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प्रकाश गुप्ता "हमसफ़र" की ग्यारह प्रतिनिधि कविताएं
प्रकाश गुप्ता “हमसफ़र” की ग्यारह प्रतिनिधि कविताएं
मेरी प्रतिनिधि कविताएं -प्रकाश गुप्ता “हमसफ़र” प्रकाश गुप्ता “हमसफ़र” प्रकाश गुप्ता “हमसफ़र” की ग्यारह प्रतिनिधि कविताएं 1.आशीर्वचन जा! ….तेरे गीत इतने मारक होंकि विश्वरूपी आँगन परमुखरित हो उठेंतेरा आन्दोलित स्वरघोर कालिमामयीरात्रि के …सन्नाटों को भेदकरहृदयों को जागृत कर देतेरा प्रबल विश्वाससिन्धु की …तेज गर्जनाओं से भीटकरा उठेऔर ….तेरे स्वप्न …इतने विशाल होंकि समस्त दिशाओं मेंस्नेह रुपी ….फूल…
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ashislenka · 4 years
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गोस्वामी तुलसीदास जी के महिमान्वित व्यक्तित्व और गरिमान्वित साधना को ज्योतित करने वाली एक और घटना का उल्लेख मूल गोसाईं चरित में किया गया है। तुलसीदास नंददास से मिलने बृंदावन पहुंचे। नंददास उन्हें कृष्ण मंदिर में ले गए। तुलसीदास अपने आराध्य के अनन्य भक्त थे। तुलसीदास राम और कृष्ण की तात्त्विक एकता स्वीकार करते हुए भी राम-रुप श्यामघन पर मोहित होने वाले चातक थे। अतः घनश्याम कृष्ण के समक्ष नतमस्तक कैसे होते। उनका भाव-विभोर कवि का कण्ठ मुखर हो उठा - कहा कहौं छवि आज की, भले बने हो नाथ । तुलसी मस्तक तब नवै, जब धनुष बान लो हाथ ।। इस दोहे में तुलसीदास जी कह रहे हैं कि हे नाथ आपकी जो छवि मैं आज देख रहा हूँ वह बहुत सुंदर है और इसकी सुंदरता का वर्णन नहीं किया जा सकता -परन्तु मेरा मस्तक आपके समक्ष तभी झुकेगा जब आपके हाथ में धनुष-बाण होगा (अर्थात श्रीराम) इतिहास साक्षी दे या नहीं दे, किन्तु लोक-श्रुति साक्षी देती है कि कृष्ण की मूर्ति राम की मूर्ति में बदल गई थी। सचमुच बहुत ही अनोखी है भक्त और भगवान की महिमा। (चित्र साभार इंटरनेट ) 🚩जय श्री कृष्णा 🚩 🚩जय श्रीराम🚩 🚩जय श्री हरि 🚩 https://www.instagram.com/p/CBPRREUpcsr/?igshid=fr0iu8beezsc
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duniyakelog · 4 years
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मेघन मैककेन को कोरोनोवायरस के दौरान पहले बच्चे के पीड़ित होने और गर्भपात होने के बाद की उम्मीद होगी
मेघन मैककेन के रास्ते में एक बच्चा है - और यह एक और बड़े बदलाव का कारण बन रहा है।
एबीसी के द व्यू , 35 के सह-मेजबान ने रविवार को घोषणा की कि वह और रूढ़िवादी लेखक पति बेन डॉमेनेच को "यह पता लगाने के लिए धन्य है" कि वह एक बच्चे की उम्मीद कर रही है।
"हालांकि यह नहीं है कि मैंने अपनी गर्भावस्था की घोषणा कैसे की, हम और हमारे परिवार आप सभी के साथ समाचार साझा करने के लिए उत्साहित हैं," उसने एक सोशल मीडिया पोस्ट में लिखा ।
मैक्केन ने यह भी कहा है कि वह उपग्रह द्वारा उसे देखें रूप से सामने आए शुरू करेंगे और "जो स्वयं को अलग करने के लिए एहतियात के COVID -19 के प्रसार को रोकने के रूप में कर रहे हैं लाखों अमेरिकियों में शामिल होने।"
रविवार को अपने सोशल मीडिया पोस्ट में, मैककेन ने लिखा कि उसने "मेरे डॉक्टरों से परामर्श किया और उन्होंने मुझे सलाह दी कि हमारे बच्चे और खुद की सुरक्षा के लिए, हम उन लोगों की मात्रा को सीमित करने के लिए अतिरिक्त सतर्क रहें, जिनके साथ हम संपर्क में आते हैं।"
उनके करीबी एक सूत्र ने लोगों को बताया: “वह और उसका परिवार इस खबर से बहुत उत्साहित हैं। लेकिन अभी, वह द व्यू में अपनी भूमिका में ताकत पा रही है। वह जानती है कि उसकी सबसे महत्वपूर्ण जिम्मेदारी अमेरिकियों को घर पर रहने और कोरोनावायरस के प्रसार को कम करने के लिए सूचित करना है। ”
मैककेन "सामाजिक गड़बड़ी" के महत्व के बारे में ऑनलाइन मुखर रहा है, जो स्वास्थ्य अधिकारियों का कहना है कि एक महत्वपूर्ण बात यह है कि जनता सभाओं से बचने और यथासंभव घर पर रहने से संक्रमण को धीमा कर सकती है।
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"मैं भाग्यशाली हूं कि मेरे नियोक्ता, एबीसी, ने मुझे और मेरे सह-मेजबान को दूर से काम करने की अनुमति दी है," उसने रविवार को लिखा था। “मैं हमारे उत्पादकों और चालक दल का ऋणी हूं। मैं नायकों, डॉक्टरों, नर्सों, किराने और फार्मेसी कर्मचारियों, पत्रकारों, पुलिस अधिकारियों, फायरमैन और सेना को भी स्वीकार करना चाहता हूं - जो इस लड़ाई की अग्रिम पंक्ति में हैं। ”
"कृपया सुरक्षित रहें," उसने कहा। "अपने हाथ धो लो और सार्वजनिक समारोहों से बचें और मैं आपको हर सुबह द व्यू पर देख���ा रहूंगा।"
मैककैन के द न्यू यॉर्क टाइम्स के लिए एक ऑप-एड लिखे जाने के लगभग आठ महीने बाद उनकी गर्भावस्था की खबर आई, जिसमें उन्होंने खुलासा किया कि उन्हें गर्भपात का सामना करना पड़ा । "एक संक्षिप्त क्षण के लिए, मुझे मातृत्व की बहन में खुद को देखने का सौभाग्य मिला," उसने अपनी बच्ची के बारे में लिखा। “मेरा गर्भपात हो गया था। मैं अपने बच्चे से प्यार करती थी, और मैं हमेशा करूंगी। अपने दिनों के अंत तक मैं इस बच्चे को याद रखूंगा - और जो भी बच्चे आएंगे, वे इसे अस्पष्ट नहीं करेंगे। ”
नवंबर 2017 में 38 साल के डोमेनेक की हत्या करने वाले मैक्केन ने तब लिखा था, “मुझे अपने बच्चे से प्यार है। मुझे उन सभी महिलाओं से प्यार है, जो मेरी तरह, मातृत्व के भाईचारे में, आशा, प्रार्थना और हमारे भीतर खुशी से भरी थीं, जब तक कि दिन खत्म नहीं हो गया। ”
उसने बच्चों के दबाव के बारे में पहले भी मजाक में बात की है, खासकर माँ सिंडी मैक्केन से ।
संबंधित: मेघन मैक्केन की रोमांटिक वेस्टर्न-थीम्ड वेडिंग की पहली तस्वीर देखें
"मेघन ने जून 2018 में PEOPLE को बताया ," उसने मुझसे पहले कभी नहीं पूछा और फिर अचानक वह उसे हर समय ले आई। " "यह प्रफुल्लित करने वाला और असहज है।"
मेघन ने यह भी कहा कि वह अपने बच्चे के लिए एक आदर्श बनने की उम्मीद करती है, ठीक उसी तरह जैसे उसके अपने माता-पिता उसके लिए थे। संयुक्त राज्य के सीनेटर के रूप में सेवा करने और राष्ट्रपति के लिए दौड़ने के बीच, मेघन ने कहा कि उनके दिवंगत पिता, जॉन मैककेन ने प्रभावशाली ढंग से अपने जीवन में एक वर्तमान और सकारात्मक प्रभाव पाया।
उन्होंने कहा, "उन्होंने इस तरह के अच्छे पिता होने का श्रेय दिया। अगर मेरे कभी बच्चे हैं, तो मैं यह पता लगाना चाहता हूं कि उसने यह कैसे किया, ”उसने राजनेता के बारे में कहा, जिसका अगस्त 2018 में निधन हो गया । "मेरी माँ वास्तव में हमारे परिवार की मातृभूमि हैं और सभी को समझदार रखा है।"
संबंधित वीडियो: देखें मेघन मैककेन संलग्न है
सेन मैक्केन अपनी बेटी की शादी का एक बड़ा हिस्सा थे। दुल्हन के लिए एक प्रतिनिधि ने एक विशेष बयान में PEOPLE को बताया कि वह मेघन से गलियारे से पहले चली गई थी और वह और डोमेनेच जॉन डिकर्सन से शादी कर रहे थे।
इस जोड़ी ने अपने उत्सव को आगे बढ़ाया और सेन मैककेन के चार महीने बाद गाँठ बाँध दी। उन्होंने बताया कि वह ग्लियोब्लास्टोमा से जूझ रहे थे , जो मस्तिष्क कैंसर का एक आक्रामक रूप था।
द न्यूपियल्स में करीब 100 मेहमान थे, जिनमें 2000 और 2008 में सेन मैक्केन के दो राष्ट्रपति अभियानों पर काम करने वाले करीबी दोस्त, परिवार और पूर्व सहयोगी शामिल थे।
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1 साल कल के बच्चे से शादी की, मुझे विश्वास नहीं हो रहा कि यह एक साल हो गया है मेरी सवारी या एक दिन से मर जाते हैं। स्वर्गीय कवि जॉनी कैश के शब्दों में - हम आग की एक जलती हुई अंगूठी में गिर गए। मेरा महान प्यार, मेरा सबसे अच्छा दोस्त, मेरा सच्चा साथी, तूफान से मेरा आश्रय। मैं तुम्हारे बिना यह पिछले साल नहीं बची होगी। हमेशा मेरे साथ दुनिया को साथ ले जाने के लिए धन्यवाद - बोनी और क्लाइड हमेशा के लिए। मैं तुम्हें अपने पूरे दिल बेन @btdomenech के साथ प्यार करता हूँ
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मेघन मैककेन (@meaganmccain) द्वारा 20 नवंबर, 2018 को शाम 5:58 बजे पीएसटी पर साझा की गई एक पोस्ट
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संबंधित: मेघन मैककेन ने अपने बच्चे के लिए भाई जिमी को बधाई दी: "आई एम गोना बी ए आंटी अगेन!"
नवंबर 2018 में, मेघन ने अपनी शादी के पहले साल को बड़े दिन से स्नैपशॉट के संग्रह के साथ चिह्नित किया।
"मैंने कल बच्चे की शादी की, मुझे विश्वास नहीं हो रहा है कि यह एक साल हो गया है।" मेरी सवारी या एक दिन से मर जाते हैं। स्वर्गीय कवि जॉनी कैश के शब्दों में - हम आग की एक जलती हुई अंगूठी में गिर गए, ”उसने छवियों को कैद किया ।
“मेरा महान प्रेम, मेरा सबसे अच्छा दोस्त, मेरा सच्चा साथी, तूफान से मेरा आश्रय। मैं तुम्हारे बिना पिछले साल नहीं बची, ”मेघन ने अपने पिता की मृत्यु के संदर्भ में लिखा था।
उन्होंने लिखा, "हमेशा मेरे साथ दुनिया के लिए धन्यवाद - बोनी और क्लाइड हमेशा के लिए।" "मैं तुम्हें अपने पूरे दिल बेन के साथ प्यार करता हूँ।"
• ADAM CARLSON द्वारा रिपोर्टिंग
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‘आ अब लौट चलें’ में मुकेश
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लेखक श्री राजीव श्रीवास्तव 
कोई गीत ‘आह् वान’ का स्वर लिए, किस प्रकार प्रभावी रूप से मारक क्षमता की उच्च तीव्रता को समेटे, सामूहिक उद् बोधन का ‘नाद’ बन कर, कालजयी नेतृत्व की बागडोर थामें, ‘युग प्रवर्तक’ बन जाता है, ‘आ अब लौट चलें’ गीत उसी शाश्वत कृतित्व का, भारतीय सिने गीत-संगीत में अब तक का एकमात्र युगान्तकारी गीत-संगीत है। फ़िल्म ‘जिस देश में गँगा बहती है’ की कहानी के अनुसार कवि शैलेन्द्र ने ‘आ अब लौट चलें’ गीत में शब्द संयोजन, भाव की विभिन्न अवस्थाओं, हृदय के उद् गार तथा सन्देश के निमित्त जो कुछ सहज रूप से रचा है उसे अपने संगीत के आवरण में ढाल कर शंकर-जयकिशन ने रचनात्मकता, कलात्मकता एवं भावनात्मकता का जो पुट इसमें समाहित किया है वह किस प्रकार कालजयी स्वरूप लिए एक युगान्तकारी कृतित्व का ‘महानाद’ बन गया है, उसे आज इस गीत की ‘सम्पूर्णता’ में यहाँ समझना उतना ही रोमाँचक होगा जितना इस गीत के सृजन की प्रक्रिया में तब रहा होगा। पारम्परिक रूप से शास्त्रीय, सुगम तथा सिने गीत-संगीत में वादकों की सँख्या प्रायः तीन, पाँच, सात ग्यारह तक ही सीमित रहती है। सिनेमा में यह सँख्या फ़िल्म के कथानक और प्रसंग विशेष की पृष्ठ भूमि के अनुसार बढ़ कर सौ से भी ऊपर पहुँच जायेगी यह 1960 के वर्ष में तब किसी ने स्वप्न में भी कल्पना नहीं की थी। शंकर-जयकिशन ने अपनी परिकल्पना को मूर्त रूप देते हुए जब अपनी विशाल संगीत मण्डली के संग ‘आ अब लौट चलें’ का ‘सुर संसार’ रचा था तब यह समाचार सभी को स्तब्ध कर गया था। विस्मय और अचरज से भरे सिनेमा के साथ ही शास्त्रीय एवं सुगम संगीत से जुड़े सभी महारथी इस अपार संगीत समूह के सरगम से उपजने वाले गीत-संगीत का परिणामी ‘नाद’ सुनने को व्यग्र हो चुके थे। दो, चार, दस, बीस से ऊपर वाद्य कलाकारों की सँख्या के सम्बन्ध में किसी संगीतकार द्वारा प्रयोग में लाना तो दूर तब इसकी कोई कल्पना भी नहीं कर सकता था। पश्चिमी गीत-संगीत में भी उन दिनों वादकों की इतनी बड़ी सँख्या का प्रयोग दुर्लभ ही था। बीस से ऊपर वादकों की सँख्या को नियंत्रित करना भी तब कठिन होता था ऐसे में स्वर का सुर तथा उसका सुरीलापन अनियंत्रित हो जाये, यह आशँका बनी रहती थी। इस प्रकार के प्रयोग में वाद्य यन्त्रों से निकलती ध्वनि असंयमित हो कर कर्कश प्रलाप करने लग जाये, यह सम्भावना भी बनी रहती है। संगीतकार स्वयं पूर्ण रूप से सिद्ध न हो तो मात्र वाद्य संयोजक के बल पर कोई नूतन प्रयोग कदापि सम्भव नहीं है। इस प्रकार के अभिनव प्रयोग हेतु यह अनिवार्य रूप से नितान्त आवश्यक है कि संगीतकार संगीत के प्रत्येक विधा का ज्ञानी हो तथा अपनी कल्पनाशील वृत्ति को साकार करने की प्रक्रिया को मूर्त रूप देने में सक्षम हो। जिन संगीतकारों की संगीत रचना की आकर्षक एवं प्रभावी प्रस्तुति का श्रेय संगीत संयोजक (Music Arranger) के नाम अंकित कर दिया जाता है शंकर-जयकिशन उस सूची में नहीं आते। शंकर-जयकिशन अपने कार्य में कितने सिद्ध थे वह उनकी कार्य प्रणाली से ही ज्ञात हो जाता है। एक-एक वादक, संयोजक, गायक-गायिका, समूह स्वर से कब, कहाँ, किस प्रकार का योगदान किस रूप में लेना है इसका निर्णय अपनी एक-एक संगीत रचना में स्वयं शंकर-जयकिशन ही लिया करते थे। ‘आ अब लौट चलें’ गीत में प्रयुक्त प्रारम्भिक संगीत (Prelude Music), मध्य संगीत (Interlude Music) तथा परिणामी (समापन) संगीत (Conclude Music) की संरचना जिस व्यवस्थित रूप से की गयी है वह गीत में निहित भाव, उसके प्रयोजन तथा उससे उद् भासित होने वाले सन्देश को आश्चर्यजनक रूप से अपनी सम्पूर्ण तीव्रता से सम्प्रेषित एवं प्रक्षेपित करता है। फ़िल्म का कथानक अपने अन्तिम चरण में ‘दस्यु उन्मूलन’ का आग्रह लिए जिस सामाजिक समस्या के निवारण हेतु हृदय परिवर्तन के सन्देश को स्थापित करने में रत है उसे सहज रूप से अत्यन्त ही प्रभावी भाव से स्थापित करने में यह गीत सफल रहा है। इस फ़िल्म में यह गीत ‘शीर्षक गीत’ का स्थान नहीं लिए है फिर भी यह गीत फ़िल्म का ‘प्राण तत्व’ अपने में समाहित किए हुए है। राज कपूर ने विनोबा भावे और जयप्रकाश नारायण के ‘दस्यु उन्मूलन’ अभियान से प्रेरित हो कर जब इस फ़िल्म की परिकल्पना की थी तब सम्भवतः उन्होंने भी नहीं सोचा होगा कि यह गीत दस्यु उन्मूलन अभियान को त्वरित वेग प्रदान कर स्वयं में एक आह् वान का रूप ले लेगा। गीत अपनी प्रचण्ड भाव सम्प्रेषण की मारक क्षमता लिए इतना प्रभावी आकार ग्रहण कर चुका था कि इस गान के श्रवण मात्र से दस्युओं का हृदय परिवर्तन उस समय विशेष तथा बाद के वर्षों में आश्चर्यजनक रूप से देखने को मिला। इसी के साथ प्रवासी भारतीयों का स्वदेश प्रेम जिस प्रकार इस एक गीत के कारण जागृत हुआ वह अद्भुत था। भारतीय सिने गीतों के अभी तक के इतिहास में यह प्रथम अवसर था जब किसी एक गीत ने वैश्विक स्तर पर ‘युगान्तकारी आह् वान’ का अलख जगाया था। एक ऐसा अलख जो वर्तमान के प्रत्येक आते हुए पल-क्षिन में अपनी शाश्वत जीवन्तता का अमृत घोल रहा है। इस गीत में प्रारम्भिक संगीत (Prelude Music) द्वारा मन में उठ रहे भावों के उद् वेग को वाद्य की धीमी-धीमी परन्तु पुष्ट रूप से प्रबल होती ध्वनि को इस प्रकार झँकृत किया गया है मानों हृदय की तलहटी से उठ रहे ज्वार-भाटे के द्वन्द को जैसे किसी ने अकस्मात् मुखर कर दिया हो। विचार एवं भावना के सम्मिश्रण से उपजा आवेग शब्द की अनुपस्थिति में भी वह सब कुछ प्रगट कर गया है जो शून्य की स्थिति में व्यग्रता की अकुलाहट में स्वतः ही साकार हो उठता है। सिनेमा में इस गीत के संग जो दृश्य-परिदृश्य नयनों के समक्ष प्रगट हो रहा है उससे सहज साम्य बैठाती हमारी भाव तन्द्रा अपनों से विलग हो चुके अपने प्रिय परिजनों को पुनः स्वयं से जोड़ लेने को आतुर है। यदि नयनों को मूँद कर जब इस गीत का श्रवण अपने ही भाव के धरातल पर किया जाता है तो मन जैसे हर उस प्रिय को लौट आने का आग्रह करता सा लगता है जो बिछोह के अथाह सागर में न जाने कहाँ लुप्त हो गये हैं। अपनो से बिछड़ा मीत देस में हो या परदेस में, इस लोक में हो या परलोक में, मन उसे लौटा लाने को व्याकुल हो ही उठता है। ज्यूँ ही स्वर उभरता है - ‘आ, अब लौट चलें, नैन बिछाए बाँहें पसारे, तुझको पुकारे, देश तेरा’, यूँ लगता है जैसे मूक भाव को वाणी मिल गयी है। ये ‘देश’ कौन है? आपकी आत्मा में वास करने वाला/ वाली आपका अपना ही कोई प्रिय जो कहीं अन्यत्र भटक गया/ गयी है, उसी को पुनः अपने हृदय में समाने को व्याकुल हैं ये नयन। गीत में अकुलाहट लिए यह स्वर अधीरता और व्यग्रता का मिश्र भाव ले कर आर्तनाद सा उन्माद प्रगट करता प्रतीत होता है। भारतीय दर्शन में भाव-भक्ति के संग शक्ति का सान्निध्य वाँछित फल की प्राप्ति का मार्ग सहज प्रशस्त कर देता है। उसी शाश्वत दर्शन को अंगीकार करते हुए शंकर-जयकिशन द्वय जब गीत के मध्य संगीत (Interlude Music) में नारी स्वर में ‘आ जा रे’ की पुकार को ध्वनित करते हैं तब ‘शक्ति’ का पुँज भावना के वैचारिक मर्म को अपनी सम्पूर्ण चेतना के संग चित्त से बाहर उड़ेल देता है। यह एक विस्मयकारी अवस्था है। पुरुष स्वर से आगे बढ़ कर उच्च स्तर पर स्वयं को स्थापित कर जिस आसन पर आरूढ़ हो कर नारी स्वर अपनी शक्ति का परिमार्जन करती हुयी अपनी पुकार का पुँज बिखेरती है वहाँ पुरुष वाणी उसी शक्ति के आसन पर स्वयं को स���ानान्तर में स्थापित कर तार सप्तक के उसी छोर का सिरा थाम कर जिसे नारी स्वर ने अपने आत्मिक ओज से सम्प्रेषित किया था, मन के भाव को उसकी समग्र चेतना एवं तीव्रता के साथ संयमित स्वर में आगे बढ़ाता है। नर-नारी की भक्ति-शक्ति का यह एक ऐसा अनूठा प्रयोग है जिसे काल के भाल पर अंकित अभी तक का एकमात्र अभिनव सृजन का गौरव प्राप्त है। शंकर-जयकिशन जैसे विलक्षण प्रतिभा के धनी तथा रचनात्मकता के विराट व्योम पर अलौकिक छटा का सहज सौन्दर्य स्थापित करने की कला में निपुण किसी कालजयी संगीतकार के मन-मस्तिष्क में ही यह विचार कौंधा होगा कि इस एकल गान में पुरुष की भावना प्रधान दृढ़ वाणी के संग नारी स्वर की समर्पित शक्ति के पुँज को जोड़ कर उससे भक्ति-शक्ति की संयुक्त धारा को उत्सर्जित कर परिणामी निष्कर्ष को अत्य��िक मारक एवं प्रभावी बनाया जाय। निःसन्देह गीत की रचना करते समय कवि शैलेन्द्र के मन में नारी स्वर का ‘उद् घोष’ ‘आ जा रे’ की कल्पना नहीं रही होगी पर इसके संगीत संयोजन की प्रक्रिया में शंकर-जयकिशन ने ही इसे गीत के मध्य संगीत में स्थापित किया होगा। यहाँ पर मैं यह स्पष्ट रूप से इंगित करना चाहूँगा कि यह अनूठी कल्पना किसी संगीत संयोजक (Music Arranger) द्वारा नहीं की गयी है। उन संगीतकारों के लिए निश्चय ही संगीत संयोजक महत्वपूर्ण कारक होते हैं जो संगीत की वर्ण माला एवं व्याकरण से अनभिज्ञ हैं। शंकर-जयकिशन की छत्र-छाया में रह कर कई संगीत संयोजक संगीतकार बन चुके हैं पर कल्पना की जिस उड़ान पर वो अपने सरगम का अश्व दसों दिशाओं में सरपट दौड़ाया करते थे वह कला तो उनके साथ ही अंतर्ध्यान हो चुकी है। कला अपनी समग्र कलात्मक विशेषताओं के संग किस प्रकार शंकर-जयकिशन के संगीत में रचती-बसती थी उसकी अनुपम छटा उनके ढेरों सृजन के साथ-साथ इस एक गीत में भी सहज रूप से अनुभूत की जा सकती है। गायिका लता मँगेशकर को मात्र ‘आलाप’ के जिस प्रयोजन हेतु शंकर-जयकिशन ने इस एकल गान में समाहित किया है उसे वो अपने किसी वाद्य यन्त्र से भी पूर्ण कर सकते थे। ऐसे में लता को इस गीत में सम्मिलित करने के पार्श्व में शंकर-जयकिशन का उद्देश्य क्या था? कई अन्य गीतों में भी ऐसे ही ढेरों सूक्ष्म अव्यव हैं जिनका उत्तर यदि आप को मिल जाये तो उस गूढ़ पहेली का हल भी आप पा जायेंगे जो शंकर-जयकिशन को अपने पूर्ववर्ती, समकालीन तथा अब तक के समस्त संगीतकारों से पृथक सर्वश्रेष्ठ संगीतकार के सिंघासन पर विराजमान किये हुये है। आइए, लता के स्वर को इस गीत के मध्य संगीत में निरूपित करने के पीछे के इस वैश्विक संगीतकार के मन्तव्य को मैं आपके समक्ष उद् घाटित किए देता हूँ। जिस प्रयोजन हेतु इस गीत की रचना की गयी है उसमें नारी शक्ति का समायोजन ही वह एकमात्र कारक था जो गीत को उसके कथ्य, तथ्य, भाव एवं परिणामी निष्कर्ष को स्थापित करने में एक महत्वपूर्ण अंश हो सकता था। इसी कारक के कारण भारतीय दर्शन का वह मूल मन्त्र भी इस गीत में समाहित हो सका है जो सदियों से नर-नारी के शाश्वत सम्मिलित ओज का पुँज ले कर मानव कल्याण का अलख जगाता आया है। स्मरण कीजिये शंकर-जयकिशन की फ़िल्म ‘अनाड़ी’ के उस एक गीत को जो एकल होते हुए भी अपनी एक पंक्ति के कारण युगल गीत के रूप में जाना जाता है। ‘न समझे वो अनाड़ी हैं’ पंक्ति को गायक मुकेश ने गीत के प्रारम्भ में मात्र एक ही बार गाया है परन्तु उनकी वाणी के ओज से यह स्वर गीत के शब्द-शब्द में मूक रह कर भी मुखर है। यही वह सूक्ष्म कारक है शंकर-जयकिशन के संगीत की विराटता का जो उन्हें कालजयी के सिंघासन पर सदा के लिए स्थापित करता है। आइए, ‘आ अब लौट चलें’ के सन्दर्भ में अब गायक मुकेश के स्वर-सौन्दर्य के उस आयाम पर दृष्टिपात करते हैं जिसे शंकर-जयकिशन जैसे विलक्षण प्रतिभा से सम्पन्न महान संगीतकार ही सफलता पूर्वक साध सके हैं। इस गीत के मध्य संगीत (Interlude Music) में लता मँगेशकर अपने स्वर को समूह स्वरों (Chorus) के सानिध्य में उच्च सप्तक के जिस पड़ाव पर ला कर अंतर्ध्यान होती हैं वहीं से गायक मुकेश उच्च सप्तक के उसी तार का छोर पकड़ कर अपनी वाणी सहज रूप से अन्तरे के कथ्य एवं भाव के संग जिस प्रकार सहज रूप से आगे बढ़ाते हैं वह अचम्भित करने वाला है। अन्तरे में यह गीत उसी उच्च सप्तक में आगे बढ़ता है जिस पर लता आरूढ़ थीं। सिने संगीत में मन्ना डे, लता मँगेशकर और इन जैसे अन्य गायक-गायिका को मध्य अथवा तार सप्तक में गाते हुये हम सभी ने बारम्बार सुना है पर इस एक गीत में उसी उच्च सप्तक में गीत के सभी तीन अन्तरे को सहज रूप से गाते हुए पुनः अपने स्वर को मुखड़े के स्थायी भाव में ला कर गीत के स्वाभाविक प्रवाह में संयोजित करने का उपक्रम गायक मुकेश को भी उसी प्रकार श्रेष्ठ सिद्ध करता है जिस प्रकार शंकर-जयकिशन संगीत के क्षेत्र में स्वयंभू सर्वश्रेष्ठ हैं। मुकेश गायन का यह वह आयाम है जिस पर कई बार प्रश्न उठे हैं पर समय-समय पर अपने गायन के माध्यम से उन्होंने इसका उत्तर अपनी ऐसी ही विलक्षण प्रतिभा से दिया है फिर भी यत्नपूर्वक उनके इस कौशल को लोगों ने अनदेखा किया है। मुझे स्मरण नहीं आता कि कभी किसी संगीत समीक्षक ने गायक मुकेश की इस तथा ऐसी ही कई अन्य विशेषताओं पर प्रकाश डाला हो। शंकर-जयकिशन प्रस्तुत गीत की शास्त्रियता एवं इसके उच्च सप्तक की आवश्यकता को ध्यान में रख कर राज कपूर के लिये इसे वो मन्ना डे से भी गवा सकते थे। ऐसे में गायक मुकेश का स्वर लेना शंकर-जयकिशन ने क्यों आवश्यक समझा? गीत के भाव पक्ष को सुर के संग सहज रूप से प्रेक्षेपित करने का कौशल सिने संगीत में गायक मुकेश से बढ़ कर कोई भी नहीं कर सकता है, यह सत्य तो भली-भाँति सभी जानते हैं पर एक अन्य कारक भी है जिस पर अभी तक किसी की भी दृष्टि क्यों नहीं गयी, यह स्वयं मेरे लिए भी कौतुहल का विषय है। शंकर-जयकिशन की इस अद्भुत संगीत रचना के माध्यम से मैं गायक मुकेश के उस विशिष्ट कौशल का परिचय भी आप सभी संगीत मनीषियों से करवा दूँ जो अभी तक अबूझ रही है। आपने शारीरिक सौष्ठव के प्रतिमान विश्व के ढेरों बलिष्ट व्यक्तित्वों का चित्र देखा होगा। उनमें विशेष रूप से पश्चिम जगत के व्यायाम करते हुये कई पहलवान (Body Builder) को डेढ़ सौ - दो सौ किलोग्राम तक का भार उठाते हुए आपने साक्षात अथवा चित्र में देखा होगा। आपमें से कइयों ने इन्हें भार उठाते हुए जब देखा होगा तब यह भी ध्यान दिया होगा की भार की अधिकता से उनके हस्त, ग्रीवा एवं मुख की माँसपेशियाँ इस प्रकार खिंची हुयी दिखती हैं मानो अत्यधिक भार के कारण माँसपेशियों पर अतिरिक्त बल पड़ रहा है। यह दृश्य स्वाभाविक रूप से यह दर्शाता है कि भार उठाने वाला व्यक्ति विशेष अपनी सम्पूर्ण शक्ति का संचयन कर भार उठा लेता तो है पर उसे उस भार को स्थिर रखने के लिए अपना जो अतिरिक्त बल लगाना पड़ रहा है उससे वह किसी भी पल अस्थिर हो कर डगमगा सकता है। इसके विपरीत आप उन बलशाली व्यक्तियों को देखें जो बालपन से ही नित अखाड़े की माटी में लोट-लोट कर पहलवानी करते हुए दण्ड-बैठक कर अपना शारीरिक बल किसी गज के समान पुष्टता के विशाल वैभव से परिपूर्ण करते हैं। इन्हीं में से कई ऐसे भी शूर वीर होते हैं जो अपने इस शारीरिक सौष्ठव को योग एवं प्राणायाम के द्वारा आन्तरिक शक्ति से अत्यधिक पुष्ट कर सहज रूप से अपने बल को समायोजित कर लेने में सिद्ध हस्त हो जाते हैं। श्री कृष्ण को गोवर्धन पर्वत तथा श्री हनुमान को संजीवनी के लिए सम्पूर्ण पहाड़ उठाते हुए जो भी चित्र आप और हम देखते हैं उन सभी में वे सहज दिखते हैं। मुख पर सौम्यता है, तेज का अपूर्व पुँज है, भार की अधिकता से विचलन का कोई भाव मुख अथवा नयन में परिलक्षित नहीं होता। यही वो आदर्श स्थिति है जो किसी सिद्ध व्यक्ति को असाधारण रूप से सामर्थ्यवान बनाती है। शंकर-जयकिशन द्वय में से शंकर एक कुशल पहलवान भी थे। उनका अपूर्व आत्मिक बल उनके सांगितिक सौष्ठव में स्पष्ट रूप से झलकता है। अब पुनः ‘आ अब लौट चलें’ के मुकेश गायन के विमर्श पर लौट चलते हैं। इस गीत के सभी अन्तरे को उच्च सप्तक पर गाते हुए गायक मुकेश जिस सहजता से गीत के प्रवाह को उसकी स्वाभाविक गति के संग वेगमयी धारा के सापेक्ष गीत के भाव को उसी तीव्रता से प्रक्षेपित करते हुए आगे बढ़ते हैं वह किसी भी स्थान पर न तो बोझिल लगता है और न ही कहीं ऐसा प्रतीत होता है मानों उन्हें इन सब को एक साथ साधने में किसी अतिरिक्त श्रम अथवा बल का प्रयोग करना पड़ रहा हो। यह गायन की वह आदर्श स्थिति है जिसे सिने गीत-संगीत में गायक मुकेश के अतिरिक्त अब तक कोई भी अन्य गायक-गायिका नहीं साध सका है। ‘ओ दुनियाँ के रखवाले’ गीत में जब मु. रफ़ी अन्तरे को गाते हुए उच्च सप्तक में प्रवेश करते हैं तो उनके स्वर की तीव्रता स्पष्ट रूप से उनके द्वारा अतिरिक्त श्रम का प्रयोग करती हुयी दृष्टिगोचर होती है। शंकर-जयकिशन की ही संगीत रचना में फ़िल्म ‘जंगली’ में ‘चाहे कोई मुझे जंगली कहे’ गीत गाते हुये रफ़ी इसके अन्तरे की अन्तिम दो पंक्तियों में गाते हुये जब स्वर को साधते हैं तो एक साथ उन्हें दो-तीन स्तर पर श्रम करते हुए स्पष्ट रूप से देखा जा सकता है। उच्च सप्तक पर स्वयं को बाँध कर रखने का श्रम, गीत की गति के संग उसके वेग को नियंत्रित करने का श्रम, वाद्य यन्त्रों के सापेक्ष स्वयं की वाणी को पुष्ट रखने का श्रम तथा अपनी ध्वनि को व्यापक करने की प्रक्रिया में उसके सुरीलेपन को यथावत बनाये रखने में किया जाने वाला संघर्ष मु. रफ़ी को गायन की उस आदर्श स्थित में स्वयं को स्थिर रखने में किये जाने वाले अतिरिक्त बल प्रयोग को स्पष्ट रूप से परिलक्षित करता है। इस गीत में शंकर-जयकिशन ने अपने चिर-परिचित संगीत कौशल से अन्तरे की उन पंक्तियों के समानान्तर अतिरिक्त सूक्ष्म वाद्य यन्त्रों को इतनी चतुराई से प्रयोग में लिया है कि वह गायक के इस अतिरिक्त श्रम को ढकने का प्रयास करती सी प्रतीत होती है। मध्य, उच्च अथवा तार सप्तक में गाते हुए गायक महेन्द्र कपूर अपनी वाणी के खरज तत्व को सुर की गति के संग जिस प्रकार बनाये रखते थे वह अनूठा ही कहा जायेगा। उनके गाये ढेरों गीतों के साथ ही शंकर-जयकिशन की संगीत रचना फ़िल्म ‘हरियाली और रास्ता’ के गीत ‘खो गया है मेरा प्यार’ में भी महेन्द्र कपूर की इस अनूठी प्रतिभा को अनुभूत किया जा सकता है। उच्च सप्तक में गाते हुये गायक का स्वर अतिरिक्त बल प्रयोग से जब बिखरने लगता है तब उसमें से सुरीलापन लुप्त हो कर वाणी ‘चीखने-चिल्लाने’ का दृश्य उत्पन्न कर जाती है जो संगीत की प्रचलित आदर्श स्थिति के सर्वथा प्रतिकूल कही जायेगी। गायक मुकेश उच्च सप्तक में गाते हुए भी इतने सहज लगते हैं कि श्रोताओं में यह भ्रम रह जाता है जैसे वे मध्य सप्तक में गा रहे हैं। ऐसा इसलिए लगता है क्योंकि अपने स्वर को ऊँचाई पर ले जाते हुए मुकेश इतनी सहज गति से अपनी वाणी को प्रक्षेपित कर लेते थे कि उसमें बिना किसी अतिरिक्त श्रम अथवा बल का प्रयोग किए वे उसे प्रयुक्त संगीत के वेग में स्वाभाविक रूप से विलीन कर दिया करते थे। इस प्रक्रिया में उनकी वाणी का प्राकृतिक खरज जस का तस बना रहता है जो निःसन्देह किसी को भी अचम्भित करने को पर्याप्त है। मुकेश गायन की यह एक ऐसी विलक्षण विशेषता है जो अन्य गायक-गायिकाओं में अनुपलब्ध है। शंकर-जयकिशन का वाद्य संयोजन (Orchestra) नीचे के प्रत्येक सप्तक से क्रमशः ऊपर की ओर गतिमान होने के क्रम में जिस तीव्रता को पुष्ट करता हुआ आगे बढ़ता है ���ह किसी भी गायक-गायिका के लिए एक ऐसी चुनौती है जिसे वो ही सहज रूप से स्वीकार कर पाने में सक्षम हुए हैं जिनकी वाणी का खरज उच्च सप्तक में भी पुष्ट रहता है। निःसन्देह इस श्रेणी में गायक मुकेश के कण्ठ से निकली वाणी ही सिने गीत-संगीत के समस्त गायक-गायिकाओं में सर्वश्रेष्ठ है। मुकेश की यही श्रेष्ठता प्रस्तुत गीत में स्पष्ट रूप से दृश्यमान है। शंकर-जयकिशन के इस गीत को अथवा गायक मुकेश के संग उनके किसी भी अन्य गीत को आप पुनः सुन कर देखिए तो आपको मेरे इस वक्तव्य का प्रमाण स्वतः प्राप्त हो जायेगा। सैकड़ों की सँख्या में जब वाद्य यन्त्रों का प्रयोग हो रहा हो तो स्वाभाविक रूप से उसकी तीव्रता किसी भी अन्य स्वर पर स्वतः ही आच्छादित (Dominate) हो जायेगी। ऐसे में शंकर-जयकिशन को अनिवार्य रूप से मुकेश के अतिरिक्त अन्य समस्त गायक-गायिका के स्वर को वाद्य यन्त्रों की ध्वनि के सापेक्ष सन्तुलित करने हेतु आधारभूत अतिरिक्त सूक्ष्म उपकरण का प्रयोग करना पड़ता था। इस कार्य को वो इतनी निपुणता से करते थे कि गायक-गायिका की वाणी आवश्यक पुष्टता के संग प्रयुक्त वाद्य यन्त्रों की ध्वनि के समकक्ष बनी रहती थी। शमशाद बेग़म जैसी तीव्र एवं पुष्ट वाणी के समकक्ष लता मँगेशकर के कोमल स्वर को एक ही फ़िल्म में एक-दूजे के समकक्ष लाने का चमत्कारी कार्य करने वाले शंकर-जयकिशन ही थे। स्वयं लता मँगेशकर तथा जो समीक्षक एवं संगीत मनीषी अब तक सिने संगीत में लता की प्रारम्भिक सफलता का श्रेय स्वयं उनकी प्रतिभा को देते रहे हैं वो ये भली-भाँति मेरे इस उद्धरण से अपने आँकलन एवं विवेचना में यह संशोधन कर लें कि इस अभूतपूर्व सफलता का श्रेय पूर्ण रूप से संगीतकार शंकर-जयकिशन के संगीत संयोजन तथा उनके आधारभूत सन्तुलित ध्वनि संयोजन प्रक्रिया को ही जाता है। आप किस विचार में निमग्न हो गए? मुस्कुराइए, क्योंकि आप शंकर-जयकिशन के संगीत साम्राज्य में हैं। पुनः लौटते हैं ‘आ अब लौट चलें’ के संगीत संयोजन पर। इस गीत की समाप्ति पर मुकेश गायन की एक और सहज क्रिया आपका मन मोह लेती है। गीत के प्रारम्भ में मुखड़े को गाते हुए मुकेश ‘तुझको पुकारे, देश तेरा’ जिस प्रकार गाते हैं उसे पुनः गीत के समापन में गाते हुए वे ‘तुझको पुकारे’ एवं ‘देश तेरा’ के मध्य जिस प्रकार अपने स्वर में लोच उत्पन्न करते हैं वह इतना स्वाभाविक बन पड़ा है कि सुनने वाला अभिभूत हो जाता है। संगीत की भाषा में इस लोच को ही ‘मुरकी’ की संज्ञा दी जाती है। इसके परिणामी (समापन) संगीत (Conclude Music) में शंकर-जयकिशन एक और अभिनव प्रयोग करते हैं। गीत समाप्त होने के बाद के संगीत में जिस प्रकार वो वाद्य यन्त्रों को गीत के मूल सन्देश को अत्यधिक प्रभावी रूप से प्रक्षेपित करने का उपक्रम करते हुए मुकेश के स्वर में ‘आ अब लौट चलें’ को दो बार कम्पित अनुनाद के संग प्रयोग में लाते हैं वह उनकी स्वयं की विलक्षण रचनात्मकता के साथ ही गायक मुकेश की स्वाभाविक कलात्मक प्रस्तुति का भी भान कराती है। समूह स्वरों के पार्श्व में प्रबल वाद्य संयोजन से उभरता तरंगित ध्वनि मण्डल संगीत के पूर्ण रूप से विराम ले लेने के पश्चात् भी वातावरण में गुँजायमान रहता है। प्रसंगवश आपको यह जान कर सुखद आश्चर्य होगा कि गायक मुकेश का यही वह गीत है जिसे बारम्बार सुन-सुन कर गायक किशोर कुमार अपने जीवन के अन्तिम वर्षों में अपने पैत्रिक निवास ‘खण्डवा’ में सदा के लिए बस जाने को आतुर थे। फ़िल्म में इस कालजयी गीत के जो दो अन्तरे हैं वही जन सामान्य के मध्य अभी तक सुने गये हैं। इस गीत का एक अन्तरा ‘जिस मिट्टी ने जनम दिया है, गोद खिलाया प्यार किया है’ को आप नीचे दिए गए सूत्र पर अन्य दो प्रचलित अन्तरों के साथ सुन सकते हैं। सुप्रसिद्ध संगीत साधक, गीत संग्रहकर्ता, वरिष्ठ लेखक एवं शोधकर्ता मित्र भाई कमल बेरिवाला ने लोकप्रिय कालजयी सिने गीतों की लड़ी में इस बार संगीत रसिकों के लिए ‘आ अब लौट चलें’ का सम्पूर्ण वैभव उसके मूल कृतित्व के साथ परोसा है। इस गीत का सम्पादन भी भाई कमल ने उसी गुणवत्ता के साथ किया है जिसके लिए यह गीत जाना जाता है। आगे भी भाई कमल बेरिवाला ऐसे ही विशेष गीतों की लड़ियाँ हम सब के लिए पिरोते रहेंगे और हम सब उनके संग्रह से सिने गीत-संगीत के अनमोल रत्न का श्रवण करते रहेंगे। प्रस्तुत गीत आप निम्न लिंक पर सुन कर अपनी सारगर्भित प्रतिक्रिया से हमें अवश्य अवगत कराएँ। https://www.youtube.com/watch?v=Rh4iH0ZR6CE डॉ. राजीव श्रीवास्तव * आ अब लौट चलें नैन बिछाए, बाँहें पसारे तुझको पुकारे देश तेरा आ अब लौट चलें …. आ जा रे रे रे ssss …. . जिस मिट्टी ने जनम दिया है, गोद खिलाया प्यार किया है तू जिस माँ को भूल गया था आज उसी ने याद किया है आ अब लौट चलें …. आ जा रे रे रे ssss …. . सहज है सीधी राह पे चलना देख के उलझन बच के निकलना कोई ये चाहे माने न माने बहुत है मुश्क़िल गिर के सम्भलना आ अब लौट चलें …. आ जा रे रे रे ssss …. . आँख हमारी मंज़िल पर है दिल में ख़ुशी की मस्त लहर है लाख लुभाएँ महल पराए अपना घर फिर अपना घर है आ अब लौट चलें …. ओ ओ ओ आ आ ssss आ अब लौट चलें …. . गीतकार: शैलेन्द्र, संगीतकार: शंकर-जयकिशन, गायक: मुकेश https://www.youtube.com/watch?v=Rh4iH0ZR6CE
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ferretbuzz · 7 years
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Kumar Vishwas tweets for Kangana Ranaut खास बातें कुमार विश्वास ने किया ट्वीट कंगना को लेकर कुमार का ट्वीट कुमार ने की उनकी तारीफ नई दिल्ली: आम आदमी पार्टी नेता और कवि कुमार विश्वास आए दिन अब अपने ट्वीट को लेकर खबरों में बने रहने लगे हैं. वैसे उन्हें ख्याति के लिए ऐसे किसी ट्वीट की जरूरत नहीं, दुनिया उनकी कलम और आवाज़ की कद्र करती है. कुमार विश्वास ने सदी के महानायक अमिताभ बच्चन के एक ट्वीट पर 32 रुपये के लिए तंज भी कसा था. कवि कुमार विश्वास ने कंगना रनोट के हैशटैग के साथ ट्वीट किया है. दर्द में वह शक्ति है जो मनुष्य को दृष्टा बना देती है. बता दें कि हाल ही में कंगना रनोट एनडीटीवी के खास कार्यक्रम यूथ फॉर चेंज में आईं थी और महीलाओं के अधिकार पर एक शानदार चर्चा का हिस्सा रहीं.   दर्द में वह शक्ति है जो मनुष्य को दृष्टा बना देती है #KanganaRanaut — Dr Kumar Vishvas (@DrKumarVishwas) September 3, 2017 वैसे कुमार विश्वास ने हरिवंश राय बच्चन की 'नीड़ का निर्माण' कविता गाई थी और उसे यूट्यूब पर भी अपलोड किया था. कुमार यूट्यूब पर 'तर्पण' नाम से अपने वीडियो शेयर करते हैं. उन्‍होंने बीते 8 जुलाई को इस कविता को शेयर किया था. हालांकि कुमार विश्वास द्वारा इस कविता को शेयर करते हुए बकायदा हरिवंश राय बच्चन को क्रेडिट भी दिया था. यह भी पढ़ें : 30 की उम्र में बच्‍चे चाहती थीं कंगना, पर अब कह रही हैं 'सिंगल रहने दे' इसके बाद अमिताभ बच्चन ने बीते 10 जुलाई को कुमार विश्वास को टैग करते हुए ट्वीट किया था, जिसमें उन्‍होंने इस वीडियो को लेकर कहा था 'ये कॉपीराइट का उल्‍लंघन है. हमारा लीगल डिपार्टमेंट इस बात की सुध लेगा. इसके जवाब में कुमार विश्वास ने एक ट्वीट के जरिये अमिताभ बच्‍चन से कहा था कि 'सभी कवियों से मुझे इसके लिए सराहना मिली, लेकिन आपसे नोटिस मिला. बाबूजी को श्रद्धांजलि का वीडियो डिलीट कर रहा हूं. साथ ही आपके द्वारा मांगने पर 32 रुपये भेज रहा हूं, जो इससे कमाए हैं. प्रणाम'.VIDEO: कंगना की एक शानदार सोच इससे पहले पार्टी में कुमार विश्वास के खिलाफ कुछ आवाज बुलंद हुई थी. पार्टी नेता दिलीप पांडे कुमार विश्वास के खिलाफ कुछ ज्यादा मुखर रहे हैं. याद होगा कि दिल्ली में आम आदमी पार्टी दफ़्तर के बाहर कुमार विश्वास के खिलाफ पोस्टर लगाए गए थे जिसमें कुमार विश्वास गद्दार, धोखेबाज बताकर पार्टी से निकालने की मांग की गई थी. पोस्टर में लिखा था 'भाजपा का यार है कवि नहीं गद्दार है ऐसे धोखेबाजों को बाहर करो.. बाहर करो'. साथ ही इसमें कुमार विश्वास का काला सच बताने के लिए भाई दिलीप पांडेय का आभार भी व्यक्त किया गया था हालांकि इस पोस्टर को किसने जारी किया है इसकी कोई जानकारी नहीं थी. Source link
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sufinama-blog · 7 years
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Malang Aur Ganga Jamuni Tehzeeb.
हिन्द  में सूफियों और संतों के बीच एक कहानी बहुत प्रचलित है -
एक संत किसी शहर के जानिब बढ़ा जा रहा है . उसके आने की खबर जब उस शहर में रहने वाले एक दूसरे संत को होती है तो वह उसके लिए पानी से भरा एक प्याला भेज देता है .यह देखकर पहला संत मुस्कुराता है और उस प्याले में एक फूल डाल कर वापस भेज देता है.
यह कहानी कम ओ बेस हर सूफी संत के साथ जोड़ी जाती है , जिसका अर्थ है कि जिस प्रकार एक भरे हुए बर्तन में फूल तैर जाता है और उस से पानी बिलकुल नहीं छलकता, उसी प्रकार संत होते हैं, जो अपनी ख़ुश्बू से रूह को महकाते हैं .
एक सूफी का पैदा होना बड़ी अनोखी घटना हैं,.वो शै जो सदा से थी, आज पैदा हो गयी. सूफी कि मौत भी बड़ी अनोखी होती हैं,..कुछ भी नहीं मरता. फूल मिट जाता हैं ,.खुशबू शेष रह जाती है . एक सूफी का सफर खुशबू का सफर है.. रास्ते में पड़ने वाली हर शै महकती जाती है. अलग अलग सिलसिले अलग अलग बाग़ हैं, खुशबू का सफर चलता रहता है.
सातवी हिजरी में लिखी हुई प्रसिद्द किताब फ़वायद उल फवाद ( जिसमे हज़रत निजामुद्दीन औलिया के मलफ़ूज़ात संग्रहित है ) में से तीसरी मजलिस एक नयी खुशबू का पता देती है-
" उसी वर्ष शाबान के मुबारक महीने कि पंद्रहवी तारीख़ जुमे को नमाज़ के बाद हज़रत के क़दम बोसी की दौलत हासिल हुई. एक ज़ौलकी अंदर आया . कुछ देर बैठा और फिर उठ कर चला गया . ख़्वाजा  हज़रत निजामुद्दीन औलिया  ने फरमाया कि इस क़माश के लोग शेख बहाउद्दीन ज़करिया रहमतुल्लाह अलैह की ख़िदमत में कम बार पाते थे . अलबत्ता शैख़ उल इस्लाम फरीद उद्दीन  रहमतुल्लाह अलैह की ख़िदमत में हर तरह के दरवेश और ग़ैर पहुच जाते थे .
इसके बाद फरमाया कि हर मजमा ए आम में एक ख़ास भी होता है. हज़रत ने एक हिकायत बयान फरमाई कि शैख़ बहाउद्दीन ज़करिया सैयाहत बहुत करते थे . एक दफा ज़ौलकियों के गिरोह में पहुचे और उनके बीच जा कर बैठ गए. इस मजमे से एक नूर पैदा हुआ . जब ग़ौर से देखा तो लोगों को एक शख़्स नज़र आया जिसका चेहरा चमक रहा था . शैख़ आहिस्ता से उसके पास गए और कहा कि तू इन लोगों में क्या कर रहा है ? उसने जवाब दिया - ज़करिया ! ताक़ि तुझे मालूम हो जाए कि हर आम में एक ख़ास भी होता हैं .
ज़ौलकी का ज़िक्र गाहे बेगाहे अक्सर तसव्वुफ़ की किताबों में आता रहा है. अपने आम पहनावे और उच्च आध्यात्मिक विचारों की वजह से ये ज़ौलकी या मलंग बड़े बड़े सूफी संतों को भी चकित करते दिखे हैं.
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मलंगों का ज़िक्र आते ही हमारे जहन में किसी मस्तमौला फ़क़ीर की छवि उभरकर सामने आ जाती हैं जो संसार से विरक्त होकर ईश्वर के उपासना में अपनी छवि भुलाय बैठा हैं . मलंगों को लेकर बहुत सारी भ्रांतियां हैं जो दूर होनी चाहिए . मलंगों पर बात करने से पहले हम तसव्वुफ़ के इतिहास पर एक सरसरी नज़र डाल लेते हैं .
तसव्वुफ़ की शुरुआत और विकास दो क्षेत्रों में सबसे जियादा हुआ और वो थे प्राचीन खुरासान और इराक़. इन दोनों क्षेत्रों पर हिंदुस्तानी दर्शन का व्यापक प्रभाव था. पूरा खुरासान चीनी यात्री ह्वान सांग के अनुसार बौद्ध मठों से आच्छादित था . इराक़ , दमिश्क़ और बग़दाद  में हिन्दू जोगियों और मुसलमान विचारकों के बीच विचारों का आदान प्रदान ���ी बहुत आम था.
हिंदुस्तान में सूफियों का उदय चार पीरों और चौदह खानवाड़ों से हुआ . चार पीर चार प्रतिनिधयों  (हसन, हुसैन, कुमैल बिनज़ियाद, और ख़्वाजा हसन बसरी )  के अनुयायी थे . ख़्वाजा हसन बसरी के दो प्रतिनिधि हुए - हबीब  अज़मी, जिनसे पहले नौ ने आध्यात्मिक लाभ उठाया और दूसरे अब्दुल वाहिद बिन ज़ैद,  जिनसे बाकी के पाँच  सिलसिले बावस्ता हैं . ये चौदह सिलसिले हैं - १. हबीबी २. तैफ़ूरी ३. करखी ४. सक़ती ५. जुनैदी ६. गाज़रूनी ७.तूसी ८. फिरदौसी ९.सुहरावर्दी १०. ज़ैदी ११.इयाली १२.अधमी १३.हुबैरी १४.चिश्ती .
मलंगों का सिलसिला जाकर सैयद बदीउद्दीन शाह मदार से जुड़ता है जो शैख़ मुहम्मद तैफ़ूर बुस्तामी के मुरीद थे . मदारिया सिलसिले से पहले भी सूफियों में कुछ फ़िर्क़े थे जो आम सूफियों से अलग प्रतीत होते थे . इनमे से सबसे प्राचीन सिलसिला मलामतियों का है, जो आत्म निंदा को ज्यादा महत्व देते थे .दूसरा सिलसिला कलंदरों का था जो अपनी धुन में मस्त रहा करते थे और हज़रत ख़िज़्र रूमी को अपना आध्यात्मिक गुरु मानते थे .
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मलामतियों और कलंदरों से इतर मदारिया सिलसिला चौदहवी शताब्दी के दूसरे भाग में उभरा .मदारिया सिलसिले के बारे में ज्यादा नहीं लिखा गया और मिरत उल मदारी और मिरत ए बदी व मदारी जैसी कुछ किताबों और पांडुलिपियों पर ही निर्भर रहना पड़ता है. मदारिया सिलसिला के बानी हज़रत शाह बदीउद्दीन ज़िंदा शाह मदार का सबसे पहले ज़िक्र मिरत उल मदारी में आता है.  इनसाइक्लोपीडिया ऑफ़ इस्लाम के अनुसार शाह मदार का जन्म 250 AH या 864 AD में हुआ था .तज़किरात उल मुत्तक़ीन के अनुसार यह 442 AH या 1051 AD है, जबकि मिरत उल मदारी के अनुसार यह 715 AH या 1315 AD है जो सबसे सही प्रतीत होता है .
गुलज़ार ए अबरार में भी शाह मदार और उनके मुरीदों का विस्तृत वर्णन है. भारत में यह सिलसिला कैसे फैला और कहाँ कहाँ फैला इसका ज़िक्र भी इस किताब में मौजूद है.इसकी हस्तलिखित प्रति सैयद मोहम्मद जमालुद्दीन, काज़ी मुहम्मद कंटूरी, काज़ी शियाबुद्दीन दौलताबादी, क़ादिर अब्दुल मलिक बहराइच, सैयद खस्सा, सैयद राजी देहलवी , शैख़ अल्ला और शैख़ मोहम्मद के जीवन पर भी प्रकाश डालती है.
शाह मदार पानी के जहाज से हिंदुस्तान तशरीफ़ लाये थे और उन्होंने कानपुर के निकट स्थित मकनपुर में कयाम किया . शाह मदार के हज़ारों मुरीद थे लेकिन उन्होंने अपना खलीफा सैयद अबू मुहम्मद अरगुन को बनाया और उन्हें अपना खिर्क़ा सौपा. शाह मदार ने सैयद अबू मोहम्मद अरगुन , सैयद अबू तुराब ख़्वाजा फंसूर और सैयद अबुल हसन तैफ़ूर को गोद लिया था . दो और लोगों की तरबियत शाह मदार की देख रेख में हुई, वो थे सैयद मोहम्मद जमालुद्दीन और उनके छोटे भाई सैयद अहमद . ये दोनों प्रसिद्द क़ादरी संत हज़रत अब्दुल क़ादिर जिलानी ग़ौस उल आज़म के भांजे थे .
मदारिया सिलसिले की ही उपशाखा दीवानगान हैं जिन्हें मलंग कहा जाता है. मलंग अपने बाल नहीं कटाते और इनके बालों की लंबाई भी आश्चर्यजनक रूप से बढ़ती रहती है. मलंग अपना सम्बन्ध हज़रत सैयद जमालुद्दीन जानेमन जन्नती से जोड़ते है . ये शहर से बाहर अपनी झोपडी बनाते है और ताउम्र अविवाहित रहकर ख़िदमत ए ख़ल्क़ करते है . इनके बाल न कटवाने के पीछे एक मनोरंजक वाक़या है- एक दफा हज़रत शैख़ जमालुद्दीन जानेमन जन्नती हब्स ए दम  ( सूफियों के ध्यान का एक तरीका जिसमे ला इलाहा बोलकर सांस अंदर खींच ली जाती हैं और फिर उसे अंदर ही रोक लिया जाता है और फिर काफी देर बाद इल्ललाह बोलकर सांस बाहर छोड़ी जाती है.) में बैठे थे . सांस अंदर रोकने की वजह से उनकी धमनियों पर असर पड़ा और उनके माथे से खून रिसने लगा . इसी बीच हज़रत शाह मदार का उनकी कुटिया में आगमन हुआ. शैख़ ने जब देखा कि मुरीद के सर से खून रिस रहा है तो उन्होंने बगल में धूनी में पड़ी राख उठाकर उनके सर पर मल दी जिस से खून का बहाव रुक गया. थोड़ी देर पश्चात जब हज़रत जानेमन जन्नती ने आँखें खोली तो उन्हें बताया गया कि उनके पीर ने उनके सर पर हाथ रखा था. यह सुनकर उन्होंने आह्लादित शब्दों में ऐलान किया कि जिन बालों पर मेरे मुर्शिद ने हाथ लगाया उनको मैं कभी नहीं काटूंगा . तभी से मलंगों में बाल न कटवाने की परम्परा चल निकली जो आज भी कायम है. मलंगों में नए सदस्य के आगमन पर एक पक्षी की क़ुरबानी दी जाती हैं और शाह मदार की दरगाह के पास के ही एक पेड़ की शाखों पर लोहे की कील ठोकी जाती है.
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मलंगों के विषय में भी काफी विवाद है. कुछ विद्वान् मलंगों को शैख़ जलालुद्दीन बुखारी मखदूम जहानियाँ जहाँगश्त के अनुयायी मानते हैं जब की तज़किरों में इन्हें शैख़ जमालुद्दीन जानेमन जन्नती का अनुयायी माना गया है.
सैयद हसन असकरी के अनुसार जो अपने आप को छोड़कर बाहर आ चुका है वो मलंग है. अकबर के दरबारी कवि फ़ैज़ी ने अपनी एक मसनवी में मलंग का ज़िक्र किया है-
बे अदब हरगिज़ मा बाशी बा मलंग
हस्त दो दरिया ई वहदत रा निहंग .
(अर्थात मालगों के पास बेअदबी से न पेश आओ क्योंकि वह अद्वैत की नदी का मगरमच्छ है )
दीवानगान तरीक़ा हज़रत जमालुद्दीन जानेमन जन्नती से शुरू हुआ जो हज़रत अब्दुल क़ादिर जिलानी की बहन बीबी नसीबा की औलाद थे . सैयद मोहम्मद जलालुद्दीन शाह मदार के खलीफा थे .जमा दिल मदरियात के लेखक के अनुसार सैयद मोहम्मद जमालुद्दीन को  522 AH में शाह मदार से खिलाफत मिली.
कहते हैं कि एक बार शेर शाह ने इनके हाथ से आम खाना अस्वीकार कर दिया था जिसपर क्रोधित होकर इन्होंने उसके साम्राज्य के जल्द ही विनष्ट होने कि भविष्यवाणी कर दी . फ़ारसी कवि शैख़ सादी ने इनके जंगली जानवरों के साथ आध्यात्मिक संबंधों पर कई कवितायेँ लिखी हैं . पुराने चित्रों में इन्हें शेर पर सवार भी देखा जा सकता हैं . इन्होंने शैख़ मखदूम जहानियाँ जहाँगश्त का साक्षात्कार भी किया था. इनका देहांत 951 AH में हुआ और इनकी दरगाह बिहार के हिलसा में स्थित है.
हज़रत शैख़ जमालुद्दीन जानेमन जन्नती के प्रसिद्द खलीफाओं में एक हज़रत शाह फकरुद्दीन जमशेद थे . नवाब अब्दुर रहीम खानेखाना इनका बहुत सम्मान करते थे . इनका देहांत 970 AH में हुआ और इनकी दरगाह उत्तर प्रदेश के अकबराबाद में दरवाज़ा ए मदार के निकट स्थित है.
सैयद अहमद बदपा शैख़ जमालुद्दीन के भाई थे और सैयद बदीउद्दीन के मुरीद थे . इन्होंने अपनी ख़ानक़ाह आजमगढ़ के कोल्हुआबन में स्थापित कि थी . सैयद अहमद बदपा  के विषय में सामग्री मिरातुल मदारी और बह्र ए ज़खार में उपलब्ध हैं . जन्म के तुरंत बाद ही शैख़ अब्दुल क़ादिर जिलानी RA ने इन्हें शाह मदार को सौंप दिया. शाह मदार के साथ साथ ये समरकंद के रास्ते हिंदुस्तान आये . शाह मदार से शैख़ अब्दुल क़ादिर जिलानी की भेंट 488 AH में हुई थी .
दीवानगान सिलसिले की 72 उप शाखाएं हैं जिनमे से प्रमुख हैं -
दीवानगान ए सुल्तानी
दीवानगान ए जमशेदी
दीवानगान ए आतिशी
दीवानगान ए आबी
दीवानगान ए अर्ज़ी
दीवानगान ए मग़रबी
दीवानगान ए सुमाली और
दीवानगान ए समदी.
इनमे से दो उपशाखाओं ने आग और पानी को टोटम रखा है.
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मलंगों ने सिर्फ अपने आप को ज़िक्र तक ही महदूद नहीं रखा वरन उन्होंने हिंदुस्तान के समाज के निर्माण में भी अपना सक्रिय योगदान दिया है. आजादी की पहली लड़ाई में एक डंडी सन्यासियों के साथ मजनू शाह जैसे मलंगों ने भी 1776 के सन्यासी फ़क़ीर आंदोलन में अपना मुखर योगदान दिया और अंग्रेजों के छक्के छुड़ाए. पहली बार ईस्ट इंडिया कंपनी को हिंदुस्तान की गंगा जमुनी तहज़ीब का एहसास मलंगों ने ही करवाया. इस आंदोलन में हिस्सा लेने वाले मलंग दीवानगान ए आतिशी से बावस्ता थे . कहा जाता है की मशहूर फ़क़ीर मजनू शाह मलंग जो अठारहवीं शताब्दी में ईस्ट इंडिया कंपनी के लिए दहशत का सबब बना हुआ था, लड़ाई पर जाने से पूर्व कुछ रहस्यमयी अग्नि क्रियाएं करता था .यह आंदोलन अंग्रेजों के लिए मुश्किल कई कारणों से था. पहला कारण तो यह था कि इन फ़क़ीरों के बीच सूचना का आदान प्रदान बड़ी ही तीव्र गति से होता था . दूसरा कारण था इन फ़क़ीरों के पास अपना कोई ठिकाना नहीं था इसलिए इन्हें ढूंढना बड़ा मुश्किल था . इन फ़क़ीरों और सन्यासियों की जनता में भी बहुत इज़्ज़त थी और इनका डर भी व्याप्त था इसलिए इनके बारे में मालूमात हासिल करना ख़ासा मुश्किल था .मजनू शाह के मुरीदों ने आगे चलकर एक आंदोलन को जन्म दिया जिसका नाम उन्होंने "पागलपंथी" रखा . इस आंदोलन का नेतृत्व टीपू शाह कर रहा था . बहुत जल्द ही यह ज़ुल्मी ज़मींदारों और अंग्रेजों के खिलाफ एक मशहूर आंदोलन की शक्ल में उभर का सामने आया .इस आंदोलन में मजनू शाह मलंग के मुरीदों में करीम शाह प्रसिद्द हुए . करीम  शाह अपने सहयोगियों को भाईसाहब के नाम से संबोधित करते थे ताकि बड़े छोटे और ऊंच नीच का भेद समाप्त हो.बाद में  1813 में उनके देहांत के पश्चात उनके पुत्र टीपू  शाह ने इस आंदोलन की कमान संभाली .करीम शाह की पत्नी चाँदी बीबी का भी इस आंदोलन में सक्रिय योगदान था और उन्हें पीर माता कह कर संबोधित किया जाता था .1852 में टीपू शाह के देहांत के पश्चात जनकु और दोबराज पाथोर ने आंदोलन की कमान सम्हाली. बर्मा में अंग्रेजों की लड़ाई के बाद उत्पन्न स्थितियों के कारण यह आंदोलन शुरू हुआ था जो अंग्रेजों और ज़मींदारों द्वारा लगाए गए करों के विरोध में था. आखिरकार यह आंदोलन मज़दूरों और अंग्रेजों के बीच बातचीत और करों की वापसी के समझौते के पश्चात ख़त्म हुआ .
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दीवानगान सिलसिला कभी हिंदुस्तान के सबसे अमीर सिलसिलों में शुमार होता था. इस सिलसिले के पास सबसे ज्यादा ज़मीनें थीं. ऐसा इसलिए था क्योंकि ये फ़क़ीर विवाह नहीं करते थे इसलिए ज़मीनों का बटवारा नहीं होता था और फ़ुतूह में आने वाली ज़मीनें पीढ़ी दर पीढ़ी यूँ ही रहती थीं और उनमे मुसलसल इज़ाफ़ा होता रहता था.
मलंग कुछ प्रतीक चिन्हों को अपने साथ रखते है  जिनमे से माही ओ मरातिब सबसे प्रमुख है.इसके अलावा डंका, निशान, कस्ता, मोरछल भी ये अपने पास रखते है जो इनका इनके पीर शैख़ जमालुद्दीन जानेमन जन्नती के प्रति  सम्मान इंगित करता है. मलंग जो झंडा और निशान रखते है उनमे माही या मीन का चिन्ह सबसे मुखर होता है. मलंग माही ओ मरातिब को अपना सबसे निकटतम सहयोगी मानते है और कभी मछली नहीं खाते. ऐसा कहा जाता है कि एक बार पैगम्बर यूनुस को एक बड़ी मछली ने निगल लिया था लेकिन वो उसके पेट से सही सलामत निकल आये थे. यही कारण हैं कि मदारी मलंग यह मानते है कि मछली की आलौकिक शक्ति उनकी रक्षा करेगी.
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माही और मरातिब के अलावा मलंग अपने साथ पंजतन, छड़ी( जो कभी कभी नुकीली भी होती है ) सोंटा, नगारा और छुरी भी रखते है .पंजतन मनुष्य के हाथ की शक्ल का होता हैं और यह हज़रत पैग़म्बर मुहम्मद ( PBUH ) , हज़रत अली, बीबी फातिमा, इमाम हसन और इमाम हुसैन की याद में रखा जाता हैं .
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नगारा दो प्रकार का होता था पहला दलमादल और दूसरा कारक बिजली जो क्रमसः ग्वालियर के शहज़ादे और मुग़ल बादशाह शाह जहाँ द्वारा दान में दिया गया था .इनका प्रयोग उर्स के समय होता हैं जब इन्हें बजाया जाता हैं और मलंग इसकी धुन पर धमाल करते हैं.
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मलंग सामान्यतया बिना बाजू की कमीज (अल्फ़ा ) , कमरबंद (कटिवस्त्र ), कफनी , लंगोटी, सर पर पगड़ी, तस्बीह, कंठा, सेली और दूसरे आभूषण धारण करते हैं .इन्हें अपने मुर्शिद से तबर्रुकात हासिल होती हैं जो पीढ़ी दर पीढ़ी चलती जाती हैं .
मलंगों की तज्हीज़ ओ तकफ़ीन बाकी मदारिया फ़क़ीरों से अलग होती हैं . मदारिया की दूसरी शाखाओं जैसे खादिमान, आशिकान और तालिबान में मृत शरीर को दफनाया जाता है, जबकि मलंगों में उनकी जटा या भीक को काट कर उसे अलग दफनाया जाता हैं और शरीर को अलग दफ़न किया जाता है. उदाहरणार्थ - मजनू शाह मलंग की दो क़ब्रे  हैं जो मकनपुर में स्थित हैं . एक में उनकी जटा दफ़न हैं और दूसरे में शरीर . कहा जाता है की मजनू शाह ने खुद कई मलंगों को इस तरीके के दफनाया था जो सन्यासी फ़क़ीर आंदोलन के दौरान शहीद हुए थे .
1440 AD में शाह मदार के देहांत के पश्चात उनके सबसे प्रसिद्द शिष्यों में शैख़ जमालुद्दीन जानेमन जन्नती थे जिनकी दरगाह हिलसा में हैं जिसका निर्माण 1593 AD में दरभंगा के जुम्मन मदारी ने करवाया था .तज़्किरात उल मुतक़्क़ीन में इनका हवाला है. यहाँ इनकी दरगाह के आठ गुम्बद हैं ,.दरगाह के अलावा गौर से देखने पर ख़ानक़ाह और नौबत खाना के अवशेष स्पष्ट परिलक्षित होते है .
मलंगों ने हिंदुस्तान की संस्कृति में घुलकर अपने आप को इसी का अंग बना लिया है. इनके योगदानों के विषय में लिखने बैठा जाए तो एक उम्र भी कम है. ये मलंग इतिहास की भाँति हैं. इन्हें शब्दों में व्यक्त करना बेमानी हैं. इतिहास की ही तरह इन्हें तो बस जीया जा सकता है. ये तसव्वुफ़ के जीवित जीवाश्म हैं,..रूह आज भी उतनी ही सच्ची और खूबसूरत हैं जितनी एक विकारों से रहित इंसान की होती हैं.
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खुशबू का ये सफर युगों से चल रहा हैं ,.अलग अलग नामों में, अलग अलग रंगों में लिपटा हुआ.
Refrences –
1.       Abul fazal – Akbarnama, Ain I Akbari
2.       Z.A. Desai – History of Bihar – Islamic Culture . No.- 46(1),1972. pp -17-38.
3.       S.H.Askari – Contemporary biography of fifteenth century Sufi saint of Bihar
4.       Mirat ul Madari
5.       Tazkirat ul muttaquin
6.       R.R. Diwakar – Bihar through the ages
7.       Omar khalidi – Qawwali and Mahefil I Sama in C.W.Troll
8.       Gulzar I Abrar
9.       The tribes and casts of Nort west India
10.   Khaja Khan – Studies in Tasawwuf
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And many other important books  I have used for reference time to time.
-Suman Mishra [email protected]
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