Tumgik
#काव्यस्यात्मा
kaminimohan · 5 days
Text
Free tree speak काव्यस्यात्मा 1425
वो आईं है सामने
- कामिनी मोहन।
Tumblr media
खिड़की से आते मनोदशाओं के
अनगिन पैकेट
जुड़कर एक तस्वीर बनाते हैं
जंगल की आग से निकलता धुआँ
आकाश को चिढ़ाते हैं
कुछ कोमल कुछ तरल
जैसे ओस में भीगी हुई
ज़रा-सी लचकती
जलते अनुभवों से यथार्थ के तिनके
उड़ान भर आते हैं
वो जो दिन की भूख
रात थक कर सो गई थी
फिर जाने क्या-क्या बात हुई थी
जाने क्या-कुछ घात हुई थी
अमिट घाव के निशान देख आते हैं
आत्मा के कपड़े पहनकर
वो आईं है सामने
सिर्फ़ भूख और दुख नहीं
देह की कुछ तस्वीरें लाईं है
ढूँढ़ रहा हूँ उस बात को
जो ख़ाली कैनवस भर आईं है
नदियाँ सूख जाती है
लेकिन किनारे नहीं मिटा करते हैं
जब तरलता के सारे रास्ते ख़त्म हो जाते हैं
तब सिर्फ़ धूल उड़ा करती हैं
अधिकांश प्रेम कविताएँ इस धूल में
मिलकर यहाॅं से वहाँ न जाने कहाँ-कहाँ
आवारा सड़कों पर चलती रहती हैं।
-© कामिनी मोहन पाण्डेय।
2 notes · View notes
kaminimohan · 1 month
Text
Free tree speak काव्यस्यात्मा 1423.
साथ
-© कामिनी मोहन पाण्डेय।
Tumblr media
स्पर्श पानी-सा था
अनंत युगों के सापेक्ष
दिन की स्मृति और
अंर्तमन की रात लिए
इंतज़ार के सिलसिले
दर-ब-दर की प्यास
रोज़ एक अहसास
लेकर गुज़रता, क़ाफ़िला
फिर-फिर बस्तियाँ पास लिए
आख़िरी ज़िद्द तक
उपमाएँ ढूँढ़ता आदमक़द
आकांक्षाओं के क़रीब
तकलीफ़ में बोलता
सिर्फ़ खोया हुआ साथ लिए।
-© कामिनी मोहन।
2 notes · View notes
kaminimohan · 1 month
Text
Free tree speak काव्यस्यात्मा 1422.
छोटी-सी ख़बर
-© कामिनी मोहन।
Tumblr media
छोटी-सी ख़बर बड़ी बनती रही
कानों-कान ख़बर फैलती रही
वक़्त से माक़ूल मुलाक़ात होती रही
कभी दिन, कभी रात सोती रही
सागर-संगम के चारों ओर फैले तट तक
पानी पर आग जलती और बुझती रही
वो अनजाने अनगिन चेहरे आते जाते रहे
आग जो सीने में लगी थीं
वो आँखों के कंबल से ढापती रही
यूँ ही पुरख़ुलूस चलते-चलते
ख़त्म होते अतीत को
रोके बग़ैर
जहाँ-जहाँ चूकते रहे
ग़लत वक़्त को भी
सही वक़्त समझते रहे
अभिनय नाज़ुक ख़्वाबों के
ज़्यादा धोखेबाज़ रहे
ख़ुशी या कि दुःख की फांस
ज़िंदगी के भीड़तंत्र से लिपटे रहे
कविता से पहले
बेसाख़्ता ज़ार ज़ार रोए फिर भी
पहली बार जिससे थे मिले
उसी को ढूँढ़ने
सामने वाले दरवाज़े तक चलते हुए
कविता के ख़ाली कैनवस को भरते रहे।
-© कामिनी मोहन पाण्डेय।
2 notes · View notes
kaminimohan · 2 months
Text
Free tree speak काव्यस्यात्मा 1421.
लिफ़ाफ़े में बंद आमंत्रण
-© कामिनी मोहन।
Tumblr media
अनायास ही न चाहने पर भी
हर आमंत्रण स्वीकार कर लेता हूँ
यह खींच लेती है अपनी ओर
वो अनगिन अनछुई कलाएँ
जो लिफ़ाफ़े में बंद है
पड़ी रहेंगी, टेबल पर अपनी तिथि तक
खुले रहेंगे
उसके दरवाज़े
टुकड़ों में कटे दृश्य को जोड़े जाने तक।
अजीब भावनाओं के गंध समेटे
पेट और भूख के बीच
नज़रे रोटियाँ सेकती हैं
कभी फ़ायदा कभी नुक़सान देखती हैं
तलाश कभी पूरी नहीं होती है
फिर भी
सुंदर आँखें फाड़-फाड़कर देखती हैं
उन्हें नहीं पता,
ख़ूबसूरती अपनी पूरी उम्र लेकर आती है
जैसे हवा में ख़ुशबू पूरी नहीं घुलती
वेसे ही प्रेम की भाषाएँ  कहीं नहीं मिलती हैं
ये  फ़िल्म के पर्दे पर
चलने वाले लिखित संवाद की तरह
दृश्य और श्रव्य की मांग करती है।
कँटीले रास्ते
उड़ते धूल गुबार
गूढ़ रहस्य हर भूल स्वीकार कर लेती हैं
छलनी संवेदना के
नज़रअंदाज़ तिरस्कार छू लेती हैं
अपार प्रेम की यात्रा के स्मारकों के बीच
शताब्दियों का जीवन अनुराग बुनते हुए
ये केवल कविता की मांग करती है।
-© कामिनी मोहन पाण्डेय।
2 notes · View notes
kaminimohan · 4 months
Text
Free tree speak काव्यस्यात्मा 1419.
एक तितली की तरह
-© कामिनी मोहन।
Tumblr media Tumblr media
जो हैं सुशोभित 
हैं निकट एक चट्टान के
निकट रहेंगे हमेशा
उज्ज्वल तन संसार के
आनंद की आग में जल जाएँगे
फ़र्क नहीं कि वक़्त निगल कर
किधर ले जाएँगे।
जुनून और पागल कर देने वाली भूख की तरह
रचित पांडुलिपियाँ अथाह शून्य में बिखराएँगे
जैसे एक पेंटिंग बनाने में
लग गए हो कई साल
उन रंग भरे शब्दों के
कविताओं की सूचियाँ बनाएँगे।
कहीं आधे अंधेरे और उजाले के बीच
कहीं आधे और पूरे शब्दों के बीच
कहीं कठोरता और कोमलता के बीच
कहीं आराधना और साधना ​​के बीच
कहीं उदासीनता और प्यार के बीच
काँपता हुआ दिल ठहरेगा
मिलने की निश्चिंतता के बीच
हम एक अवर्णनीय गंध फैलाएँगे।
जैसे आकाश में तारे
अपना रहस्य छिपाते चमकते रहते हैं
हवाएँ समय का ताना-बाना बुनती रहती हैं
लहरें पृथ्वी की उज्ज्वल
अंधेरी भूमि पर घूमती रहती हैं
जब ख़ालीपन हमेशा रहता है
तब प्रेम के प्रभामंडल को पहनकर
हम पूर्णता में हास्य लेकर आएँगे।
भ्रम की भ्रामक दुनिया में
एक तेज़ है
सब उज्ज्वल है
हम जिज्ञासा में
एक तितली की तरह
तैरते जाएँगे
मौत की आशंका और आतंक से भरी हुई
रक्त से सनी धरती पर
उगने वाले फूलों को झड़ने से बचाएँगे।
-© कामिनी मोहन ।
2 notes · View notes
kaminimohan · 4 months
Text
Free tree speak काव्यस्यात्मा 1417.
प्रेम के अभयारण्य का आकलन
- © कामिनी मोहन।
Tumblr media
सुनहरे सूरज के सत्कार के
नक्षत्रों के आकार के
प्रेम का कालातीत अभयारण्य है
निर्मित क्षितिज पर
कार्य की ख़ामियाँ है
और पूर्णता है।
त्वचा की कोमलता
सर से पाँव तक
वैसी नहीं हैं जैसी लगती हैं
आचानक
देह अंतरिक्ष के विस्तार में
अमानक एक गहन सत्य
हावी होता है
जिसकी चाह है
ज़रूरत है
विशेष स्थान का दावा
प्रेम को प्रतिस्थापित करती है।
एक दूसरे के बीच के अंतर को
पाना और छोड़ना बहुत मुश्किल है
भक्ति की नहीं, ज्ञान की नहीं,
इच्छा और कर्म की भी नहीं
अपने आप को पाकर
हर किसी को पाना मुश्किल है।
जैसे तूफ़ान के बाद सब उजड़ जाता है
केवल घास ही बचती है
फिर मजबूती का आकलन कैसे करे
वो जो ताक़त के साथ खड़ा था
या वो जो नरम होकर भी
तूफ़ान के सामने खड़ा था।
-© कामिनी मोहन पाण्डेय
2 notes · View notes
kaminimohan · 4 months
Text
Free tree speak काव्यस्यात्मा 1417.
किसी को कहीं छोड़ कर आना
-© कामिनी मोहन।
Tumblr media
किसी को कहीं छोड़ कर आना
इतना सरल नहीं होता है
इस कठिनाई में छूट जाता है
एक गुज़रा हुआ अतीत
मैंने छोड़ा था, तुम्हें वहाँ
जहाँ से सारे सहारे अलग हो जाते हैं
अकेले कमरे में सिसकता हुआ रुदन
एक भय एक अपनेपन की कमी के साथ
बिल्कुल अकेले।
प्रेम और मोह का अंतर स्पष्ट नहीं
दुख है या कुछ और इसकी समझ नहीं
पूरे दिन की यात्रा और चुप्पी
आँसू को पीकर शांत
बस यूँ ही वापस होता रहा
दिन भर का सफ़र ख़त्म होता रहा
चुप्पी ख़त्म, बाँध रिसता रहा।
डबडबाती हुई स्मृतियाँ
और फफक कर बरसती सिसकियाँ
कविता रचती रही
एक उम्र जो मैंने बिताए थे
उसे आगे बढ़ाने की ललक में
आज तुम्हें अपने से दूर छोड़ कर चले आए थे।
शायद यही नियति है
पाँव पर खड़े होने की विनती है
जिस रास्ते से तुम्हें छोड़कर आए थे
वो रास्ते अभी भी लौटकर वापस नहीं आए है
तलाश है, उन्हें प्राण के प्रवाह की
टकटकी लगाए प्रेम के आस की
दर्पण की तरह देखने की।
ख़ंजर-सी चुभन है प्रेम की
कोई तृष्णा नहीं
चलते हुए
ढूँढ़ती हैं सड़के
भारी होते मन को
रोकती नहीं
पर देखती हैं सड़के।
दरवाज़े की ड्योढ़ी के दोनों तरफ
चलने को अभिशप्त तन को
यक़ीन है
इल्ज़ाम रहेगा मुझ पर
अफ़सोस न कहने का रहेगा मुझ पर।
रोज़ प्रेम की पुनर्व्याख्या को
आने और जाने वाले नज़्मों की आख्या को
अतिरेक से उकेरे शक्ल की व्याख्या को
भला यहाँ पढ़ सका कौन है
अरचित दुख की लिपि है
हर युग में जो अव्यक्त
अदृश्य रह सका वो मौन है।
-© कामिनी मोहन पाण्डेय।
kaminimohan
2 notes · View notes
kaminimohan · 4 months
Text
Free tree speak काव्यस्यात्मा 1416.
जग ज़ाहिर है क़िस्सा
-© कामिनी मोहन।
Tumblr media
तलाश करते हैं सभी
उस चीज़ की जो सामने आए।
कभी हार तो कभी जीत के
मायने लाए।
उनसे ये हो जाए
हमसे ये हो जाए।
ज़माने की हवा
चाहे इधर से उधर जाए
बस अस्तित्व को अस्तित्व मिल जाए।
फ़र्क नहीं पड़ता कि हम कहाँ जाए
एक-दूसरे से कितने पास कितने दूर जाए।
जानता हूँ
एक दूसरे को पाएँगे
क्योंकि
सब जोड़-घटाकर
नियति मेरे ही सामने लाए।
भले ही ख़ुद के ख़िलाफ चलने में
पथरीली राहों को सूना छोड़ने में
मुश्किले आए।
पर जो कर रहे
उस पर विश्वास तो अडिग आए।
मर्ज़ी हमारी, हमारी ही रही
ग़फ़लत कहाँ से हाथ आए।
जो जग ज़ाहिर है क़िस्सा
उससे बे-ख़बर किधर जाए।
-© कामिनी मोहन पाण्डेय।
2 notes · View notes
kaminimohan · 5 months
Text
Free tree speak काव्यस्यात्मा 1415
प्रेम की गति
- © कामिनी मोहन।
Tumblr media
देखने में बादल कितने नरम
उड़ने में सक्षम
धरती से बँधे हुए
पर चलने में सक्षम
इनकार नहीं इकरार करते हुए
गहराई से सोचते
जीवन के अहसास में डूबे हुए
वो दर्द जो महसूस होगा
डरावना या सुखद होगा
चीख़ते-चिल्लाते मुस्कराते हुए
मदद माँगते हुए
बहते गर्म ख़ून की पहचान
सितारों के ऊपर नीचे ज़मीन पर
जिन्होंने अपनी आत्मा के अंधेरे को
हराने का साहस पाया है
जिन्हें गहरे भय की गहराई से
जागना और उठना आया है
जैसे ज्ञान और शक्ति के साथ पुनर्जन्म पाया हो
जैसे एक रोशनी के साथ उज्ज्वल कर्म लाया हो
अंधेरे से बाहर निकलने में सब अर्पण कर आया हो
उस यक़ीन की तरह
जिसके भरोसे सब है
मैं भी उसके भरोसे हूँ
मुक़म्मल तरीके से
हमेशा एक-दूसरे से दूर हूँ
भरोसा होना नियति है
यह प्रेम की गति है।
-© कामिनी मोहन।
2 notes · View notes
kaminimohan · 5 months
Text
Free tree speak काव्यस्यात्मा 1414
आत्मिक और नैतिक चेष्टा का बिम्ब
- © कामिनी मोहन।
Tumblr media
कला स्वभाव से जन्मी एक नियमबद्ध अनुकृति है।
यह सदैव मनुष्यकृत नियमों का समर्थन करती है
और प्रकृति के सौन्दर्यात्मक पक्ष के
सद्व्यवहार का अनुकरण करती है।
जीवन से कृत्रिमता को निकाल दिया जाय
तो जो दृश्य रूप-रंग शोभायमान होता है,
वह स्वत:स्फूर्त कला है।
कला ही जीवनाशक्ति का परभृत प्रतिबिंब है।
यह मूलतः एक आत्मिक और नैतिक चेष्टा का
बिम्ब है।
2 notes · View notes
kaminimohan · 6 months
Text
Free tree speak काव्यस्यात्मा 1412.
अंधकार देह में प्रकाश हूँ
Tumblr media
अंधकार देह में प्रकाश हूँ
असत्य में सत्य विशेष हूँ।
मृत्यु में अनंत अमरता लिए
मैं अपरिशेष नि:शेष हूँ।
- © कामिनी मोहन पाण्डेय।
5 notes · View notes
kaminimohan · 9 months
Text
Free tree speak काव्यस्यात्मा 1395.
Deh ka sanskaran
देह का संस्करण - कामिनी मोहन।
Tumblr media
विशाल महासागर में
डूबता-उभरता मन हूँ।
अनंत ब्रह्माण्ड के भीतर
अन्फ़ास से भरा गतिमान तन हूँ।
नई दुनिया के मंच पर खेलते हुए
अँधेरे-उजाले की चित्रित प्रक्रिया हूँ।
चाहे शांत, अज्ञात रात हो
एक समग्र सुबह की संक्रिया हूँ।
अविश्वास के दूसरी तरफ़ खड़ा मैं
एक और भोर लिए इंतज़ार करता हूँ।
अहंकारवाद की कविता में अलिप्त
देह का संस्करण प्रकाशित करता हूँ।
-© कामिनी मोहन पाण्डेय।
5 notes · View notes
kaminimohan · 7 months
Text
Free tree speak काव्यस्यात्मा 1411
अग्निपरीक्षा
-© कामिनी मोहन
Tumblr media
ज़िंदगी एक नियमबद्ध अंतराल में
चलने वाली फ़िल्म है
इसमें मनुष्य सबसे अच्छे
और बुरे रूप में दिखता है
बदसूरती और सुंदरता का चेहरा उतरता है
अचानक अंत के साथ
अभिनेता अनभिव्यक्त हो जाता है
ब्लैकबोर्ड पर उंगलियों के
हल्क़े दबाव से
टूटते चाॅक की तरह बिखर जाता है
आगे जुड़ाव के लिए कोई स्क्रिप्ट नहीं है
कैमरे के पीछे कोई निर्देशक भी नहीं है।
पर्दे पर आयु का ज़िक्र है
अंधेरा सिर्फ़ इंतज़ार का चित्र है
जैसे सूखे गुलाब के गुलदस्ते की तरह
दुःख सिकुड़ कर झड़ जाता है
जैसे पूर्ण आकाश मुट्ठी में क़ैद रहता है
और हथेली आश्रय पकड़ नहीं पाता है।
बस पुनरुत्थान की प्रतीक्षा है
अपनी राख से उठकर
आकाश की तरह
हर तरफ़ लौटने की
हर किसी की इच्छा है
हवा का स्वाद लेकर
जीवन की समयरेखा पर एक ही बार में
शाश्वत तारे की तरह
ब्रह्माण्ड के पतन के बाद भी
एक संकेत में
साहस और ईमानदारी के साथ
आँखों से सब छू लेने की अग्निपरीक्षा है।
-© कामिनी मोहन
5 notes · View notes
kaminimohan · 7 months
Text
Free tree speak काव्यस्यात्मा 1409.
टूट कर गिरे
-© कामिनी मोहन
Tumblr media
टूट कर गिरे
पक्षी के पंख की तान,
शांत है, उज्ज्वल है
है उड़ना नहीं आसान।
बहुत अधिक नीरस
जिसमें हवा की हैं खींचतान,
प्रस्थान के लिए
है खाली स्थान।
हर किसी के साथ है
पर चाहत है कि
कर सके दर्द आसान,
ख़ुद को दूर करने
का ढूँढते रास्ता अनजान।
और अकेले चलकर
नहीं पता कि कहाँ है जाना
है सब अनजान,
बहुत लंबे समय तक
चलना नहीं आसान।
किसी और की आग का असर नहीं
अस्तित्व पहनना चाहता इंसान,
निस्संग प्रेम की पहचान में
एक अवसर छिपा महान।
-© कामिनी मोहन पाण्डेय।
2 notes · View notes
kaminimohan · 7 months
Text
Free tree speak काव्यस्यात्मा 1408.
स्पष्टता उत्तर नहीं देती
-© कामिनी मोहन।
Tumblr media
हवा चली जाती है फिर
कुछ दूर जाकर लौट आती है।
आकाश खाली हो चुका है
उड़ते हुए बादल भी ठहर गए हैं
जो अलग थे, अब जुड़ गए हैं
हम एक साथ बैठते हैं
ये धरती, आकाश और मैं
तब तक, जब तक
इस देह में रहने वाली
सूक्ष्म आत्मा भी अंतस् में
शांत होकर ठहर नहीं जाती है।
यह पहचान है प्रेम का
दूसरे में ख़ुद के
प्रेम को पहचान लेने का
स्पष्टता इसका उत्तर नहीं देती
यह सवालों को ख़त्म कर देती है।
ठीक वैसे ही जैसे चुपचाप
मौन धारण किए
एक फूल खिल जाता है
और फिर मौन में ही
झड़ कर दूर हो जाता है।
-© कामिनी मोहन पाण्डेय।
kaminimohan
2 notes · View notes
kaminimohan · 7 months
Text
Free tree speak काव्यस्यात्मा 1407.
कौन क्या गा रहा है
- कामिनी मोहन।
Tumblr media
कौन क्या गा रहा है
व्यंग्य है या कुछ यूँ ही गुनगुना रहा है
सुनना हैं या नहीं
महसूस करना है या नहीं
या फिर कुछ बेहतर को जगह देने के लिए
कुछ ख़ाली स्थान बना रहा है।
भरा हो या कि ख़ाली
दोनों को एक-सा नहीं कर पा रहा है
हमेशा सही क्या है
और ऐसा बहुत कुछ क्या है
चीज़ें हैं, नशा और जुनून है 
तो फिर कहाँ हार मान लेना चाह रहा हैं
नहीं, सारी परिस्थितियाँ 
आँसू की तरह बहाता जा रहा है
जिनके आ जाने के बाद 
रोक न पाने पर 
बस चेहरे से हटाता जा रहा है। 
-© कामिनी मोहन पाण्डेय।
2 notes · View notes