपनी भाषा का उस तरह प्रयोग नहीं कर सकती, जिस तरह अंग्रेज़ी का कर सकती हूँ। प्रयोग चुनूँ या इस्तेमाल? पढ़ने वाली हिंदी और बोलने वाली हिंदी बहुत अलग होतीं हैं। बोलने वाली लिख दी, तो गँवार हो गई। लिखने वाली बोल दी, तो इठलाने लगी। नहीं बनना चाहती हूँ अंग्रेज़। लेकिन अब हो जाना पड़ा है। झेलो।
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