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kaminimohan · 1 day
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Free tree speak काव्यस्यात्मा 1429
कविता की सेज पर
-© कामिनी मोहन।
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ओफ़्फ़! खट-खट करता अस्थि-पंजर है
सर से पाँव तक मुफ़लिसी का मंज़र है
ठहरते नहीं लोग आते-जाते रहते यहाँ
ज़ुबान से लज़ीज़ सब्ज़बाग़ परोसते यहाँ
नक़्शे पर सिर्फ़ एक चेहरा घड़ी है
मगर आदमी को बड़ी हड़बड़ी है।
लालच और ग़लतफ़हमी का
अफ़सोस में दिखता फ़र्क़ साफ़ है
एक पल के रफ़्तार को क्या दोष दे हम
उसका हर खंज़र माफ़ है
भला जीवन का यहाँ लिया किसने मज़ा है
यह कविता की सेज पर पीसने की सज़ा है।
-© कामिनी मोहन पाण्डेय।
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kaminimohan · 11 days
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Free tree speak काव्यस्यात्मा 1428.
आकुल व्याकुल मन और प्राण
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आकुल व्याकुल मन और प्राण
रखा हैं हमने उसका नाम।
बनती उसकी एक तस्वीर
घटते-बढ़ते धूप समान।
क़तारबद्ध जीवन निर्माण
ज़रा नहीं अधरों पर मुस्कान।
भूले प्राणों से प्राणों का गान
कौन करे आत्म पहचान।
गर्म रेत-सा कविता संग्रह
ख़ून पसीने से सींचा जान।
चटकने की आवाज़ आए तो
ख़त्म हो जीवन का मान।
-© कामिनी मोहन पाण्डेय।
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kaminimohan · 19 days
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Free tree speak काव्यस्यात्मा 1427.
अनायास
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- © कामिनी मोहन।
संगीत समेटता हुआ मैं
संजीदा होता जाता हूँ
पिघलता हुआ बहता हूँ
सँभलते हुए लकीर पर पाँव धरता हूँ
और मेरा मार्ग मुझमें मुक़ाम ढूँढ़ता है
चलते-चलते
दिमाग़ में एक धरती
एक आकाश ठहरता है
साँसों से बीच के मौसम को
नियंत्रित करता है
और कविता अक्षरों को अंग लगाकर आती है
अस्तित्व को संकल्पित करती है
दीपक जलाती है
हर तरफ़ से नतमस्तक मैं
शब्द समझ नहीं पाता हूँ
जैसे पानी पर बना भंवर
वृत्त बनाते हुए किनारे से
टकराकर खो जाता है
निस्तब्ध मैं
तटस्थ संवेदना लिए
सिर्फ़ अनजाने प्रवाह में
ज़रा-ज़रा
आनायास विस्मृत होता जाता हूँ।
-© कामिनी मोहन पाण्डेय।
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kaminimohan · 20 days
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Free tree speak काव्यस्यात्मा 1426.
नीरवता
-© कामिनी मोहन।
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नए-नए दाग़ के निशान
समय की गोद में ठहरकर
इतिहास के पन्नों में दर्ज़ हो जाते हैं
वो डर जो हिम्मत को नहीं ला पाते हैं
आत्मा को गलाने में लग जाते हैं
देह के दस्तावेज़ सिकुड़ कर
भीतर ही भीतर एक दिन
जिस्म बदल डालते हैं।
चिंगारी बुझ चुकी हो तो
हवा से नहीं भड़कती
वक़्त तो वक़्त है
ज़माने की हक़ीक़तें
सब टटोल लेती है।
धैर्य की विश्वास से दूरी
जैसे हो क़रीबी रिश्तों के पास की धूरी
ज़रा-सा व्यथित प्रतिरूप
काट-छाँटकर दूर छिटक देती हैं।
ख़ामोशी की फ़िज़ा में
ज़िंदगी हर तरफ़ बहती है
रेंगती है
सरकती है
भीड़ में सदाएँ सुनाई नहीं देती
ठहरती है तो
बस नीरवता!
© कामिनी मोहन।
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kaminimohan · 1 month
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Free tree speak काव्यस्यात्मा 1425
वो आईं है सामने
- कामिनी मोहन।
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खिड़की से आते मनोदशाओं के
अनगिन पैकेट
जुड़कर एक तस्वीर बनाते हैं
जंगल की आग से निकलता धुआँ
आकाश को चिढ़ाते हैं
कुछ कोमल कुछ तरल
जैसे ओस में भीगी हुई
ज़रा-सी लचकती
जलते अनुभवों से यथार्थ के तिनके
उड़ान भर आते हैं
वो जो दिन की भूख
रात थक कर सो गई थी
फिर जाने क्या-क्या बात हुई थी
जाने क्या-कुछ घात हुई थी
अमिट घाव के निशान देख आते हैं
आत्मा के कपड़े पहनकर
वो आईं है सामने
सिर्फ़ भूख और दुख नहीं
देह की कुछ तस्वीरें लाईं है
ढूँढ़ रहा हूँ उस बात को
जो ख़ाली कैनवस भर आईं है
नदियाँ सूख जाती है
लेकिन किनारे नहीं मिटा करते हैं
जब तरलता के सारे रास्ते ख़त्म हो जाते हैं
तब सिर्फ़ धूल उड़ा करती हैं
अधिकांश प्रेम कविताएँ इस धूल में
मिलकर यहाॅं से वहाँ न जाने कहाँ-कहाँ
आवारा सड़कों पर चलती रहती हैं।
-© कामिनी मोहन पाण्डेय।
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kaminimohan · 2 months
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Free tree speak काव्यस्यात्मा 1424.
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अगर प्रेम के भीतर स्वतंत्रता की कोई भाषा हैं तो हमें उसको भी खोजना, और उसकी लिपि को दृढ़ करना चाहिए, जिसे जीवन का प्रत्येक कोना स्पर्श कर सकें।
-© कामिनी मोहन पाण्डेय।
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kaminimohan · 2 months
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Free tree speak काव्यस्यात्मा 1423.
साथ
-© कामिनी मोहन पाण्डेय।
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स्पर्श पानी-सा था
अनंत युगों के सापेक्ष
दिन की स्मृति और
अंर्तमन की रात लिए
इंतज़ार के सिलसिले
दर-ब-दर की प्यास
रोज़ एक अहसास
लेकर गुज़रता, क़ाफ़िला
फिर-फिर बस्तियाँ पास लिए
आख़िरी ज़िद्द तक
उपमाएँ ढूँढ़ता आदमक़द
आकांक्षाओं के क़रीब
तकलीफ़ में बोलता
सिर्फ़ खोया हुआ साथ लिए।
-© कामिनी मोहन।
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kaminimohan · 2 months
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Free tree speak काव्यस्यात्मा 1422.
छोटी-सी ख़बर
-© कामिनी मोहन।
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छोटी-सी ख़बर बड़ी बनती रही
कानों-कान ख़बर फैलती रही
वक़्त से माक़ूल मुलाक़ात होती रही
कभी दिन, कभी रात सोती रही
सागर-संगम के चारों ओर फैले तट तक
पानी पर आग जलती और बुझती रही
वो अनजाने अनगिन चेहरे आते जाते रहे
आग जो सीने में लगी थीं
वो आँखों के कंबल से ढापती रही
यूँ ही पुरख़ुलूस चलते-चलते
ख़त्म होते अतीत को
रोके बग़ैर
जहाँ-जहाँ चूकते रहे
ग़लत वक़्त को भी
सही वक़्त समझते रहे
अभिनय नाज़ुक ख़्वाबों के
ज़्यादा धोखेबाज़ रहे
ख़ुशी या कि दुःख की फांस
ज़िंदगी के भीड़तंत्र से लिपटे रहे
कविता से पहले
बेसाख़्ता ज़ार ज़ार रोए फिर भी
पहली बार जिससे थे मिले
उसी को ढूँढ़ने
सामने वाले दरवाज़े तक चलते हुए
कविता के ख़ाली कैनवस को भरते रहे।
-© कामिनी मोहन पाण्डेय।
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kaminimohan · 3 months
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Free tree speak काव्यस्यात्मा 1421.
लिफ़ाफ़े में बंद आमंत्रण
-© कामिनी मोहन।
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अनायास ही न चाहने पर भी
हर आमंत्रण स्वीकार कर लेता हूँ
यह खींच लेती है अपनी ओर
वो अनगिन अनछुई कलाएँ
जो लिफ़ाफ़े में बंद है
पड़ी रहेंगी, टेबल पर अपनी तिथि तक
खुले रहेंगे
उसके दरवाज़े
टुकड़ों में कटे दृश्य को जोड़े जाने तक।
अजीब भावनाओं के गंध समेटे
पेट और भूख के बीच
नज़रे रोटियाँ सेकती हैं
कभी फ़ायदा कभी नुक़सान देखती हैं
तलाश कभी पूरी नहीं होती है
फिर भी
सुंदर आँखें फाड़-फाड़कर देखती हैं
उन्हें नहीं पता,
ख़ूबसूरती अपनी पूरी उम्र लेकर आती है
जैसे हवा में ख़ुशबू पूरी नहीं घुलती
वेसे ही प्रेम की भाषाएँ  कहीं नहीं मिलती हैं
ये  फ़िल्म के पर्दे पर
चलने वाले लिखित संवाद की तरह
दृश्य और श्रव्य की मांग करती है।
कँटीले रास्ते
उड़ते धूल गुबार
गूढ़ रहस्य हर भूल स्वीकार कर लेती हैं
छलनी संवेदना के
नज़रअंदाज़ तिरस्कार छू लेती हैं
अपार प्रेम की यात्रा के स्मारकों के बीच
शताब्दियों का जीवन अनुराग बुनते हुए
ये केवल कविता की मांग करती है।
-© कामिनी मोहन पाण्डेय।
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kaminimohan · 4 months
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Free tree speak काव्यस्यात्मा 1420.
ख़ाली जगह
- © कामिनी मोहन
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जिनके बारे में मैं बात कर रहा हूँ
वह एक ख़ाली जगह है
ख़ाली जगह की जात कुछ और है
घात कुछ और है
जैसे ओस की बूँद से नहाए हुए पत्ते
ख़बरें देते कुछ और है।
ख़ाली जगह पर कितना ही रस उड़ेल दे
पर बीच की जगह ख़ाली ही पड़ी रहती हैं
किताब जिसमें लिखा कुछ ख़ास नहीं है
पर समझने में दिमाग़ उलझे रहते हैं।
वर्षों से ख़ाली पड़ी प्यासी भूमि आद्र नहीं रहती
हम एक जगह को छोड़कर
दूसरे ख़ाली जगह को भरते हैैं
पर ख़्वाहिशें स्थान ढूँढ़ लेती हैं
साँसों के पटल पर कुछ क्षण
ख़ालीपन के रहते हैं
और हम लम्बाई और चौड़ाई देखते हैं।
शायद सब ख़ाली जगह नापने के बाद
यह पता चले कि
हम पूरे कभी भर नहीं सके
हम उस तूलिका की तरह है
जो उपयोग न किए जाने पर
ख़ाली जगह पर पड़ी रहती हैं
वहाँ, जहाँ बहुत ही ज़्यादा ख़ालीपन है।
- © कामिनी मोहन पाण्डेय।
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kaminimohan · 4 months
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Free tree speak काव्यस्यात्मा 1419.
एक तितली की तरह
-© कामिनी मोहन।
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जो हैं सुशोभित 
हैं निकट एक चट्टान के
निकट रहेंगे हमेशा
उज्ज्वल तन संसार के
आनंद की आग में जल जाएँगे
फ़र्क नहीं कि वक़्त निगल कर
किधर ले जाएँगे।
जुनून और पागल कर देने वाली भूख की तरह
रचित पांडुलिपियाँ अथाह शून्य में बिखराएँगे
जैसे एक पेंटिंग बनाने में
लग गए हो कई साल
उन रंग भरे शब्दों के
कविताओं की सूचियाँ बनाएँगे।
कहीं आधे अंधेरे और उजाले के बीच
कहीं आधे और पूरे शब्दों के बीच
कहीं कठोरता और कोमलता के बीच
कहीं आराधना और साधना ​​के बीच
कहीं उदासीनता और प्यार के बीच
काँपता हुआ दिल ठहरेगा
मिलने की निश्चिंतता के बीच
हम एक अवर्णनीय गंध फैलाएँगे।
जैसे आकाश में तारे
अपना रहस्य छिपाते चमकते रहते हैं
हवाएँ समय का ताना-बाना बुनती रहती हैं
लहरें पृथ्वी की उज्ज्वल
अंधेरी भूमि पर घूमती रहती हैं
जब ख़ालीपन हमेशा रहता है
तब प्रेम के प्रभामंडल को पहनकर
हम पूर्णता में हास्य लेकर आएँगे।
भ्रम की भ्रामक दुनिया में
एक तेज़ है
सब उज्ज्वल है
हम जिज्ञासा में
एक तितली की तरह
तैरते जाएँगे
मौत की आशंका और आतंक से भरी हुई
रक्त से सनी धरती पर
उगने वाले फूलों को झड़ने से बचाएँगे।
-© कामिनी मोहन ।
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kaminimohan · 4 months
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Free tree speak काव्यस्यात्मा 1418.
जन्म दिवस पर - कामिनी मोहन।
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आगे हमेशा आगे बढ़ते हुए
अंधेरे से जंग है जीती।
दो राहे का संदेह नहीं
एकल राह जागती-जीती।
हर घड़ी हर बार
सूर्य तेज़-सा बनकर चमकी।
सालगिरह की ख़ुशियाँ ढलती
साँचे में नवजीवन की।
उम्मीद जीवन्त उम्मीदों की
अपरिशेष अनंत आशीर्वाद रहे
ख़ुश रहे आबाद रहे।
जन्म दिवस पर
यही दुआ हर बार रहे।
-© कामिनी मोहन पाण्डेय।
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kaminimohan · 5 months
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Free tree speak काव्यस्यात्मा 1417.
प्रेम के अभयारण्य का आकलन
- © कामिनी मोहन।
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सुनहरे सूरज के सत्कार के
नक्षत्रों के आकार के
प्रेम का कालातीत अभयारण्य है
निर्मित क्षितिज पर
कार्य की ख़ामियाँ है
और पूर्णता है।
त्वचा की कोमलता
सर से पाँव तक
वैसी नहीं हैं जैसी लगती हैं
आचानक
देह अंतरिक्ष के विस्तार में
अमानक एक गहन सत्य
हावी होता है
जिसकी चाह है
ज़रूरत है
विशेष स्थान का दावा
प्रेम को प्रतिस्थापित करती है।
एक दूसरे के बीच के अंतर को
पाना और छोड़ना बहुत मुश्किल है
भक्ति की नहीं, ज्ञान की नहीं,
इच्छा और कर्म की भी नहीं
अपने आप को पाकर
हर किसी को पाना मुश्किल है।
जैसे तूफ़ान के बाद सब उजड़ जाता है
केवल घास ही बचती है
फिर मजबूती का आकलन कैसे करे
वो जो ताक़त के साथ खड़ा था
या वो जो नरम होकर भी
तूफ़ान के सामने खड़ा था।
-© कामिनी मोहन पाण्डेय
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kaminimohan · 5 months
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Free tree speak काव्यस्यात्मा 1417.
किसी को कहीं छोड़ कर आना
-© कामिनी मोहन।
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किसी को कहीं छोड़ कर आना
इतना सरल नहीं होता है
इस कठिनाई में छूट जाता है
एक गुज़रा हुआ अतीत
मैंने छोड़ा था, तुम्हें वहाँ
जहाँ से सारे सहारे अलग हो जाते हैं
अकेले कमरे में सिसकता हुआ रुदन
एक भय एक अपनेपन की कमी के साथ
बिल्कुल अकेले।
प्रेम और मोह का अंतर स्पष्ट नहीं
दुख है या कुछ और इसकी समझ नहीं
पूरे दिन की यात्रा और चुप्पी
आँसू को पीकर शांत
बस यूँ ही वापस होता रहा
दिन भर का सफ़र ख़त्म होता रहा
चुप्पी ख़त्म, बाँध रिसता रहा।
डबडबाती हुई स्मृतियाँ
और फफक कर बरसती सिसकियाँ
कविता रचती रही
एक उम्र जो मैंने बिताए थे
उसे आगे बढ़ाने की ललक में
आज तुम्हें अपने से दूर छोड़ कर चले आए थे।
शायद यही नियति है
पाँव पर खड़े होने की विनती है
जिस रास्ते से तुम्हें छोड़कर आए थे
वो रास्ते अभी भी लौटकर वापस नहीं आए है
तलाश है, उन्हें प्राण के प्रवाह की
टकटकी लगाए प्रेम के आस की
दर्पण की तरह देखने की।
ख़ंजर-सी चुभन है प्रेम की
कोई तृष्णा नहीं
चलते हुए
ढूँढ़ती हैं सड़के
भारी होते मन को
रोकती नहीं
पर देखती हैं सड़के।
दरवाज़े की ड्योढ़ी के दोनों तरफ
चलने को अभिशप्त तन को
यक़ीन है
इल्ज़ाम रहेगा मुझ पर
अफ़सोस न कहने का रहेगा मुझ पर।
रोज़ प्रेम की पुनर्व्याख्या को
आने और जाने वाले नज़्मों की आख्या को
अतिरेक से उकेरे शक्ल की व्याख्या को
भला यहाँ पढ़ सका कौन है
अरचित दुख की लिपि है
हर युग में जो अव्यक्त
अदृश्य रह सका वो मौन है।
-© कामिनी मोहन पाण्डेय।
kaminimohan
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kaminimohan · 5 months
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Free tree speak काव्यस्यात्मा 1416.
जग ज़ाहिर है क़िस्सा
-© कामिनी मोहन।
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तलाश करते हैं सभी
उस चीज़ की जो सामने आए।
कभी हार तो कभी जीत के
मायने लाए।
उनसे ये हो जाए
हमसे ये हो जाए।
ज़माने की हवा
चाहे इधर से उधर जाए
बस अस्तित्व को अस्तित्व मिल जाए।
फ़र्क नहीं पड़ता कि हम कहाँ जाए
एक-दूसरे से कितने पास कितने दूर जाए।
जानता हूँ
एक दूसरे को पाएँगे
क्योंकि
सब जोड़-घटाकर
नियति मेरे ही सामने लाए।
भले ही ख़ुद के ख़िलाफ चलने में
पथरीली राहों को सूना छोड़ने में
मुश्किले आए।
पर जो कर रहे
उस पर विश्वास तो अडिग आए।
मर्ज़ी हमारी, हमारी ही रही
ग़फ़लत कहाँ से हाथ आए।
जो जग ज़ाहिर है क़िस्सा
उससे बे-ख़बर किधर जाए।
-© कामिनी मोहन पाण्डेय।
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kaminimohan · 5 months
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Free tree speak काव्यस्यात्मा 1415
प्रेम की गति
- © कामिनी मोहन।
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देखने में बादल कितने नरम
उड़ने में सक्षम
धरती से बँधे हुए
पर चलने में सक्षम
इनकार नहीं इकरार करते हुए
गहराई से सोचते
जीवन के अहसास में डूबे हुए
वो दर्द जो महसूस होगा
डरावना या सुखद होगा
चीख़ते-चिल्लाते मुस्कराते हुए
मदद माँगते हुए
बहते गर्म ख़ून की पहचान
सितारों के ऊपर नीचे ज़मीन पर
जिन्होंने अपनी आत्मा के अंधेरे को
हराने का साहस पाया है
जिन्हें गहरे भय की गहराई से
जागना और उठना आया है
जैसे ज्ञान और शक्ति के साथ पुनर्जन्म पाया हो
जैसे एक रोशनी के साथ उज्ज्वल कर्म लाया हो
अंधेरे से बाहर निकलने में सब अर्पण कर आया हो
उस यक़ीन की तरह
जिसके भरोसे सब है
मैं भी उसके भरोसे हूँ
मुक़म्मल तरीके से
हमेशा एक-दूसरे से दूर हूँ
भरोसा होना नियति है
यह प्रेम की गति है।
-© कामिनी मोहन।
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kaminimohan · 6 months
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Free tree speak काव्यस्यात्मा 1414
आत्मिक और नैतिक चेष्टा का बिम्ब
- © कामिनी मोहन।
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कला स्वभाव से जन्मी एक नियमबद्ध अनुकृति है।
यह सदैव मनुष्यकृत नियमों का समर्थन करती है
और प्रकृति के सौन्दर्यात्मक पक्ष के
सद्व्यवहार का अनुकरण करती है।
जीवन से कृत्रिमता को निकाल दिया जाय
तो जो दृश्य रूप-रंग शोभायमान होता है,
वह स्वत:स्फूर्त कला है।
कला ही जीवनाशक्ति का परभृत प्रतिबिंब है।
यह मूलतः एक आत्मिक और नैतिक चेष्टा का
बिम्ब है।
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